*ईश्वर का बनाया हुआ यह संसार प्रेममय है | परमात्मा प्रेम के बिना नहीं मिल सकता , परमात्मा ही नहीं इस संसार में बिना प्रेम के कुछ भी नहीं प्राप्त हो सकता है | आप किसी से लड़ाई करके वह नहीं प्राप्त कर सकते जो प्रेम से प्राप्त हो सकता है | प्रेम को कई रूप में देखा जाता है मोह एवं आसक्ति इसी का दूसरा रूप है | प्रेम का शुद्ध रूप हमारे शास्त्रों में राग को बताया गया है | राग अर्थात प्रेम परिवार से प्रारंभ होता है परिवार से होते हुए यह राग समाज में फैलता है और एक दिन ऐसा आता है जब यह राग अनुराग में परिवर्तित हो जाता है | अनुराग का अर्थ है निश्छल प्रेम | यह निश्चल प्रेम मनुष्य से हो या परमात्मा से यह सब कुछ प्राप्त करा लेने में सक्षम है | अनुराग के विषय में गोस्वामी तुलसीदास जी लिखते हैं :- "मिलहिं हन रघुपति बिनु अनुरागा" | राग जब अनुराग में परिवर्तित हो जाता है तो मनुष्य को परमात्मा के चरणों में निश्चल प्रेम होता है और बिना निश्चल प्रेम के ईश्वर की प्राप्ति नहीं की जा सकती | सगुण साकार रूप में अनुराग रखते हुए मनुष्य जब निराकार निर्गुण स्वरूप की उपासना करना प्रारंभ कर देता है तब यह अनुराग बैराग्य में परिवर्तित हो जाता है | जिस प्रकार मनुष्य बिना प्राथमिक शिक्षा प्राप्त किये उच्च शिक्षा नहीं प्राप्त कर सकता उसी प्रकार बिना राग के अनुराग कदापि नहीं हो सकता | राग को प्राथमिक शिक्षा कहा गया है अनुराग शिक्षा का मध्य कहा जा सकता है और वैराग्य और शिक्षा की पराकाष्ठा है | अनुराग अर्थात निश्चल प्रेम करके ही अनेक भक्तों ने इस संसार में परमात्मा को प्राप्त कर लिया है | अनुराग का जन्म राग से ही होता है और राग की उत्पत्ति परिवार में ही होती है | परिवार से विमुख होकर कोई भी अनुराग रुपी परमात्मा को कभी नहीं प्राप्त कर सकता | जब तक राग नहीं होगा तब तक अनुराग की नींव नहीं पड़ेगी और अनुराग के बिना वैराग्य पा लेना दिन में सपने देखने के जैसा है | राग - अनुराग एवं बैराग्य में भेद स्पष्ट करते हुए हमारे शास्त्रों में वर्णन प्राप्त होता है कि इंद्रियों का संपर्क जब उनके विषय से होता है तब सुख की अनुभूति होती है | जैसे जब कोई स्वादिष्ठ भोज्य पदार्थ का संपर्क हमारी जीभ से होता है तब हमें बड़ा आनंद आता है | परंतु ये आनंद क्षणिक होता है | एक बार खाने के बाद वो आनंद चला जाता है | चूँकि हूमें आनंद का स्वाद लग गया है , भले ही वो क्षणिक था, इसलिए हम उसी आनंद की खोज में दोबारा उसी विषय में अपनी इंद्रिया को लिप्त करते हैं | और ये क्षणिक आनंद पाने का प्रयास करते करते जीवन चलता रहता है | और इसमें मनुष्य जितना प्रयास करता है इंद्रियों को तृप्त करने का उस क्षणिक आनंद से मोह या यूं कहे उसको पाने की इच्छा निरंतर उतनी ही और प्रबल होती जाती है | इस प्रकार से यही प्रबल इच्छा हमें विषय से और संपर्क करने के लिए अभिप्रेरित करेगी | इसी को राग कहा जाता है | जब आनंद पाने की यही प्रबल इच्छा संसारिक विषयों में ना लिप्त होकर ईश्वर, गुरु या सच्चे प्रेम के प्रति होती है तो इसे अनुराग कहा जाता है | जीवन में एक बार ऐसा अनुराग आ जाने से हम हम धीमे धीमे वैराग्य की अवस्था की ओर उन्मुख होते हैं |*
*आज संसार में प्रेम का स्वरूप ही बदल गया है | प्रेम अब मोह में परिवर्तित होता दिख रहा है | रागी तो सभी हैं , राग तो सभी करते हैं परंतु राग से आगे बढ़कर अनुराग एवं वैराग्य के पद पर चलने वाला कोई भी नहीं निकल पाता | कुछ लोग ईश्वर के प्रति अनुराग रखकर बैराग्य तो करना चाहते हैं परंतु वे यह नहीं समझ पाते बिना राग के अनुराग नहीं हो सकता | राग प्राथमिक प्रेम है जो कि परिवार से ही होता है | कुछ लोग परिवार का त्याग करके ईश्वर की प्राप्ति करना चाहते हैं परंतु यह उसी प्रकार है जैसे बिना प्राथमिक शिक्षा के उच्च शिक्षा प्राप्त करने का प्रयास करना और यह क्या कभी भी सफल नहीं हो सकता | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" अब तक जो जान पाया हूँ उसके अनुसार :- राग-विराग व अनुराग मानव अंत:करण के पहलू हैं | राग का अर्थ है लगाव और विराग का अर्थ है अलगाव अर्थात संसारी व्यक्ति | वस्तु में या तो हमें लगाव होता है या उससे हमारा विलगाव होता है | इन दोनों स्थितियों में रहने वाला मनुष्य परमात्मा की प्राप्ति नहीं कर सकता | ईश्वर तो अनुराग से मिलता है , अनुराग का मतलब लगाव-विलगाव के मध्य की स्थिति | जैसे चावल बनाते समय यह देखा जाता है कि पानी अधिक न हो जाय या फिर आग ज्यादा तेज न जले | उसी प्रकार विराग रूपी अग्नि की देखरेख आवश्यक है | जब राग व वैराग्य दोनों का सामंजस्य ठीकठाक रहेगा तो समझो हम सिद्ध हुए और परमात्मा का सच्चा सुख हमें मिला | संसार दु:खालय है और दु:खालय में सुख की खोज अल्पज्ञता का द्योतक है | सुखधाम तो राम हैं , उन्हीं से ही सच्चा सुख प्राप्त हो सकता है | परंतु आज संसार में अनेक साधक बैराग्य की साधना तो करना चाहते हैं जिसके लिए वह अपने घर परिवार को भी छोड़ देना चाहते हैं परंतु वैराग्य एवं राग दोनों में सामंजस्य नहीं बैठा पाते | यही कारण है कि अनेकों साधन कर लेने के बाद भी उनके हृदय में अनुराग अर्थात निश्चल प्रेम नहीं प्रकट हो पाता तथा जीवन भर साधना करने के बाद भी ईश्वर को नहीं प्राप्त कर पाते | ईश्वर को प्राप्त करने का सबसे सरल साधन है हृदय में परमात्मा से निश्छल प्रेम करना | परमात्मा से निश्चल प्रेम तभी हो पाएगा जब मनुष्य अपने परिवार एवं समाज से निश्चल प्रेम करना प्रारंभ कर देगा | जिसके मन में कुटिलता या तिरस्कार की भावना है , जिसका मन कलुषित है वह कभी भी परमात्मा को प्राप्त नहीं कर सकता | स्वयं राघवेन्द्र सरकार ने कहा है कि :- "निर्मल मन जन सो मोहि पावा" इसलिए प्रत्येक मनुष्य को राग करते हुए अनुराग की ओर बढ़ना चाहिए तभी उसे वैराग्य की प्राप्ति हो सकती है |*
*प्रेम के परावर्तित रूप राग अनुराग एवं वैराग्य के रहस्य को जो समझ लेता है उसके लिए कुछ भी प्राप्त कर पाना असंभव नहीं होता | यदि मनुष्य निश्चल प्रेम करते हुए अनुरागी बन जाता है तो अपरिचित लोगों के मध्य में भी वह प्रिय हो जाता है |*