*इस धरा धाम में आने के बाद मनुष्य स्वयं को समाज में प्रतिष्ठित करने के लिए अपने व्यक्तित्व का विकास करना प्रारंभ करता है , परंतु कभी-कभी वह दूसरों के व्यक्तित्व को देखकर उसका मूल्यांकन करने लगता है | यहीं पर वह छला जाता है | ऐसा मनुष्य इसलिए करता है क्योंकि दूसरों के जीवन में तांक - छांक करने की मनुष्य की प्रवृत्ति होती है | प्रायः दूसरों का मूल्यांकन किया जाता रहता है जिसके परिणाम स्वरूप मनुष्य दूसरे की बराबरी करने का प्रयास करता है और जब वह बराबरी नहीं कर पाता तो उसमें मानसिक विकार उत्पन्न हो जाते हैं | इन विकारों से बचने के लिए जरूरी है कि मनुष्य दूसरों के स्थान पर स्वयं का मूल्यांकन करें क्योंकि स्वयं का मूल्यांकन या आत्म विश्लेषण एक ऐसा दृष्टिकोण होता है जिसमें व्यक्ति दूसरे व्यक्ति की सहायता के बिना अपने व्यक्तित्व को समझ सकता है | यह एक कटु सत्य है कि स्वयं का मूल्यांकन किए बिना मनुष्य प्रगति के पथ पर अग्रसर नहीं हो सकता है क्योंकि मनुष्य सही मायने में केवल अपने आप को ही जानता है | समय-समय पर स्वयं का मूल्यांकन करके मनुष्य मानसिक विकारों से बच सकता है क्योंकि यदि कोई शारीरिक व्याधि होती है तो मनुष्य को पता चल जाता है | जैसे :- बुखार हुआ तो शरीर गर्म हो जाता है , चोट लगती है तो दर्द होता है घाव हो जाता है तो वह दिखाई पड़ता है परंतु मानसिक रोग या विकार कब मनुष्य को जकड़ लेते हैं वह स्वयं नहीं जान पाता | यहीं पर मनुष्य को आत्म चिंतन या आत्म मूल्यांकन की आवश्यकता होती है | इसके माध्यम से ही वह अपने मानसिक समस्याओं को पहचान सकता है | दूसरों से अपना मूल्यांकन करना कदापि गलत नहीं है परंतु यह भी आवश्यक है कि जब किसी दूसरे व्यक्ति के व्यक्तित्व व्यवहार के बारे में हम विचार करें और किसी निष्कर्ष पर पहुंचे तो कुछ पल रुक कर के उन्ही विषयों पर स्वयं के व्यक्तित्व को भी आंकना चाहिए कि उस व्यक्ति के व्यक्तित्व के समान अपना व्यक्तित्व बनाने के लिए हमें क्या करना चाहिए या क्या करना उचित होगा | जो मनुष्य समय-समय पर आत्म मूल्यांकन किया करता है वही जीवन में सब कुछ प्राप्त कर पाता है | आत्म मूल्यांकन ही व्यक्तित्व विकास का मुख्य साधन है |*
*आज के युग को वैज्ञानिक युग कहा जा रहा है परंतु इस वैज्ञानिक युग में भी हमारे पूर्वज ऋषियो - महार्षियों के द्वारा कही गई बात को उनके दिशा निर्देश को नकारा नहीं जा सकता है ` यदि हम आधुनिक मनोविज्ञान के दृष्टिकोण से देखें तो एक व्यक्ति का मानसिक स्वास्थ्य कई जटिल अंतर्वैयक्तिक और सामाजिक प्रक्रियाओं के गत्यात्मक पहलुओं पर निर्भर करता है , परंतु यदि व्यक्ति चेतना के स्तर पर थोड़ा प्रयास करें तो स्वयं को मानसिक स्तर पर स्वस्थ रख सकता है | आत्म मूल्यांकन के द्वारा ही मनुष्य अपने जीवन को सार्थक कर सकता है | दूसरों को या उनके कार्यों को देखने की अपेक्षा मनुष्य को सर्वप्रथम स्वयं का मूल्यांकन एवं अवलोकन करना चाहिए क्योंकि जब मनुष्य अपने मनोभावों पर नियंत्रण नहीं कर पाता है तो वह मनोविकार बन जाते हैं | और मेरा "आचार्य अर्जुन तिवारी" का मानना है कि मानसिक रोग एवं मनोविकार जैसे :- अवसाद , उन्माद और उद्दंडता आदि तभी प्रकट होते हैं जब हम दूसरों का मूल्यांकन एवं विश्लेषण करने लगते हैं क्योंकि ऐसा करने वाले किसी दूसरे के नकारात्मक पहलुओं का ही नित्य मूल्यांकन करते हैं और असंतुलित मानक तय कर दूसरों से स्वयं की तुलना करने लगते हैं | अंततः यह असंतुलित मूल्यांकन व्यक्ति को जीवन के उस मोड़ पर ले जाता है जहां से वापस आना बहुत कठिन हो जाता है | कभी-कभी तो ऐसा भी होता है कि वह जिस मनुष्य से अपना मूल्यांकन करता है व जिस मनुष्य से स्वयं की तुलना करता है वह लोग उससे कमतर होकर भी अधिक सफल हो जाते हैं और जब ऐसा होता है तो मनुष्य उनकी बराबरी करने के लिए कोई भी मार्ग अपनाने लगता है | ऐसे में मनुष्य को विचार करना चाहिए कि वह मूल्यांकन तो कर रहा है परंतु उसे मूल्यांकन कि नहीं बल्कि आत्म मूल्यांकन की आवश्यकता है क्योंकि आत्म मूल्यांकन करके ही मनुष्य नकारात्मक होने से बच सकता है | जब तक हम स्वयं अपने मन के मालिक नहीं होंगे तब तक आत्म विश्लेषण या आत्म मूल्यांकन करने में सक्षम नहीं हो सकते और मन की चंचलता के कारण दूसरों का मूल्यांकन करने में जीवन व्यतीत कर देते हैं | ऐसा ना होने पाए इसलिए प्रत्येक मनुष्य को आत्म मूल्यांकन करते हुये स्वयं के व्यक्तित्व का विकास करने का प्रयास करना चाहिए |*
*प्रायः लोग दूसरों की तरह बनना चाहते हैं परंतु सत्य ही है कि ईश्वर ने सबको एक भिन्न मौलिकता प्रदान की है | उसी विशेष उपहार को आत्म मूल्यांकन के द्वारा निखार कर अपनी कमियों को दूर करते हुए व्यक्तित्व का समग्र विकास करना चाहिए |*