*इस संसार में जन्म लेकर प्रत्येक मनुष्य संसार में उपलब्ध सभी संसाधनों को प्राप्त करने की इच्छा मन में पाले रहता है | और जब वे संसाधन नहीं प्राप्त हो पाते तो मनुष्य को असंतोष होता है | किसी भी विषय पर असंतोष हो जाना मनुष्य के लिए घातक है | इसके विपरीत हर परिस्थिति में संतोष करने वाला सुखी रहता है | क्योंकि संतोष मानव जीवन का पर्याय है | संसार के समस्त सुखों को त्याग कर संतोष को परम सुख मानकर आदर्श स्थापित करना सरल नहीं है | संतोष की भावना न आने तक शांति नहीं मिलती | सब सुख पाने के बाद भी संतोष न आने पर जीवन अशांत बन जाता है | कष्ट, भूख और विपन्नता में रहने के बावजूद संतोष में परम आनंद मिलता है | संतोष और सहनशीलता के कारण ही भारतीय संस्कृति अत्यंत उदात्त और गरिमा मंडित है | केवल संपन्नता और धन की खोज करने वाले संतोष की झलक से अपना व्यक्तित्व दूर रखते हैं | मनुष्य के जीवन में एक बार भी संतोष आ जाने पर संपूर्ण जीवन अनन्य सुख और परम शांति से ओतप्रोत हो जाता है | सागर की गहराई से निकाले गए मोती के समान संतोष का दुर्लभ सुख होता है | संतोष जहां ऊंचाई प्रदान करने वाला सात्विक तत्व है वहीं असंतोष पतन का मार्ग खोलता है | इसलिए मनुष्य को संतोष की भावना से सकारात्मक दिशा मिलती है | संतोष का फल सदा मीठा रहता है | संतोष का तात्पर्य ऐसे आत्मबल से है, जिसके कारण व्यक्ति क्रोध, लोभ, काम और मोह की प्रवृत्तियों से उच्चता पाकर आत्मिक सुख के पास जा पहुंचता है | निष्काम कर्म करते हुए फल की इच्छा-अनिच्छा से दूर निकल जाता है | असीम धैर्य आ जाने पर आत्म संतोष स्वयं आ जाता है |*
*आज के भौतिक युग में अधिक से अधिक प्राप्त कर लेने की कामना के कारण मनुष्य के भीतर संतोष के प्रवृति लुप्त होती जा रही है | मनुष्य इस संसार में सब कुछ पा जाना चाहता है और ऐसा होना भी चाहिए परंतु इसके लिए मनुष्य को कर्म करना पड़ता है | जितना जिसका कर्म होगा उसको उतना ही फल मिलेगा और उसी फल में मनुष्य को संतोष करना चाहिए | परंतु आज यदि परीक्षार्थी परीक्षा देने जाता है तो उसकी इच्छा यही होती है कुछ परीक्षक हमको ऐसा संकेत दे दे जिससे हम उत्तर के समीप पहुंच जायं ! परीक्षक यदि संकेत दे भी देता तो परीक्षार्थी विचार करता है कि कुछ और पता चल जाता तो मेरा उत्तर सही हो जाता | ऐसा करना मनुष्य को अकर्मण्य बनाता है | ऐसा परीक्षार्थी अनुत्तीर्ण हो जाने पर सारा दोष परीक्षक को देता है | समझना होगा कि संतोष के दो रूप हैं-वाह्य संतोष और आत्म संतोष | वाह्य संतोष में मनुष्य पूर्णत: संतोषी नहीं बन पाता, परंतु आत्म संतोष प्राप्त हो जाने पर व्यक्त निष्कपट, निश्छल और निष्काम बनकर परम संतोषी की स्थिति पा जाता है | मेरा "आचार्य अर्जुन तिवारी" का मानना है कि परम संतोषी आत्म ज्ञान की ज्योति से आलोकित हो जाता है | आत्मा-परमात्मा की दूरी कम हो जाती है | आत्म संतोषी जीवन के सुख-दुख में अपना संतोष नहीं खोता और लाभ-हानि यश, अपयश जीवन-मरण में पूर्ण धैर्य और तटस्थ भाव से चलता है | प्राचीन संस्कृति का मूलमंत्र संतोष सच्चा सुख है | भौतिकता में मनुष्य संतोष जैसे सच्चे मोती की आभा से दूर है | लोभ और स्वार्थ की भावना हटाकर संतोष धारण करना है | विषम परिस्थितियों में मनुष्य को संतोष ही प्रत्येक परिस्थिति में जीवन जीने का संबल देता है | संतोष सरलता से नहीं आता , संतोष प्राप्ति के लिए जीवन में अत्यंत धैर्य, त्याग और तप साधना करनी पड़ती है | सुख का सागर संतोष ही है |*
*असंतोष से मनुष्य के हृदय में कुंठा का जन्म हो जाता है , कुंठित व्यक्ति क्रोध के वशीभूत होने लगता है और क्रोध को पाप की जड़ कहा गया | अत: जीवन में संतोष का होना परमावश्यक है |*