*सनातन धर्म में अनेकों ग्रंथ मानव जीवन में मनुष्य का मार्गदर्शन करते हैं | इन्हीं ग्रंथों का मार्गदर्शन प्राप्त करके मनुष्य अपने सामाजिक , आध्यात्मिक एवं पारिवारिक जीवन का विस्तार करता है | वैसे तो सनातन धर्म का प्रत्येक ग्रंथ एक उदाहरण प्रस्तुत करता है परंतु इन सभी ग्रंथों में परमपूज्यपाद , कविकुलश
*इस संसार में जन्म लेकर प्रत्येक मनुष्य संसार में उपलब्ध सभी संसाधनों को प्राप्त करने की इच्छा मन में पाले रहता है | और जब वे संसाधन नहीं प्राप्त हो पाते तो मनुष्य को असंतोष होता है | किसी भी विषय पर असंतोष हो जाना मनुष्य के लिए घातक है | इसके विपरीत हर परिस्थिति में संतोष करने वाला सुखी रहता है | क
*मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है , वह अपने क्रियाकलापों के द्वारा एक सुंदर समाज का निर्माण करता है | समाज से ही राष्ट्र बनता है परंतु राष्ट्र एवं समाज की प्रथम इकाई परिवार को कहा जाता है | जब परिवार सुंदर होगा , परिवार में सामंजस्य अच्छा होगा तभी एक सुंदर समाज का निर्माण किया जा सकता है | परिवार के लो
*मनुष्य संसार में आकर अपने कर्मों के द्वारा अच्छा या बुरा बनता है | कुछ लोग अपने कर्मों के द्वारा समाज में प्रतिष्ठित होते हैं , जब उनकी प्रतिष्ठा कुछ अधिक ही हो जाती है तो वह स्वयं को अच्छा मानने लगते हैं परंतु यहीं पर मनुष्य को सावधान हो जाना चाहिए और यह कभी नहीं समझना चाहिए कि वह वास्तव में अच्छा
*सनातन धर्म में मनुष्य का मार्गदर्शन करने के लिए अनेकों ग्रंथ हमारे ऋषि - महर्षियों एवं पूर्वजों द्वारा लिखे गये है जिनका अध्ययन करके मनुष्य अपने जीवन को सुगम बनाने का प्रयास करता है | वैसे तो सनातन धर्म के प्रत्येक ग्रंथ विशेष है परंतु यदि जीवन जीने की कला सीखनी है तो गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रच
*मनुष्य इस धरा धाम पर जन्म लेकर अनेक प्रकार के क्रियाकलाप किया करता है , जो उसके दैनिक जीवन के अभिन्न अंग बन जाते हैं | इन्हीं क्रियाकलापों में एक महत्वपूर्ण क्रिया है मनुष्य का मुस्कुराना | मानव जीवन में मुस्कुराहट का विशेष महत्व है क्योंकि मनुष्य जब किसी बात पर मुस्कुराता है तो उसके आसपास रहने वाल
*परमात्मा की इच्छा से ब्रह्मा जी ने सुंदर सृष्टि की रचना की , अनेक प्रकार के जीन बनाए | पर्वत , नदियां , पेड़-पौधे सब ईश्वर की कृपा से इस धरा धाम पर प्रकट हुये | ईश्वर समदर्शी है ! वह कभी भी किसी से भेदभाव नहीं करता है | ईश्वर की प्रतिनिधि है प्रकृति और प्रकृति सबको बराबर बांटने का प्रयास करती है |
*मानव जीवन में सुख एवं दुख आते रहते हैं इससे न तो कोई बचा है ना ही कोई बच पाएगा | सुख में अति प्रसन्न होकर मनुष्य दुख पड़ने पर व्याकुल हो जाता है | दुख के समय को जीवन का सबसे कुसमय माना जाता है | कभी-कभी मनुष्य दुख में इतना किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है कि उसे यह नहीं समझ में आता तो क्या करना चाहिए क्
*यह मानव जीवन बहुत ही दुष्ष्कर है , इस मानव जीवन में मनुष्य अपने कर्मों के अनुसार कठिन से कठिन लक्ष्य प्राप्त कर लेता है क्योंकि यह संसार कर्म प्रधान है यहां कर्म योगी के लिए कुछ भी कठिन नहीं है | मनुष्य अपने जीवन में यद्यपि कठिन से कठिन लक्ष्य प्राप्त कर लेता है , जो चाहता है वह बन भी जाता है परंत
*ईश्वर का बनाया हुआ यह संसार प्रेममय है | परमात्मा प्रेम के बिना नहीं मिल सकता , परमात्मा ही नहीं इस संसार में बिना प्रेम के कुछ भी नहीं प्राप्त हो सकता है | आप किसी से लड़ाई करके वह नहीं प्राप्त कर सकते जो प्रेम से प्राप्त हो सकता है | प्रेम को कई रूप में देखा जाता है मोह एवं आसक्ति इसी का दूसरा रू
*इस धरा धाम पर आने के बाद मनुष्य अनेकों प्रकार के कर्म करता रहता है क्योंकि ईश्वर ने उसे कर्म करने का अधिकार प्रदान कर रखा है | कर्म करना मनुष्य का स्वाभाविक धर्म है परंतु यहां एक प्रश्न मस्तिष्क में उठता है कि जब कर्म करना मनुष्य का स्वाभाविक धर्म है और मनुष्य उसे कर भी रहा है तो पाप कर्म एवं पुण्य
*इस धरा धाम पर हमें सर्वश्रेष्ठ मानवयोनि प्राप्त हुई है | हम इस जीवन में जो कुछ भी करना चाहें कर सकते हैं | परंतु किसी भी कार्य में सफल होने के लिए आवश्यक है आत्मनिरीक्षण करना | इस जीवन में भौतिक , शारीरिक , बौद्धिक या आर्थिक किसी भी दृष्टि से विकास के लिए आत्मनिरीक्षण करना अनिवार्य प्रक्रिया है , ज
*इस संसार में आने के बाद मनुष्य जीवन भर विभिन्न प्रकार की संपदाओं का संचय किया करता है | यह भौतिक संपदायें मनुष्य को भौतिक सुख तो प्रदान कर सकती हैं परंतु शायद वह सम्मान ना दिला पायें जो कि इस संसार से जामे के बाद भी मिलता रहता है | यह चमत्कार तभी हो सकता है जब मनुष्य का चरित्र श्रेष्ठ होता है , क्
*इस धरा धाम में आने के बाद मनुष्य स्वयं को समाज में प्रतिष्ठित करने के लिए अपने व्यक्तित्व का विकास करना प्रारंभ करता है , परंतु कभी-कभी वह दूसरों के व्यक्तित्व को देखकर उसका मूल्यांकन करने लगता है | यहीं पर वह छला जाता है | ऐसा मनुष्य इसलिए करता है क्योंकि दूसरों के जीवन में तांक - छांक करने की मनु
*मानव जीवन बहुत ही दुर्लभ है , यह जीवन जितना ही सुखी एवं संपन्न दिखाई पड़ता है उससे कहीं अधिक इस जीवन में मनुष्य अनेक प्रकार के भय एवं चिंताओं से घिरा रहता है | जैसे :- स्वास्थ्य हानि की चिंता व भय , धन समाप्ति का भय , प्रिय जनों के वियोग का भय आदि | यह सब भय मनुष्य के मस्तिष्क में नकारात्मक भाव प्र
*ईश्वर द्वारा बनाया गया यह संसार बहुत की रहस्यमय है ` इस संसार को अनेक उपमा दी गई हैं | किसी ने इसे पुष्प के समान माना है तो किसी ने संसार को ही स्वर्ग मान लिया है | वेदांत दर्शन में संसार को स्वप्नवत् कहा गया है तो गोस्वामी तुलसीदास जी इस संसार को एक प्रपंच मानते हैं | गौतम बुद्ध जी के दृष्टिकोण से
*जब से इस धरा धाम पर मनुष्य का सृजन हुआ है तब से लेकर आज तक अनेकों प्रकार के मनुष्य इस धरती पर आये और चले गये | वैसे तो ईश्वर ने मानव मात्र को एक जैसा शरीर दिया है परंतु मनुष्य अपनी बुद्धि विवेक के अनुसार जीवन यापन करता है | ईश्वर का बनाया हुआ यह संसार बड़ा ही अद्भुत एवं रहस्यम है | यहाँ मनुष्य के म
जिंदगी जिओ पर संजीदगी से…….आजकल हम सब देखते हैं कि ज्यादातर लोगों में उत्साह और जोश की कमी दिखाई देती है। जिंदगी को लेकर काफी चिंतित, हताश, निराश और नकारात्मकता से भरे हुए होते हैं। ऐसे लोंगों में जीवन इच्छा की कमी सिर्फ जीवन में एक दो बार मिली असफलता के कारण आ जाती है। फिर ये हाथ पर हाथ रखकर बैठ जा
जीवित हो अगर, तो जियो जीभरकर...जीते तो सभी हैं पर सभी का जीवन जीना सार्थक नहीं है। कुछ लोग तो जिये जा रहे हैं बस यों ही… उन्हें खुद को नहीं पता है कि वे क्यों जी रहे हैं? क्या उनका जीवन जीना सही मायनें में जीवन है। आओ सबसे पहले हम जीवन को समझे और इसकी आवश्यकता को। जिससे कि हम कह सकें कि जीवित हो अगर
तनाव मुक्त जीवन ही श्रेष्ठ है……आए दिन हमें लोंगों की शिकायतें सुनने को मिलती है….... लोग प्रायः दुःखी होते हैं। वे उन चीजों के लिए दुःखी होते हैं जो कभी उनकी थी ही नहीं या यूँ कहें कि जिस पर उसका अधिकार नहीं है, जो उसके वश में नहीं है। कहने का मतलब यह है कि मनुष्य की आवश्यकतायें असीम हैं….… क्योंकि