*जब से इस धरा धाम पर मनुष्य का सृजन हुआ है तब से लेकर आज तक अनेकों प्रकार के मनुष्य इस धरती पर आये और चले गये | वैसे तो ईश्वर ने मानव मात्र को एक जैसा शरीर दिया है परंतु मनुष्य अपनी बुद्धि विवेक के अनुसार जीवन यापन करता है | ईश्वर का बनाया हुआ यह संसार बड़ा ही अद्भुत एवं रहस्यम है | यहाँ मनुष्य के मन में एक भावना बैठी होती है कि मैं जो हूं या मैं जो कर सकता हूं वह कोई दूसरा नहीं कर सकता | इतिहास साक्षी है , हमारे पुराणों में अनेक कथानक मिलते हैं जहां मनुष्य "एकोहम द्वितीयो नास्ति" की भावना से ग्रसित होकर पतन को प्राप्त हुआ है | लीला बिहारी भगवान श्री कृष्ण की नकल करते हुए स्वयं को वासुदेव कहने वाला पौण्ड्रक यह समझता था कि वह स्वयं कृष्ण हो गया है परंतु उसकी क्या दुर्गति हुई यह सभी जानते हैं | मनुष्य जब भी यह मान लेता है कि मेरे बराबर किसी को ज्ञान ही नहीं है तो समझ लेना चाहिए कि उसको तनिक भी ज्ञान नहीं है क्योंकि विद्या का एक मुख्य प्रभाव होता है कि वह मनुष्य को विनयशील बना देती है "विद्या ददाति विनयम" परंतु यह प्रकृति का प्रभाव ही है कि विद्या के साथ-साथ मनुष्य में कब अहंकार का उदय हो जाता है यह वह स्वयं नहीं जानता और स्वयं को ज्ञानी समझने के अहंकार में यह सभी को मूर्ख समझने लगता है | मनुष्य का यह कृत्य उसको समाज के उच्च पद से निम्न पद पर लाकर खड़ा कर देता है और वह हंसी का पात्र भी बन जाता है | प्रत्येक मनुष्य को यह समझना चाहिए कि इस संसार में कोई भी पूर्ण नहीं है जिसके भीतर गंभीरता एवं विनयसीलता नहीं है वह विद्वान होकर भी विद्वान नहीं कहा जा सकता | स्वघोषित विद्वान तो वह हो सकता है परंतु समाज उसे कभी सम्मान की दृष्टि से नहीं देखता | जिस पर भगवान की कृपा होती है वही इस अहंकार से बच पाता है अन्यथा ज्ञान प्राप्त कर लेने के बाद प्राय: अधिकतर लोग इसके चक्रव्यूह मैं इस प्रकार उलझ जाते हैं कि उन्हें निकलने का मार्ग नहीं मिलता और इसी चक्रव्यूह उनका अंत हो जाता है |*
*आज के आधुनिक समाज में विद्वत समाज इस रोग से कुछ अधिक ही पीड़ित दिखाई पड़ रहा है | आज मनुष्य विचार करता है कि मैं जो जानता हूं वह कोई दूसरा नहीं जानता , मैं जो पढ़ सकता हूं वह और किसी के बस की बात नहीं है , जबकि यह उनका अहंकार ही होता है | इस संसार में एक से एक विद्वान है , एक से एक बलवान हैं कोई किसी से कम नहीं परंतु मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" देख रहा हूं कि जिन्हें समाज उनके ज्ञान , उनकी आयु एवं उनकी योग्यता के लिए उनका सम्मान करता है वही लोग अपने अतिरिक्त सभी विद्वानों को तथा अपने सेवकों को मूर्ख समझने लगते हैं | यह वही लोग जो कहने को विद्वान होते हैं | जिस प्रकार बाबा जी ने मानस में लिखा है :- छुद्र नदी भरि चली तोराई ! जिमि थोरेहुं धन खल इतराई !! अर्थात :- छोटी नदियां भी बरसात में उफान मारने लगती हैं तो उनको ऐसा लगता है कि मुझसे बड़ी नदी अब कोई है कि नहीं ठीक इसी प्रकार आज समाज में कुछ विद्वान ऐसे हैं जो थोड़ा सा ज्ञान प्राप्त कर लेने पर यह समझने लगते हैं कि मुझसे बड़ा विद्वान कोई दूसरा नहीं है | भरे समाज में अन्य विद्वानों की परीक्षा लेना उनका स्वभाव बन जाता है जबकि ऐसा नहीं करना चाहिए क्योंकि विद्वान वही होता है जो सब का सम्मान करना जानता हो | फलों से लदे हुए वृक्ष सदैव झुके होते हैं जिस वृक्ष में कोई फल ही ना आए वह झुकना भला कैसे जान सकता है ? ज्ञानवान मनुष्य सदैव दूसरों का सम्मान करना जानता है तथा जो दूसरों का सम्मान करना जानता है यह समाज उसी को सम्मानित करता है अन्यथा ऐसे लोग कहीं भी किसी भी समाज में सम्माननीय होकर भी सम्मान नहीं पाते और अपनी गलतियों का ठीकरा पूरे समाज पर फोड़ने का प्रयास करते हैं | विचार कीजिए कि जो वास्तव में ज्ञानी होगा वह पूज्यनीय क्यों नहीं होगा ! कुछ लोग अपनी चर्चा में लोगों को उलझाकर अपने ज्ञान का प्रदर्शन करने का प्रयास करते हैं | ऐसे लोग आने वाली पीढ़ियों के लिए क्या आदर्श स्थापित करेंगे यह स्वयं में विचारणीय है |*
*विद्वता एवं अहंकार दोनों परस्पर विरोधी हैं परंतु यदि दोनों मिल जाते हैं तो मनुष्य को पतित करके ही छोड़ते हैं इसलिए प्रत्येक मनुष्य को यही प्रयास करना चाहिए कि इनमें विरोध बना ही रहे |*