*ईश्वर द्वारा बनाया गया यह संसार बहुत की रहस्यमय है ` इस संसार को अनेक उपमा दी गई हैं | किसी ने इसे पुष्प के समान माना है तो किसी ने संसार को ही स्वर्ग मान लिया है | वेदांत दर्शन में संसार को स्वप्नवत् कहा गया है तो गोस्वामी तुलसीदास जी इस संसार को एक प्रपंच मानते हैं | गौतम बुद्ध जी के दृष्टिकोण से यह संसार दुखों का मूल है | इन सभी को यदि मिलाकर देखा जाए तो वास्तव में संसार दु:खालय ही दिखाई पड़ता है | ना चाहते हुए भी मनुष्य जीवन में अनेक दुरूह समस्याओं से घिरा हुआ नजर आता है | प्रत्येक मनुष्य प्रयास तो करता है सुख प्राप्त करने का परंतु उसे दुख घेर लेते हैं ` मनुष्य के दुख का कारण उसकी अतृप्त कामनाएं होती है , प्रत्येक मनुष्य सुख सुविधा की कामना करता है परंतु उसे अशांति ही प्राप्त होती है क्योंकि सब कुछ अपने अनुकूल नहीं मिल सकता | हमारे शास्त्रों में कहा गया है "अशांतस्य कुतो सुखम्" अर्थात अशांत व्यक्ति को सुख कैसे मिल सकता है ? मनुष्य जीवन भर अपनी कामनाओं , वासनाओं एवं आकांक्षाओं की तृप्ति के लिए दौड़ता रहता है परंतु जब वह पीछे मुड़कर देखता है तो उसे पश्चाताप होता है कि उसने अपने जीवन को व्यर्थ में गवा दिया | यदि विचार किया जाय कि दुख क्या है ? तो उत्तर यही होगा कि मनुष्य की अतृप्त कामनाएं ही दुख का कारण होती है | संसार को न समझ पाने के कारण मन में उपजी भ्रांति माया का रूप ले लेती है और मानसिक उद्विग्नता परिणाम के रूप में हमारा पीछा जीवन के हर मोड़ पर करती नजर आती है | प्रत्येक मनुष्य संसासार को अपने अनुकूल करना चाहता है जबकि यह संसार किसी के संभाले संभलने वाला नहीं है | वास्तव में शांति एवं तृप्ति मनुष्य को तभी प्राप्त हो सकती है जब उसकी मानसिकता एवं दृष्टिकोण परिवर्तित हो जाय | परिस्थितियां चाहे जितनी अनुकूल हो जाएं परंतु जब तक मनुष्य की मानसिकता एवं दृष्टिकोण नहीं परिवर्तित होगा तब तक मनुष्य को सुख एवं शांति कदापि नहीं प्राप्त हो सकती |*
*आज सारे संसार में अनेक सुख सुविधाएं होने के बाद भी प्रत्येक मनुष्य दुखों से घिरा हुआ ही दिखाई पड़ता है , क्योंकि आज किसी को भी संतोष नहीं है | किसी को किसी प्रियजन की बातों से दुख हो जाता है , किसी को किसी के कार्य से दुख हो जाता है , किसी को इस बात का दुख होता है कि लोग हमारी बात को नहीं मान रहे हैं | दुखों के इस भंवर जाल में मनुष्य इसलिए फस गया है क्योंकि वह सब कुछ अपने अनुसार करना चाहता है | ऐसे विकट समय को देखते हुए मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" इस विकट समस्या का समाधान यही जान पाया हूँ कि मनुष्य यदि अपने मन को परिवर्तित कर ले तो उसके दुखों का अंत हो सकता है | "योग वशिष्ट महारामायण" एक प्रसंग मिलता है कि जिस प्रकार भीगी हुई लकड़ियां आग को नहीं जला सकती उसी प्रकार यदि मनुष्य अपने मन को परिवर्तित करके अपने मन को ज्ञान से सिक्त कर ले तो आत्मज्ञान से भीगे हुए ज्ञानी जनों को मानसिक वेदना कभी पीड़ित नहीं कर सकती | ज्ञान के द्वारा ही मनुष्य के दुखों का अंत हो सकता है | जो भी मनुष्य ज्ञान की इस नौका पर सवार हो जाता है वह संसार सागर को चीरकर पार चला जाता है | दुख से घिरे इस संसार से उबरने का एक ही मार्ग है कि मनुष्य सांसारिकता के अतिरिक्त ज्ञान भी प्राप्त करने का प्रयास करें | यदि मनुष्य बाहर के नित्य नूतन संसाधनों की दौड़ में पड़ने के स्थान पर आत्मिक शांति के लिए प्रयास करें तो उसे दुख कभी भी व्यथित नहीं कर सकता क्योंकि सुख उसे ही प्राप्त हो सकता है जिसके मन में शांति है , जिसके मन में संतोष है , अन्यथा मनुष्य जीवन भर दुखों के भंवर जाल में डूबता उतराता रहता है | मनुष्य के दुखों का यही कारण है कि संसार के अनेक संसाधनों पर नियंत्रण करने वाला मनुष्य अपने मन पर नियंत्रण करने में असफल हो रहा है | जिस दिन मनुष्य अपने मन पर नियंत्रण कर के अपना दृष्टिकोण परिवर्तित कर देता है उसी दिन उसके सारे दुख स्वत: समाप्त हो जाते हैं |*
*जीवन में सुख व शांति प्राप्त करने के लिए भौतिक संसाधनों की बहुत ज्यादा आवश्यकता नहीं होती है आवश्यकता होती है कि मनुष्य के जीवन का उद्देश्य स्पष्ट हो | जिस दिन मनुष्य अपने जीवन का उद्देश्य जान जाता उसी दिन उसे असीम शांति प्राप्त होती है और वह सुख का अनुभव करने लगता है |*