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जीवनदर्शन

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*इस धरा धाम जड़ - चेतन , देव , दानव , मानव या चराचर जगत की जितनी भी सृष्टि है सबकी अपनी अपनी मर्यादा है | मर्यादित जीवन सबके लिए बनाया गया है | इस धरती पर बुद्धिमान एवं विवेकवान होने के कारण अपनी मर्यादा का पालन करने के लिए मनुष्य का दायित्व सबसे अधिक है क्योंकि ईश्वर ने मनुष्य के ही माध्यम से सकल स

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*इस धराधाम पर परमात्मा ने चौरासी लाख योनियों का सृजन किया | इन सभी में मनुष्य सर्वश्रेष्ठ बना तो उसका एक प्रमुख कारण यह था कि परमात्मा ने मनुष्य को सोंचने - समझने की शक्ति दे दी | अन्य जीव जहां मात्र अपने लिए जीवन जीते हैं वही मनुष्य के अपने परिवार , समाज एवं राष्ट्र के प्रति कुछ कर्तव्य है , अपने क

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*मनुष्य अपने संपूर्ण जीवन काल में अपने कर्मों एवं क्रियाकलापों के माध्यम से महान एवं पतित बनता है | जिसने जीवन के रहस्य को जान लिया अपने जीवन को उच्चता की ओर ले कर चल पड़ता है और जिसने जीवन को नहीं समझा , उसके महत्व को नहीं जाना वह प्रतिदिन नीचे की ओर गिरता हुआ पतित हो जाता है | मनुष्य के जीवन में ,

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*इस संपूर्ण सृष्टि में जितने भी जड़ चेतन देखने को मिल रहे हैं सब उस परमपिता परमात्मा की सृष्टि कहीं जाती है | कण-कण में परमात्मा का निवास है | संपूर्ण सृष्टि को मार्गदर्शन प्रदान करने वाले हमारे वेदों ने उस परमपिता परमात्मा के लिए एकोहम् बहुस्याम लिखा है जिसका अर्थ यही होता है कि जब उस परमात्मा की इ

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*सनातन धर्म आदिकाल से स्वयं में वाज्ञानिकता को समेटे हुए अनेक देवी - देवताओं की पूजा के साथ प्रकृति पूजा का भी प्रबल समर्थक रहा है | सृष्टि में अनेकों वनस्पतियाँ ऐसी हैं जो मानव जीवन के लिए जीवन प्रदायक मानी गयी हैं ऐसी वनस्पतियों को सनातन धर्म में एक विशेष स्थान देते हुए उसके महत्त्व को बढ़ाया गया

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*हमारे देश भारत में हमारे पूर्वजों एवं मनीषियों ने मानव जीवन के लिए आवश्यक तथ्यों का वर्णन तो किया ही है साथ ही मनुष्य के लिए क्या वर्जित है यह भी बताने का प्रयास किया है | जीवन में घटित होने वाली प्रत्येक घटनाओं का वर्णन तो हमारे शास्त्रों में किया ही गया है साथ ही मनुष्य के लिए क्या करणीय है और क्

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*किसी भी राष्ट्र के निर्माण में वहां के समाज का बहुत बड़ा योगदान होता है | आदिकाल से हमारे देश भारत की सांस्कृतिक और सामाजिक इकाई का एक वृहद ढांचा राष्ट्र के संस्कार और सचेतक समाज की है | अन्य देशों की अपेक्षा हमारे देश के धर्मग्रंथ और उपनिषद मनुष्य को जीवन जीने की कल

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*मानव जीवन में मनुष्य को क्या करना चाहिए क्या नहीं करना चाहिए यह सारा मार्गदर्शन हमारे ऋषियों ने शास्त्रों में लिख दिया है | क्या करके मनुष्य सफलता के शिखर पर पहुंच सकता है और क्या करके उसका पतन हो सकता है इसका मार्गदर्शन एवं उदाहरण हमारे पुराण में भरा पड़ा है | जिनके अनुसार मनुष्य सत्कर्म करके सफलत

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*इस धराधाम पर सर्वश्रेष्ठ योनि मनुष्य की कही गई है , देवताओं की कृपा एवं पूर्वजन्म में किए गए सत्संग के फल स्वरुप जीव को माता-पिता के माध्यम से इस धरती पर मनुष्य योनि प्राप्त होती है | इस धरती पर जन्म लेने के बाद मनुष्य तीन प्रकार से ऋणी हो जाता है जिन्हें हमारे शास्त्रों में ऋषिऋण , देवऋण एवं पितृऋ

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*आदिकाल में परमपिता परमात्मा ने इस धरती पर जीवन की सृष्टि करते हुए अनेकों प्राणियों का सृजन किया | पशु पक्षी जिन्हें हम जानवर कहते हैं इनके साथ ही मनुष्य का भी निर्माण हुआ | मनुष्य ने अपने बुद्धि कौशल से निरंतर विकास किया और समाज में स्थापित हुआ | यदि वैज्ञानिक तथ्यों को माना जाय तो मनुष्य भी पहले प

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*इस संपूर्ण सृष्टि की रचना पारब्रह्म परमेश्वर ने अपनी इच्छा मात्र से कर दिया | इस सृष्टि का मूल वह परमात्मा ही है | प्रत्येक मनुष्य को मूल तत्व का सदैव ध्यान रखना चाहिए क्योंकि यदि मूल को अनदेखा कर दिया जाए तो जीवन सुचारू रूप से नहीं चल सकता | जिस प्रकार इस सृष्टि का मूल परमात्मा है उसी प्रकार मनुष्

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*इस संपूर्ण विश्व में प्रारंभ से ही भारत देश अपने क्रियाकलापों एवं दूरदर्शिता के लिए जाना जाता रहा है | विश्व के समस्त देशों की अपेक्षा भारत की सभ्यता , संस्कृति एवं आपसी सामंजस्य एक अनुपम उदाहरण प्रस्तुत करता रहा है | यहां पूर्व काल में एक दूसरे के सहयोग से दुष्कर से दुष्कर कार्य मनुष्य करता रहा है

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*सनातन धर्म के अनुसार मनुष्य का जीवन संस्कारों से बना होता है इसी को ध्यान में रखते हुए हमारे पूर्वजों ने मनुष्य के लिए सोलह संस्कारों का विधान बताया है | गर्भकाल से लेकर मृत्यु तक इन संस्कारों को मनुष्य स्वयं में समाहित करते हुए दिव्य

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*इस धरा धाम पर जितने भी जीव उपस्थित है सबको ही परमात्मा ने शरीर की अन्न संरचना के साथ साथ पेट भी प्रदान किया है , पेट की आवश्यकता होती है भोजन | बिना भोजन के उदर पूर्ति नहीं हो सकती और बिना उदर पूर्ति के जीव का जीवित रह पाना थोड़ा कठिन है | मानव समाज में भोजन का कितना महत्व है यह बताने की आवश्यकता न

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*पूर्वकाल में हमारे देश भारत को सोने की चिड़िया कहा जाता था , सोने की चिड़िया कहे जाने का तात्पर्य यह था कि यहां अकूत धन का भंडार तो था ही साथ ही आध्यात्मिकता एवं विद्या का केंद्र भी हमारा देश भारत था | हमारी शिक्षा पद्धति इतनी दिव्य थी उसी के बल पर समस्त विश्व में भारत की कीर्ति पताका फहराई थी और

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*आदिकाल से इस धरा धाम पर सनातन धर्म की स्थापना मानी जाती है | सनातन धर्म ने सदैव देव पूजा के साथ-साथ प्रकृति पूजा को भी महत्व दिया है | पृथ्वी पर जन्म लेकर के मनुष्य बड़ा होता है , इसीलिए पृथ्वी को माता की संज्ञा दी गई है , उसी की गोद में मनुष्य का बचपन व्यतीत होता है | इसके अतिरिक्त पहाड़ों , नदिय

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*सनातन धर्म की मान्यताओं के अनुसार मानव जीवन को चार भागों में विभक्त करके उन्हें आश्रमों का नाम दिया गया है | इन चारों आश्रमों में सबसे महत्त्वपूर्ण एवं मुख्य है गृहस्थाश्रम क्योंकि बिना गृहस्थ धर्म के पालन के सृष्टि की निरन्तरता बाधित हो जायेगी | परमात्मा द्वारा सृजित इस मैथुनी सृष्टि में गृहस्थाश्

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*इस धराधाम पर जन्म लेकर मनुष्य परमपिता परमेश्वर को प्राप्त करने के लिए अनेकों प्रकार के उपाय करता है यहां तक कि कभी-कभी वह संसार से विरक्त होकर के अकेले में बैठ कर परमात्मा का ध्यान तो करता ही रहता है साथ ही वह भावावेश में रोने भी लगता है और मन में विचार करता है कि हमको परमात्मा ने इस संसार में क्यो

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*ईश्वर द्वारा बनाई गयी सृष्टि बहुत ही देदीप्यमान एवं सुंदर है | मनुष्य के जन्म के पहले ही उसे सारी सुख - सुविधायें प्राप्त रहती हैं | जन्म लेने के बाद मनुष्य परिवार में प्रगति एवं विकास करते हुए पारिवारिक संस्कृति को स्वयं में समाहित करने लगता है | मनुष्य का जीवन ऐसा है कि एक क्षण भी कर्म किये बिना

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*ईश्वर की बनायी यह सृष्टि बहुत ही विचित्र है , यहां एक ही भाँति दिखने वाले मनुष्यों के क्रियाकलाप भिन्न - भिन्न होते हैं | मनुष्य के आचरण एवं उसके क्रियाकलापों के द्वारा ही उनकी श्रेणियां निर्धारित हो जाती है | वैसे तो मनुष्य की अनेक श्रेणियां हैं परंतु मुख्यतः दो श्रेणियों में मनुष्य बंटा हुआ है |

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