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अरुणोदय

16 फरवरी 2022

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 (15 अगस्त, सन् 1947 को स्वतंत्रता के स्वागत में रचित) 

  

नई ज्योति से भींग रहा उदयाचल का आकाश, 

जय हो, आँखों के आगे यह सिमट रहा खग्रास । 

  

है फूट रही लालिमा, तिमिर की टूट रही घन कारा है, 

जय हो, कि स्वर्ग से छूट रही आशिष की ज्योतिर्धारा है। 

  

बज रहे किरण के तार, गूँजती है अम्बर की गली-गली, 

आकाश हिलोरें लेता है, अरुणिमा बाँध धारा निकली। 

  

प्राची का रुद्ध कपाट खुला, ऊषा आरती सजाती है, 

कमला जयहार पिन्हाने को आतुर-सी दौड़ी आती है। 

  

जय हो उनकी, कालिमा धुली जिनके अशेष बलिदानों से, 

लाली का निर्झर फूट पड़ा जिनके शायक-सन्धानों से । 

  

परशवता-सिन्धु तरण करके तट पर स्वदेश पग धरता है, 

दासत्व छूटता है, सिर से पर्वत का भार उतरता है । 

  

मंगल-मुहूर्त्त; रवि ! उगो, हमारे क्षण ये बड़े निराले हैं, 

हम बहुत दिनों के बाद विजय का शंख फूंकनेवाले हैं । 

  

मंगल-मुहूर्त्त; तरुगण ! फूलो, नदियो ! अपना पय-दन करो, 

जंजीर तोड़ता है भारत, किन्नरियो ! जय-जय गान करो । 

  

भगवान साथ हों, आज हिमालय अपनी ध्वजा उठाता है, 

दुनिया की महफिल में भारत स्वाधीन बैठने जाता है । 

  

आशिष दो वनदेवियो ! बनी गंगा के मुख की लाज रहे, 

माता के सिर पर सदा बना आजादी का यह ताज रहे। 

  

आजादी का यह ताज बड़े तप से भारत ने पाया है, 

मत पूछो, इसके लिए देश ने क्या कुछ नहीं गंवाया है। 

  

जब तोप सामने खड़ी हुई, वक्षस्थल हमने खोल दिया, 

आई जो नियति तुला लेकर, हमने निज मस्तक तोल दिया । 

  

माँ की गोदी सूनी कर दी, ललनायों का सिन्दूर दिया, 

रोशनी नहीं घर की केवल, आँखों का भी दे नूर दिया। 

  

तलवों में छाले लिए चले बरसों तक रेगिस्तानों में, 

हम अलख जगाते फिरे युगों तक झंखाड़ों, वीरानों में । 

  

आजादी का यह ताज विजय-साका है मरनेवालों का, 

हथियारों के नीचे से खाली हाथ उभरनेवालों का । 

  

इतिहास ! जुगा इसको, पीछे तस्वीर अभी जो छूट गई, 

गांधी की छाती पर जाकर तलवार स्वयं ही टूट गई । 

  

जर्जर वसुन्धरे ! धैर्य धरो, दो यह संवाद विवादी को, 

आजादी अपनी नहीं; चुनौती है रण के उन्मादी को । 

  

हो जहाँ सत्य की चिनगारी, सुलगे, सुलगे, वह ज्वाल बने, 

खोजे अपना उत्कर्ष अभय, दुर्दांन्त शिखा विकराल बने । 

  

सबकी निर्बाध समुन्नति का संवाद लिए हम आते हैं, 

सब हों स्वतन्त्र, हरि का यह आशीर्वाद लिए हम आते हैं । 

  

आजादी नहीं, चुनौती है, है कोई वीर जवान यहाँ? 

हो बचा हुआ जिसमें अब तक मर मिटने का अरमान यहाँ? 

  

आजादी नहीं, चुनौती है, यह बीड़ा कौन उठाएगा? 

खुल गया द्वार, पर, कौन देश को मन्दिर तक पहुँचाएगा ? 

  

है कौन, हवा में जो उड़ते इन सपनों को साकार करे? 

कौन उद्यमी नर, जो इस खँडहर का जीर्णोद्धार करे ? 

  

मां का आंचल है फटा हुआ, इन दो टुकड़ों को सीना है, 

देखें, देता है कौन लहू दे सकता कौन पसीना है? 

  

रोली लो, उषा पुकार रही, पीछे मुड़कर टुक झुको-झुको 

पर, ओ अशेष के अभियानी ! इतने पर ही तुम नहीं रुको । 

  

आगे वह लक्ष्य पुकार रहा, हांकते हवा पर यान चलो, 

सुरधनु पर धरते हुए चरण, मेघों पर गाते गान चलो। 

  

पीछे ग्रह और उपग्रह का संसार छोड़ते बढ़े चलो, 

करगत फल-फूल-लतायों की मदिरा निचोड़ते, बढ़े चलो । 

  

बदली थी जो पीछे छूटी, सामने रहा, वह तारा है, 

आकाश चीरते चलो, अभी आगे आदर्श तुम्हारा है। 

  

निकले हैं हम प्रण किए अमृत-घट पर अधिकार जमाने को; 

इन ताराओं के पार, इन्द्र के गढ़ पर ध्वजा उड़ाने को । 

  

सम्मुख असंख्य बाधाएँ हैं, गरदन मरोड़ते बढ़े चलो, 

अरुणोदय है, यह उदय नहीं, चट्टान फोड़ते बढ़े चलो । 

  

(अगस्त, 1947 ई.)  

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रचनाएँ
धूप और धुआँ
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'धूप और धुआँ' में मेरी 1947 ई० से इधर वाली कुछ ऐसी स्फुट रचनाएँ संगृहीत हैं, जो प्राय: समकालीन अवस्थाओं के विरुद्ध मेरी भावनात्मक प्रतिक्रिया के रूप में प्रकट हुई हैं। स्वराज्य से फूटने वाली आशा की धूप और उसके विरुद्ध जन्मे हुए असन्तोष का धुआँ, ये दोनों ही इन रचनाओं में यथास्थान प्रतिबिम्बित मिलेंगे।
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नई आवाज

16 फरवरी 2022
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कभी की जा चुकीं नीचे यहाँ की वेदनाएँ,  नए स्वर के लिए तू क्या गगन को छानता है?     [1]  बताएँ भेद क्या तारे? उन्हें कुछ ज्ञात भी हो,  कहे क्या चाँद? उसके पास कोई बात भी हो।  निशानी तो घटा पर है,

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स्वर्ग के दीपक

16 फरवरी 2022
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 [उनके लिए जो हमारी कतार में आने से इनकार करते हैं]     कहता हूँ, मौसिम फिरा, सितारो ! होश करो,  कतरा कर टेढी चाल भला अब क्या चलना ?  माना, दीपक हो बड़े दिव्य, ऊंचे कुल के,  लेकिन, मस्ती में अकड़-अ

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शबनम की जंजीर

16 फरवरी 2022
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रचना तो पूरी हुई. जान भी है इसमें ?  पूछूं जो कोई बात, मूर्ति बतलायेगी ?  लग जाय आग यदि किसी रोज देवालय में,  चौंकेगी या यह खड़ी-खड़ी जल जायेगी ?     ढाँचे में तो सब ठीक-ठीक उतरा, लेकिन,  बेजान बु

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सपनों का धुआँ

16 फरवरी 2022
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 "है कौन ?", "मुसाफिर वही, कि जो कल आया था,  या कल जो था मैं, आज उसी की छाया हँ,  जाते-जाते कल छट गये कुछ स्वप्न यहीं,  खोजते रात में आज उन्हीं को आया हँ ।     "जीते हैं मेरे स्वप्न ? आपने देखा थ

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राहु

16 फरवरी 2022
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चेतनाहीन ये फूल तड़पना क्या जानें ?  जब भी आ जाती हवा की पग बढाते हैं ।  झूलते रात भर मंद पवन के झूलों पर,  फूटी न किरण की धार कि चट खिल जाते हैं ।     लेकिन, मनुष्य का हाल ? हाय, वह फूल नहीं,  द

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वलि की खेती

16 फरवरी 2022
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जो अनिल-स्कन्ध पर चढ़े हुए प्रच्छन्न अनल !  हुतप्राण वीर की ओ ज्वलन्त छाया अशेष !  यह नहीं तुम्हारी अभिलाषाओं की मंजिल,  यह नहीं तुम्हारे सपनों से उत्पन्न देश ।     काया-प्रकल्प के बीज मृत्ति में

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तुम क्यों लिखते हो

16 फरवरी 2022
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तुम क्यों लिखते हो? क्या अपने अंतरतम को  औरों के अंतरतम के साथ मिलाने को ?  अथवा शब्दों की तह पर पोशाक पहन  जग की आँखों से अपना रूप छिपाने को ?     यदि छिपा चाहते हो दुनिया की आँखों से  तब तो मे

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भगवान की बिक्री

16 फरवरी 2022
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लोगे कोई भगवान? टके में दो दूँगा।  लोगे कोई भगवान? बड़ा अलबेला है।  साधना-फकीरी नहीं, खूब खाओ, पूजो,  भगवान नहीं, असली सोने का ढेला है।  

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निराशावादी

16 फरवरी 2022
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पर्वत पर, शायद, वृक्ष न कोई शेष बचा,  धरती पर, शायद, शेष बची है नहीं घास;  उड़ गया भाप बनकर सरिताओं का पानी,  बाकी न सितारे बचे चाँद के आस-पास ।     क्या कहा कि मैं घनघोर निराशावादी हूँ?  तब तुम

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अमृत-मंथन

16 फरवरी 2022
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 १  जय हो, छोड़ो जलधि-मूल,  ऊपर आओ अविनाशी,  पन्थ जोहती खड़ी कूल पर  वसुधा दीन, पियासी ।  मन्दर थका, थके असुरासुर,  थका रज्जु का नाग,  थका सिन्धु उत्ताल,  शिथिल हो उगल रहा है झाग ।  निकल चुकी व

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व्यष्टि

16 फरवरी 2022
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तुम जो कहते हो, हम भी हैं चाहते वही,  हम दोनों की किस्मत है एक दहाने में,  है फर्क मगर, काशी में जब वर्षा होती,  हम नहीं तानते हैं छाते बरसाने में ।     तुम कहते हो, आदमी नहीं यों मानेगा,  खूंटे

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संस्कार

16 फरवरी 2022
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कल कहा एक साथी ने, तुम बर्बाद हुए,  ऐसे भी अपना भरम गँवाया जाता है?  जिस दर्पण में गोपन-मन की छाया पड़ती,  वह भी सब के सामने दिखाया जाता है?     क्यों दुनिया तुमको पढ़े फकत उस शीशे में,  जिसका प

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एक भारतीय आत्मा के प्रति

16 फरवरी 2022
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 (कवि की साठवीं वर्ष गांठ पर)     रेशम के डोरे नहीं, तूल के तार नहीं,  तुमने तो सब कुछ बुना साँस के धागों से;  बेंतों की रेखाएं रगों में बोल उठीं,  गुलबदन किरन फूटी कड़ियों की रागों से ।     चीख

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इच्छा-हरण

16 फरवरी 2022
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धरती ने भेजा था सूरज-चाँद स्वर्ग से लाने,  भला दीप लेकर लौटूं किसको क्या मुख दिखलाने?  भर न सका अंजलि, तू पूरी कर न सका यह आशा,  उलटे, छीन रहा है मुझसे मेरी चिर-अभिलाषा ।  रहने दे निज कृपा, हुआ यद

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वीर-वन्दना

16 फरवरी 2022
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 (1)  वीर-वन्दना की वेला है, कहो, कहो क्या गाऊं ?  आँसू पातक बनें नींव की ईंट अगर दिखलाऊं ।  बहुत कीमती हीरे-मोती रावी लेकर भागी,  छोड़ गई जालियाँबाग की लेकिन, याद अभागी ।  कई वर्ष उससें पहले, जब

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भारतीय सेना का प्रयाण गीत

16 फरवरी 2022
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जाग रहे हम वीर जवान,  जियो जियो अय हिन्दुस्तान !     (1)  हम प्रभात की नई किरण हैं, हम दिन के आलोक नवल,  हम नवीन भारत के सैनिक, धीर,वीर,गंभीर, अचल ।  हम प्रहरी उँचे हिमाद्रि के, सुरभि स्वर्ग की

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अरुणोदय

16 फरवरी 2022
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 (15 अगस्त, सन् 1947 को स्वतंत्रता के स्वागत में रचित)     नई ज्योति से भींग रहा उदयाचल का आकाश,  जय हो, आँखों के आगे यह सिमट रहा खग्रास ।     है फूट रही लालिमा, तिमिर की टूट रही घन कारा है,  जय

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भारत का आगमन

16 फरवरी 2022
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 कुछ आये शर-चाप उठाये राग प्रलय का गाते,  मानवता पर पड़े हुए पर्वत की धूल उड़ाते ।  कुछ आये आसीन अनल से भरे हुए झोंकों पर,  गाँथे हुए मुकुट-मुंडों को बरछों की नोकों पर ।  कूछ आये तोलते कदम को मणि-मु

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मृत्ति-तिलक

16 फरवरी 2022
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 सब लाए कनकाभ चूर्ण,  विद्याधन हम क्या लाएँ?  झुका शीश नरवीर ! कि हम  मिट्टी का तिलक चढ़ाएँ ।     भरत-भूमि की मृत्ति सिक्त,  मानस के सुधा-क्षरण से  भरत-भूमि की मृत्ति दीप्त,  नरता के तपश्चरण से

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गाँधी

16 फरवरी 2022
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 मा भै:, मा भै:, मा भै:, मा भै:।     मोह तिमिर है, मोह मृत्यु है;  छोड़ो इसे अभागो रे !  भय का बंधन तोड़ अमृत के  पुत्र मानवो ! जागो रे !  मा भै:, मा भै:, मा भै:, मा भै:।     दमन करो मत्त कभी, स

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भाइयो और बहनो

16 फरवरी 2022
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लो शोणित, कुछ नहीं अगर  यह आंसू और पसीना!  सपने ही जब धधक उठें  तब धरती पर क्या जीना?  सुखी रहो, दे सका नहीं मैं  जो-कुछ रो-समझाकर,  मिले कभी वह तुम्हें भाइयो-  बहनों! मुझे गंवाकर!  

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हे राम !

16 फरवरी 2022
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लो अपना यह न्यास देवता !  बाँह गहो गुणधाम !  भक्त और क्या करे सिवा,  लेने के पावन नाम ?     स्वागत नियति-नियत क्षण मेरे,  बजा विजय की भेरी;  मुक्तिदूत ! जानें कब से थी  मुझे प्रतीक्षा तेरी । 

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बापू

16 फरवरी 2022
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जो कुछ था देय, दिया तुमने, सब लेकर भी हम हाथ पसारे हुए खड़े हैं आशा में; लेकिन, छींटों के आगे जीभ नहीं खुलती, बेबसी बोलती है आँसू की भाषा में। वसुधा को सागर से निकाल बाहर लाये, किरणों का बन्धन

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रूह की खाई

16 फरवरी 2022
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बापू ! हम अगुणी, कृतघ्न,  पर, आंसू बलशाली है,  और जगत में कभी नहीं  बलिदान गया खाली है ।     गगन-रंध्र में गूँज रहा  आकुल आह्वान तुम्हारा,  बोल रहा सबके मस्तक पर  चढ़ बलिदान तुम्हारा ।     बल

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अपराध

16 फरवरी 2022
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 बापू, लोगे किसका प्रणाम?  सब हाथ जोड़ने आए हैं।     ये वे, जिनकी अंजलियों में  पूजा के फूल नही दिपते,  ये वे, जिनकी मुट्ठी में भी  लोहू के दाग नही छिपते;     ये वे, जिनकी आरती-शिखा  हाथों मे

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जनता और जवाहर

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फीकी उसांस फूलों की है,  मद्धिम है जोति सितारों की;  कूछ बुझी-बुझी-सी लगती है  झंकार हृदय के तारों की ।     चाहे जितना भी चांद चढ़े,  सागर न किन्तु, लहराता है;  कुछ हुआ हिमालय को, गरदन  ऊपर को

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जनतन्त्र का जन्म

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 (२६ जनवरी, १९५०)  सदियों की ठंढी-बुझी राख सुगबुगा उठी,  मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है;  दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,  सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।     जनता?हां,मिट्टी की अबोध मूरत

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पंचतिक्त

16 फरवरी 2022
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 (1)  चीलों का झुंड उचक्का है, लोभी, बेरहम, लुटेरा भी;  रोटियाँ देख कमज़ोरों पर क्यों नहीं झपट्टे मारेगा ?  डैने इनके झाड़ते रहो दम-ब-दम कड़ी फटकारों से,  बस, इसीलिए तो कहता हूं, आवाजें अपनी तेज करो।

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भारत

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सीखे नित नूतन ज्ञान,नई परिभाषाएं,  जब आग लगे,गहरी समाधि में रम जाओ;  या सिर के बल हो खडे परिक्रमा में घूमो।  ढब और कौन हैं चतुर बुद्धि-बाजीगर के?     गांधी को उल्‍टा घिसो और जो धूल झरे,  उसके प्

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मरघट की धूप

16 फरवरी 2022
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 तैर गये हम जिसे, कहो क्या  वह समुद्र था जल का ?  विषपरिवह सें विकल सिंधु  या पिघलते हुए अनल का ?     पुरस्कार में यही द्वीप पर,  थे क्या हम पाने को ?  झंझा पर होकर सवार  थे चले यहीं आने को ? 

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लोहे के पेड़ हरे होंगे

16 फरवरी 2022
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लोहे के पेड़ हरे होंगे,  तू गान प्रेम का गाता चल,  नम होगी यह मिट्टी ज़रूर,  आँसू के कण बरसाता चल।     (1)  सिसकियों और चीत्कारों से,  जितना भी हो आकाश भरा,  कंकालों क हो ढेर,  खप्परों से चाह

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