*मनुष्य संसार में आकर अपने कर्मों के द्वारा अच्छा या बुरा बनता है | कुछ लोग अपने कर्मों के द्वारा समाज में प्रतिष्ठित होते हैं , जब उनकी प्रतिष्ठा कुछ अधिक ही हो जाती है तो वह स्वयं को अच्छा मानने लगते हैं परंतु यहीं पर मनुष्य को सावधान हो जाना चाहिए और यह कभी नहीं समझना चाहिए कि वह वास्तव में अच्छा हो गया है | क्योंकि मनुष्य अच्छा तभी हो पाता है जब उसका मन निर्मल हो जाय | मन में कुविचारों एवं और कुभावों का सर्वथा अभाव हो जाय | मन सद्विचार एवं सद्भाव से भर जाय | सद्विचार एवं सद्भाव की नियति कैसे हो ? इस पर विचार करना चाहिए | यदि आपके सद्विचार एवं सद्भाव भगवान का आश्रय ना देकर स्वतंत्र रहते हैं तो उन्हें भी अहंकार का भारी दोष उत्पन्न हो जाता है , और यही एक दोस्त समस्त सद्विचारों और सद्भावोॉ का विनाश कर देता है | इसलिए मनुष्य को आत्मनिरीक्षण करना चाहिए | अपने जीवन के बीते हुए तथा वर्तमान कार्यों का अवलोकन करना चाहिए | जिस दिन मनुष्य अपने द्वारा किए गए कार्यों का सूक्ष्मता से निरीक्षण करता है तब उसे स्पष्ट दिखाई देने लगता है कि वह तो दूसरों की दृष्टि में भले ही अच्छा हो परंतु वह स्वयं अच्छा है नहीं | क्योंकि तब मनुष्य को स्वयं अपने अंदर बुराई एवं गंदगी भरी हुई दिखाई पड़ने लगती है | जिस दिन मनुष्य अपने भीतर की बुराई एवं गंदगी तो को देख लेता है और उस पर पश्चाताप करने लगता है उसी दिन उसके भीतर नम्रता का प्रादुर्भाव होता है , और यही नम्रता मनुष्य को भगवान की ओर ले जाती है और मनुष्य का जीवन पावन होने लगता है |*
*आज के युग में अनेकों लोग ऐसे हैं जो अपनी बड़ाई एवं वाहवाही सुनकर फूले नहीं समाते | ऐसे व्यक्ति हमेशा दूसरों के द्वारा अपनी प्रशंसा सुनना ही पसंद करते हैं और इस कार्य में आज का मनुष्य इतना व्यस्त हो गया है कि उसे अपने दुर्गुण और दूर्विचार दिखाई ही नहीं पड़ते | आज मनुष्य के पास आत्मनिरीक्षण करने का समय ही नहीं बचा है इसीलिए आज मनुष्य आत्ममुग्धता में फंसा हुआ है | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" स्पष्ट रूप से बताना चाहूंगा कि मनुष्य के जीवन में कितने भी दुर्विचार रहे हो , उसने दुराचार क्यों न किया हो और दुर्गुण का घर क्यों न रहा हो परंतु यदि उसने अपने वर्तमान को सुधार लिया है तो ईश्वर वर्तमान हृदय को देखता है और मनुष्य की करुण पुकार सुनने लगता है | भगवान अकारण करुणावरुणालय हैं | वह प्राणी मात्र के सहज ही रहे हैं , उनका हृदय द्वार सबके लिए हमेशा खुला होता है | प्रत्येक जीव निर्भय होकर उनके चरणों में जा सकता है परंतु आज का परिवेश ऐसा हो गया है कि हम दूसरों के दुर्गुण एवंलदूसरों के सद्गुण तो देखते हैं परंतु अपने दुर्गुणों की ओर किसी की दृष्टि ही नहीं जाती | यही कारण है कि आज प्रत्येक मनुष्य में अहंभाव स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है जो कि मनुष्य के पतन का कारण बनता चला जा रहा है | आवश्यकता है अपने मन को निर्मल करने की और यह तभी संभव है जब मनुष्य समय-समय पर आत्म निरीक्षण करता रहेगा |*
*आत्मनिरीक्षण के बिना कोई भी सफलता की सीढ़ियां नहीं चढ़ सकता | जितने भी महापुरुष सफलता के शिखर पर पहुंचे हैं उनके द्वारा समय-समय पर आत्म निरीक्षण किया जाता रहा है |*