*परमात्मा की इच्छा से ब्रह्मा जी ने सुंदर सृष्टि की रचना की , अनेक प्रकार के जीन बनाए | पर्वत , नदियां , पेड़-पौधे सब ईश्वर की कृपा से इस धरा धाम पर प्रकट हुये | ईश्वर समदर्शी है ! वह कभी भी किसी से भेदभाव नहीं करता है | ईश्वर की प्रतिनिधि है प्रकृति और प्रकृति सबको बराबर बांटने का प्रयास करती है | सूर्य जब आसमान पर चमकता है तो यह विचार नहीं करता कि किसी को प्रकाश अधिक दे दे और किसी को कम | सुंदर , शीतल , सुगंधित वायु जब प्रवाहित होती है तो वह सबको बराबर स्पर्श करते हुए निकलने का प्रयास करती है | इसी प्रकार ईश्वर के बनाए हुए वृक्ष सबको समान फल देने का प्रयास करते हैं | अब यहां प्रश्न यह है कि जब ईश्वर समदर्शी है तो सबको बराबर लाभ क्यों नहीं मिलता ? ईश्वर ने तो सबके लिए बराबर व्यवस्था है कि अब यह अलग विषय है कि कौन उसका लाभ लेना चाहता है और कौन नहीं | सूर्य की ऊष्मा यद्यपि सबके लिए बराबर है परंतु इसका लाभ वही ले पाता है जो धूप में आकर बैठता है | वृक्षों में लगे हुए फल सबके लिए हैं परंतु प्राप्त उसी को होंगे जो कर्म करते हुए उनके पास तक जाएगा | कहने का तात्पर्य है कि ईश्वर ने सबके लिए समान साधन उपलब्ध कराये हैं परंतु उसके लिए मनुष्य को कर्म करना पड़ता है | यह सृष्टि कर्म प्रधान है , बिना कर्म किए यहां कुछ भी नहीं प्राप्त हो सकता और कर्म करने वालों के लिए सब कुछ उपलब्ध है | जो कर्महीन होते उन्हें कुछ भी नहीं प्राप्त हो पाता | बाबा जी ने मानस में लिखा है "सकल पदारथ है जग माही ! कर्महीन नर पावत नाही !!" कहने का तात्पर्य यह है कि सब कुछ यहां उपलब्ध है परंतु कुछ भी प्राप्त करने के लिए कर्म करना ही पड़ता है बिना कर्म की कुछ भी प्राप्त हो पाना संभव नहीं है | मानव जीवन का परम लक्ष्य भगवत्प्राप्ति बताया गया है और भगवत्प्राप्ति करने का साधन सबके लिए समान रूप से उपलब्ध है परंतु मनुष्य ईश्वर की साधना - उपासना नहीं कर पाता और जब दूसरों को भक्ति के पथ पर अग्रसर देता है तो अपने मन ही मन में विचार करता है ईश्वर ने अमुक साधक को अपनी भक्ति प्रदान कर दी परंतु हमें नहीं प्राप्त हो पाई | इसका कारण है कि ईश्वर भेदभाव करता है | ईश्वर भेदभाव कदापि नहीं करता है जिन लोगों ने कुछ प्राप्त किया है उन्होंने कर्म को माध्यम बनाकर के वह सफलताएं अर्जित की है और कर्म रूपी अस्त्र , कर्म रूपी साधन सबके लिए ईश्वर ने समान रूप से उपलब्ध कराया है जो भी इस रहस्य को समझ जाता है वह कभी भी ईश्वर को भेदभाव करने वाला कह ही नहीं सकता |*
*आज के यांत्रिक युग में मनुष्य इतना व्यस्त हो गया है कि उसे यह तक ज्ञात नहीं रह गया है कि हमें क्या करना चाहिए क्या नहीं करना चाहिए | आज मनुष्य थोड़ा सा कष्ट आ जाने पर ईश्वर को दोषी बताने लगता है परंतु वह स्वयं अपनी पत्नी , अपने बच्चे और अपना परिवार इससे आगे नहीं निकल पाता | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" बताना चाहूंगा कि जब एक उपदेशक/कथावाचक व्यास गद्दी पर बैठ कर भगवान के उपदेशों को जनमानस के समक्ष प्रस्तुत करता है तो वह यह विचार नहीं करता कि हमारा उपदेश किसी को ज्यादा मिल जाए किसी को कम | वह ध्वनि विस्तारक यंत्र के माध्यम से सबको समान रूप से उपदेश देता है परंतु उसी जनमानस में कुछ लोग उसका लाभ ले लेते हैं और कुछ लोगों के द्वारा पूरा समय व्यतीत कर देने के बाद भी यह नहीं समझ आता उपदेशक ने क्या बता दिया , क्योंकि उन्होंने उस उपदेश का लाभ लेने का प्रयास ही नहीं किया | ठीक उसी प्रकार ईश्वर सबको बराबर बांट रहा है परंतु सभी लोग इसका लाभ लेना ही नहीं चाहते | जिस प्रकार एक पिता के चार पुत्र होते हैं और वह सबके लिए समान व्यवस्थाएं करता है परंतु उसके चारों पुत्र उन व्यवस्थाओं का लाभ लेकर सफल हो ही जाए यह आवश्यक नहीं है | पिता ने तो सबके लिए समान व्यवस्था की परंतु सभी पुत्र उसका लाभ नहीं ले पाते , ठीक उसी प्रकार ईश्वर भी सबके लिए समान व्यवस्था करता है परंतु ईश्वर की कृपा उसी को मिलती है जो ईश्वर की ओर उन्मुख हो जाता है अन्यथा जीवन भर ईश्वर का , समाज का एवं परिवार का दोष मानते हुए उसका जीवन व्यतीत हो जाता है | ईश्वर को भेदभाव करने वाला मानने वाले स्वयं भेदभाव करने के रोग से ग्रसित हैं क्योंकि उनको अपने परिवार के अतिरिक्त और कोई दिखाई नहीं पड़ता | जो कुछ भी करना चाहते हैं अपने परिवार के लिए ही करना चाहते हैं | जिस दिन मनुष्य अपने परिवार से ऊपर उठकर समभाव से सबके लिए विचार करने लगता है , चिंतन करने लगता है उसी दिन उसको ईश्वर भी समदर्शी दिखाई पड़ने लगता है अन्यथा जब हम स्वयं समदर्शी नहीं बन पाए हैं तो ईश्वर की समदर्शिता हमको नहीं दिखाई पड़ सकती है |*
*हम दूसरों पर दोषारोपण करने में सिद्धहस्त हो गए हैं | जिस दिन हम स्वयं समदर्शी हो जाएंगे उसी दिन हमें सारा संसार और ईश्वर भी समान रूप से व्यवहार करने वाले दिखने लगेगें |*