धरती ने भेजा था सूरज-चाँद स्वर्ग से लाने,
भला दीप लेकर लौटूं किसको क्या मुख दिखलाने?
भर न सका अंजलि, तू पूरी कर न सका यह आशा,
उलटे, छीन रहा है मुझसे मेरी चिर-अभिलाषा ।
रहने दे निज कृपा, हुआ यदि तू ऐसा कंगाल,
मनसूबे मत छीन, कलेजे से मत कसक निकाल ।
माना, है अधिकार तुझे दानी सब कुछ देने का,
मगर, निराला खेल कौन इच्छाएँ हर लेने का ?
अचल साध्य-साधक हम दोनों, अचल कामना-कामी,
इतनी सीधी बात तुझे ही ज्ञात न अन्तर्यामी !
माँग रहा चन्द्रमा स्वर्ग का, मांग रहा दिनमान,
नहीं माँगने मैं आया इच्छाओं का अवसान !