तैर गये हम जिसे, कहो क्या
वह समुद्र था जल का ?
विषपरिवह सें विकल सिंधु
या पिघलते हुए अनल का ?
पुरस्कार में यही द्वीप पर,
थे क्या हम पाने को ?
झंझा पर होकर सवार
थे चले यहीं आने को ?
बालू का यह द्वीप, दीखती
कहीं नहीं हरियाली,
एक रंग सब ओर, चतुर्दिक्
उजियाली, उजियाली ।
होती कभी न शाम, न कोई
तारक ही खिलता है,
जरा जुड़ाये आंख, न ऐसा
एक दृश्य मिलता है ।
दोपहरी का अन्धकार !
निष्प्रान ज्योति की वेला,
मही बड़ी नि:संग, व्योम पर
रवि भी बड़ा अकेला ।
सूखे पत्तों के समान
चुम्बन नभ से झरता है;
न तो जानती मही, न
सूरज ही अनुभव करता है ।
भीगी किरणों की दुनिया,
वह आग चेतनावाली,
कहां गई ? यह समारोह
करता किसकी रखवाली ?
साँसों की है गूंज कि टिक-टिक
घड़ी बोलती है यह ?
जीवन का पदचाप? कि मरु में
हवा डोलती है यह ?
बड़ी धूप है इस मरघट में,
और कहीं चल भटके राही !
हाथ-पाँव रहते भोगें हम
क्यों मुर्दों के बीच तलाही ?
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कवि ! कहता तू मरण, किंतु,
इसने तो सुख का किया वरण है;
किसे चलाना चाह रहा तू ?
"करुणा का यह थका चरण है ।"
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अच्छा, इसी द्वीप में बैठो,
सिकता से मुख धोओ,
मरी हुई चाँदनी ओढ़कर
सोओ, हे मन ! सोओ ।
पड़े रहो, आयेगा, निश्चय,
किसी रोज अनजान
द्वीपान्तर में तुम्हें उड़ा
ले जाने को तूफान ।
(1951)