*मानव जीवन बहुत ही दुर्लभ है , यह जीवन जितना ही सुखी एवं संपन्न दिखाई पड़ता है उससे कहीं अधिक इस जीवन में मनुष्य अनेक प्रकार के भय एवं चिंताओं से घिरा रहता है | जैसे :- स्वास्थ्य हानि की चिंता व भय , धन समाप्ति का भय , प्रिय जनों के वियोग का भय आदि | यह सब भय मनुष्य के मस्तिष्क में नकारात्मक भाव प्रकट करते हैं और मनुष्य नकारात्मक विचार करने लगता है | जबकि जीवन में आगे बढ़ने के लिए मनुष्य का सकारात्मक होना बहुत आवश्यक है परंतु मनुष्य जीवन भर किसी न किसी भय से ग्रसित ही रहता है जिसके कारण वह परिस्थितियों का सामना नहीं कर पाता | परिस्थितियों का भली प्रकार सामना वही कर पाते हैं जो निर्भय एवं निश्चिंत होते हैं | इतिहास साक्षी है कि आज तक जितने भी महापुरुष हुए हैं उन सभी में निर्भयता का गुण कूट-कूट कर भरा था | यह अकाट्य सत्य है कि जो व्यक्ति जितना निर्भय होता है वह उसी मात्रा में महान पथ पर अग्रसर हो पाता है क्योंकि निर्भयता ही जीवंत आत्मा का प्रमाण है | मानव जीवन पाकर जिसने अपने आत्म तत्व को जान लिया , जिसने आत्मिक अविनाशी तत्व का आभास कर लिया वह पूर्णतया निर्भय हो जाता है | भयभीत वही होते हैं जो अपने आत्म तत्व से दूरी बनाए रखते हैं , जिन्हें अपने आत्मा के अस्तित्व का आभास ही नहीं होता है , वह अपने आत्मा के बल को समझ ही नहीं पाते और भौतिक परिस्थितियों व आंतरिक दुर्बल मन:स्थिति के कारण जीवन भर भयभीत ही बने रहते हैं | इसलिए मनुष्य को अपने आत्मबल को बढ़ाते हुए आत्म तत्व का ज्ञान प्राप्त करने का प्रयास करते हुए स्वयं को निर्भय बनाने का प्रयास करना चाहिए क्योंकि भयभीत मनुष्य इस जीवन में कुछ भी करने में सक्षम नहीं होता इसलिए निर्भय बनने का प्रयास अवश्य करना चाहिए और निर्भय वही हो सकता है जिसने स्वयं को शरीर न मान करके अपने आत्म तत्व को जान लिया है |*
*आज संपूर्ण विश्व में एक अद्भुत भय का परिदृश्य देखने को मिलता है | इस भय का एक कारण मनुष्य के हृदय में प्रकट होने वाली व्यर्थ की शंका भी है क्योंकि किसी भी प्रकार की शॉका जब मन में प्रवेश करती है तो सारा वातावरण संदेह पूर्ण बन जाता है और फिर मनुष्य को अपने चारों ओर वही दिखाई पड़ता है जिससे कि वह भयभीत होता है | यहीं पर मनुष्य यदि अपने मन से भय की भावनाओं को पूर्ण रूप से निष्कासित कर दे तो वह निर्भय होकर सुखी रह सकता है | मेरा "आचार्य अर्जुन तिवारी" का मानना है कि सदैव आनंदित रहने के लिए भी यह परम आवश्यक है कि मनुष्य का अंतः करण भय की कल्पना से सर्वथा मुक्त रहें क्योंकि जब तक मनुष्य को किसी भी प्रकार का भय रहेगा तब तक वह आनंदित रह ही नहीं सकता है | वस्तुतः भय का अस्तित्व अज्ञान में ही है | मनुष्य के अंत स्थल में तो एक आत्मज्योति जगमग करती रहती है फिर भी यदि वहां भ्रम , शंका , संदेह , चिंता और अनिष्ट प्रसंग उथल-पुथल मचायें तो विचार करना चाहिए कि हम कहां पर कमजोर हो रहे हैं क्योंकि जब मनुष्य आत्मिक रूप से निर्बल होता है तभी उसे किसी अनजान भय से भयभीत होना पड़ता है | इसलिए प्रत्येक मनुष्य को अपनी कायरता का त्याग करना चाहिए और मनुष्य की कायरता का त्याग तभी हो सकता है जब वह अपने आत्मबल को बढ़ाने का प्रयास करें | आत्मबल में वृद्धि सद्गुरु की शरण में रहकर सत्संग के माध्यम से ही हो सकती है अन्यथा मनुष्य जीवन में कभी भी निर्भय नहीं हो सकता | सत्संग के माध्यम से ही मनुष्य आत्मतत्व को जान सकता है और आत्मतत्व को जान लेने के बाद मनुष्य को कोई भय नहीं रह जाता | मनुष्य जब भय , चिंता और अवसाद से ग्रस्त होता है तो भयरूपी दलदल में वह फंसता चला जाता है जो कि उसके लिए मनोविकार बन जाता है ! और इन मनोविकार से बाहर निकलने का कोई मार्ग उसको नहीं सूझता | इन मनो विकारों से बचने का एवं निर्भय बनने का एकमात्र मार्ग है सत्संग का ! इसलिए प्रत्येक मनुष्य को नित्य सत्संग अवश्य करना चाहिए |*
*यदि इस देव दुर्लभ मानव शरीर पा करके आनंदित एवं निर्भय रहने की कामना है तो मनुष्य को आध्यात्म की शरण में आना ही पड़ेगा |*