*इस संसार में आने के बाद मनुष्य जीवन भर विभिन्न प्रकार की संपदाओं का संचय किया करता है | यह भौतिक संपदायें मनुष्य को भौतिक सुख तो प्रदान कर सकती हैं परंतु शायद वह सम्मान ना दिला पायें जो कि इस संसार से जामे के बाद भी मिलता रहता है | यह चमत्कार तभी हो सकता है जब मनुष्य का चरित्र श्रेष्ठ होता है , क्योंकि मनुष्य की वास्तविक संपदा उसकी चरित्रनिष्ठा ही होती है |आदि काल से लेकर आज तक जितने भी महापुरुष हुए है उनकी सफलता एवं महानता का आधार उनका श्रेष्ठ आदर्श चरित्र ही रहा है | इस अक्षुण्ण संपदा के आधार पर ही मनुष्य महात्मा , युगपुरुष अथवा अवतार स्तर तक पहुंचने में समर्थ होता है | इस संसार में उसी महामानव के चित्र की पूजा होती है जिसका चरित्र श्रेष्ठ होता है | मनुष्य का चरित्र ज्ञान से बनता है तथा ज्ञान शास्त्रों के अध्ययन से मिलता है इसके साथ ही हृदय की पवित्रता का चरित्र निष्ठा से , ज्ञान से संबंध होता है | हृदय में पवित्रता हो तो चरित्र में सौंदर्य होगा , चरित्र में सौंदर्य होगा तो परिवार में संतुलन रहेगा , परिवार में संतुलन होगा तो समाज में , राष्ट्र में सुव्यवस्था होगी और इससे संसार में शांति का वातावरण बनेगा | मनुष्य को किसी भी श्रेष्ठ मनुष्य को देखने के बाद यह विचार करना चाहिए कि मैं उससे क्या सीख ले सकता हूं , परंतु जब किसी छोटे या नकारात्मक व्यक्ति को देखें तो उसके चरित्र के भीतर झांककर अवलोकन करना चाहिए इसके अंदर जो नकारात्मकता एवं बुराई है कहीं वह हमारे अंदर भी तो नहीं छुपी पड़ी है , यदि है तो उसे अविलंब उखाड़ फेंकना चाहिए क्योंकि महानता की गगनचुंबी दीवार सत्यता की नींव पर ही खड़ी होती है | मानव कि सर्वोच्च संपदा यही है इसके बिना मनुष्य नैतिक नहीं रह सकता | वस्तुतः चरित्र मनुष्य की मौलिक विशेषता एवं उसका निजी उत्पादन होता है व्यक्ति इसे अपने बलबूते पर ही निर्मित करता है | इसमें उसके निजी दृष्टिकोण , निश्चय , संकल्प एवं साहस का अधिक योगदान होता है | मनुष्य जैसा चाहे वैसा अपना चरित्र बना सकता है और चरित्र के आधार पर ही युगों - युगों तक उसका नाम अमर होकर लोगों को प्रेरणा प्रदान करता रहता है |*
*आज हम महात्मा , महामानव एवं महापुरुष तो बनना चाहते हैं परंतु हमें आज ज्ञान ही नहीं है क्योंकि हमने अपने शास्त्रों के अध्ययन को बंद कर दिया है | आज हम उपदेश तो खूब सुनते हैं परंतु उसका पालन करने के लिए हमारा मन तैयार नहीं होता क्योंकि आज मनुष्य में मनोबल की , प्राण ऊर्जा की कमी हो गई है और मनोबल के निर्बल होने के कारण किसी भी विषय में सुनने के बाद मस्तिष्क में हलचल उत्पन्न होना , किसी के चरित्र को सुनकर अंतः करण को छू जाना असंभव हो रहा है | आज आधुनिकता में मनुष्य इस भाँति लिप्त हो गया है कि वह महापुरुषों के आदर्शों को सुनना तो चाहता है परंतु उस पथ का पथिक नहीं बनना चाहता | कुछ लोग तो आत्मोत्कर्ष भी करना चाहते हैं परंतु सफल नहीं हो रहे हैं | ऐसे सभी लोगों को मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" बताना चाहूंगा की आत्मोत्कर्ष के मार्ग में चरित्र निष्ठा को संभाल कर ही आगे बढ़ा जा सकता है | इसमें बाधक बनने वाले रोगों तथा प्रपचों में इंद्रियलिप्सा एवं वासना प्रमुख है | इनके ऊपर अपना वश ना रखा गया तो चरित्र भ्रष्ट होने की संभावना बनी रहती है | वासना के थोड़े से झोंके में आचरण की नींव ना हिलने पाये इसके लिए इंद्रियों पर अंकुश रखा जाना परम आवश्यक है | इंद्रियों पर अंकुश रखा जाना ही चरित्र का आधार है जिसके कारण उच्च स्तर का बना जा सकता है क्योंकि हमारे शास्त्रों में कहा गया है कि कामेन्द्रियाँ और मनोभाव यह दोनों जिसके बस में हैं उसकी तुलना परमात्मा से की जा सकती है | यदि मनुष्य को स्वयं को समाज में स्थापित करते हुये युगों युगों तक अमर बने रहने की आकांक्षा है तो उसे भौतिक संपदा के साथ-साथ इस सृष्टि की सर्वोपरि संपदा अर्थात चरित्र निष्ठा का संकलन करना ही होगा अन्यथा मनुष्य सब कुछ चाहते हैं कुछ नहीं कर पाता है | यदि जीवन का वास्तविक आनंद प्राप्त करना है तो मनुष्य को अपने चरित्र को सुदृढ़ बनाना ही होगा क्योंकि जब तक चारित्रिक संपदा नहीं होगी तब तक मनुष्य आत्मिक रूप से दरिद्र ही कहा जा सकता है |*
*इस दुर्लभ मानव शरीर को पाकर चरित्र विकास ही जीवन का परम उद्देश्य होना चाहिए क्योंकि इसी के आधार पर जीवन का लक्ष्य प्राप्त हो सकता है | इस संपदा का संकलन कर लेने के बाद ही जीवन का वास्तविक आनंद प्राप्त किया जा सकता है क्योंकि यही संपत्ति वास्तविक , सुदृढ़ और चिरस्थाई होती है |*