मांँ एक प्यारा और राज दुलारा हम सभी के लिए जीवन में यह शब्द न होकर एक जिंदगी है इसके बिना हम सभी जीवन में शायद कुछ नहीं कर पाते हैं तभी तो मांँ को भगवान का रूप दिया है और मांँ के चरणों में स्वर्ग का स्थान बताया है परंतु हम सभी अपने जीवन में मांँके शब्द की महिमा को जानते ही नहीं है वैसे तो हमारे ग्रंथ में जैसे रामायण में दशरथ महाराज की रानियां कई सुमित्रा कैकयी कौशल्या और उनके पुत्र राम भरत लक्ष्मण शत्रुध्न सभी को मालूम है और राज सिंहासन राज पाठ के लिए एक मांँ ने अपने पुत्र के लिए दूसरे पुत्र को वनवास तक कर दिया है ऐसा हम सभी जानते हैं और जीवन में ऐसी बातों का संज्ञान श्री कृष्णा प्रभु ने माता देवकी को भी उत्तर दिया था इसलिए मांँ का सम्मान पहले तो गुरु है और मांँ ही एक ऐसी है जो खुद गीले में सोती है और बच्चों को सुखे में सुला देती हैं। बचपन में हम सभी को मांँ ऐसा ही करती है। सच तो जीवन में यही है। आज के आधुनिक परिवेश में हम सभी अपने बचपन और बचपन में बीते पल कहां याद रखते है। सही भी है क्योंकि मानव जीवन ही एक स्वार्थ और छल फरेब के साथ बना हैं। सच तो यह भी है कि अगर हम जीवन में एक प्रतिशत निकालो तब हम समझ में देखेंगे कि आज भी नारी का सम्मान बहुत गणित के हिसाब की तरह होता है हम सभी सब कुछ समझते हैं फिर भी आज के युग में नई ही नारी की दुश्मन है या यू कह सकते है कि जो सास है वह भी कभी बहू थी परंतु समय-समय के साथ-साथ हमारी सबकी सोच भी बदलती है। और हम सब परिवार के संस्कार के साथ-साथ जो हम देखते हैं। शायद वैसे ही हम करते हैं क्योंकि आजकल सभी घरों में दादी नानी ताई चाची अब यह रिश्ते बहुत कम मिलते हैं और अगर मिल भी जाते हैं तो उन रिश्तो में मिठास कम कड़वाहट ज्यादा होती है और इस सब के पीछे एक ही कारण है केवल धन संपत्ति का बोल वाला है। हां हम बात कहनी में एक मां की कर रहे हैं सच तो यही है मन भी इन्हीं रिश्तो से मिलकर बनती है और हम सभी मां को पहचानते भी हैं की मांँ क्या है और मां हमारे जीवन का एक अहम हिस्सा और किरदार शायद बिना मांँ के हम सभी कुछ भी नहीं है। सच तो बस इतना सा है कि हम सभी एक बचपन और जवानी के बीच का जीवन भूल जाते है। क्योंकि उसमें भी एक सच है की कुछ तो हम अपने उम्र के हिसाब से जीवन जीते हैं और कुछ हमारे संस्कार और सोच भी बदल जाती है हम सभी अपने नियम अपने कायदे कानून अपने पारिवारिक सोच बना लेते है। जबकि हम सभी जीवन के पहलुओं को जानते हैं समझते हैं परंतु हम कुछ मजबूर और नासमझ बन जाते है। हम उसे मांँ को भूल जाते है जिसने हमें जन्म दिया है। सच तो यहां भी एक नारी हैं। वह सास और बहू का अंतर है क्योंकि न सांस मां बन पाती है और न ही बहू बेटी बन पाती है। बस यहीं से एक मांँ का सच क्या हैं। और हम अपने परिवार तक ही रह जाते हैं।
मांँ एक ऐसी अनुभूति है जिसका नाम हम कई पवित्र नामों के साथ जोड़ते हैं। वह इसलिए क्योंकि मां का शब्द एक शब्द नहीं पवित्र उच्चारण है जिसे हम आज आधुनिक युग में भूल चुके हैं परंतु आज भी हम जहां जाते हैं तब गंगा मांँ गौ माता ऐसे नाम के संबोधन करते हैं और हम वर्ष में दो बार नवरात्रि मनाते हैं और जैसे मन नाम शब्द की महिमा तो हम सभी जानते हैं क्योंकि मांँ एक जन्मदायिनी के साथ-साथ हमारे जीवन की आध्यात्मिक गुरु भी है जो की मांँ दुर्गा मांँ सरस्वती मांँ लक्ष्मी आदि नाम से प्रचलित है और बच्चों के लिए दुखों के समय मां काली भी बन जाती है। मांँ माता जननी ऐसे नामों में भी आप और हम सोच सकते हैं। आज आधुनिक युग में मां की विडंबना देखिए जन्म देने वाली जनदायिनी आज का दुर्भाग्य की आज बच्चों से अपनी मां का बुढ़ापा नहीं संभाला जाता है। हम सभी आज एक सोच बनाएं जिस मां ने हमको जन्म दिया और हमें जीवन जीने का तरीका दिया है और अपने जीवन के सुख चैन और आराम को छोड़कर हमें चलना और अपने पैरों पर खड़ा होना सिखाया।
मांँ को हम सब आज एक बोझ समझते हैं बुढ़ापे में जबकि सभी को बचपन जवानी और बुढ़ापे से गुजरना है। हम सभी आज देश में देख रहे हैं वृद्ध आश्रम और नारी निकेतन जैसे संस्थान खुले हुए हैं सोच ले हम सभी को भी हमारी आने वाली पीढ़ी और जो पीढ़ी हमेशा संस्कार और संस्कृति देख रही है वह भी यही सीख रही है हम सभी ईश्वर और विधि की विधान को भी भूल जाते हैं। आज हम सभी आधुनिक चमक और धन संपत्ति के शोहरत में और जवानी के गुरुर में हम अपने आने वाले समय को भी भूल जाते हैं। मां जैसी पवित्र और जन्मदायिनी को हम वृद्ध आश्रम में छोड़ आते हैं। वहीं मांँ जिसने बचपन में लोरी गाकर और खुद भूखी प्यासी रहकर जिसने अपने बेटे बेटी को पालन पोषण कर अपने जीवन के लिए सुख की आशाओं के लिए हम सभी औलाद की कामना मंदिर गुरुद्वारे गिरजाघर मस्जिद पीर पैगंबर सभी से मन्नत मांगते हैं। बस हम यह नहीं जानते की यही संतान आगे चलकर हमें वृद्ध आश्रम भी छोड़ेगी। मांँ यह कहानी एक कल्पना और आधुनिक सच के आधार पर काल्पनिक है परंतु आज की दौर में ऐसा हो रहा है।
मांँ एक कहानी के रूप में हमने अपने शब्दों के साथ सभी पाठकों को हमने एक प्रार्थना भी की है कि हम सभी अपनी मांँ को मान सम्मान दे। और उसके जीवन में बुढ़ापे में सहयोग और आशाएं दें। न कि वृद्धाश्रम भेजे। बस मांँ एक जीवन है। हम सभी जीवन में आप और हम जीवन के सच के साथ जिंदगी की सांसों को भूल जाते है । आओ हम सभी अपनी मांँ साथ रहे।
नीरज अग्रवाल चंदौसी उ.प्र