[उनके लिए जो हमारी कतार में आने से इनकार करते हैं]
कहता हूँ, मौसिम फिरा, सितारो ! होश करो,
कतरा कर टेढी चाल भला अब क्या चलना ?
माना, दीपक हो बड़े दिव्य, ऊंचे कुल के,
लेकिन, मस्ती में अकड़-अकड़ कर क्या जलना ?
सब है परेड में खड़े, जरा तुम भी तनकर,
सिलसिला बाँध हो जाओ खडे कतारों में,
कसे लगता है भला तुम्हें गृम्फित रहना
इस तरह, तिमिर के टेढ़े-मेढ़े तारों में ?
आगाही सुनते नहीं, सितारे हँसते हैं,
कहते कवि की कथा निराली होती है;
देखती कला विधि के विधान में भी त्रुटियाँ;
कल्पना, सत्य ही, खाम-खयाली होती है ।
मिट्टीवाले बँधकर कतार में चला करें,
हमको क्या ? हम तो अमरलोक के वासी है;
अम्बर पर कब मरनेवालों की रीति चली ?
सुरपति होकर भी इन्द्र प्रसिद्ध विलासी हैं ।
अच्छा, तब प्यारे ! और चार दिन मौज करो,
भूडोल नहीं नीचे मिट्टी पर दम लेगा;
लीलेगा सारा व्योम और पूर्णहुति में
वह नहीं स्वर्ग से कभी ग्रास कुछ कम लेगा ।
मैं देख रहा हूँ साफ, कौंधती है बिजली
अँधियाली में भावी की घोर घटाओं पर,
औ' मृत्ति वज्र बनकर अमोघ-सी टूट रही
नीचे से उड़ ऊपर की बडी अटाओं पर ।
मत हँसो कि मन में छिपी हमारी आँखों पर
जादू-टोने का धुआँ न छाया करता है,
देखता नियन्ता जो कुछ भी जग से छिपकर,
सबसे पहले वह हमें दिखाया करता है ।
मैं देख रहा हूँ, शैल उलटकर गिरते हैं,
सागर का जल ऊपर को भागा जाता है;
है नाच रहा घिरनी होकर अम्बर सारा,
नक्षत्रपुंज पत्तों-सा चक्कर खाता है ।
क्या तुम संभाल लोगे इस व्योम-विवर्तन को ?
जादू-टोने से हवा न बाँधी जायेगी ।
लाकर कतार के भीतर तुम्हें खड़ा करने
रूई के पुतलो ! निश्चय, आँधी आयेगी ।
1951