पत्थरों के किनारे ओढ़ रखे है दरिया ने ,
राहगीर देखते है ,
अक्सर समझते है ,
कौन स्पर्श करे इन्हें ,
अगर ये फूट गए , तो
कौन रोकेगा उमड़ते हुए नीर को,
कौन संभालेगा इसकी पीर को ।
इसलिए राहगीर बचता है इन पत्थरों को छूने से ।
दरिया है उसे मालूम है रास्ता कैसे बनाना है ,
समंदर दूर हो कितना भी उसे ढूंढ लाना है ।
तो साथ चलो उसके
किनारो से कदम ताल करके ,
प्रेरणा मिलती है उससे तो लो ।
उसकी लय से आनंदित हो लो ,
हैरत से देखो उसे
जब वह लहरों में खूबसूरती से बहती है ।
संगीत सुनो उसके पीर का
जो सतहों पर उभरती है ।
गहरे कही बहुत गहरे
समेटे है दरिया खुद को ,
जो उसे समंदर को देना है ।
उतरना कभी उसके अंतस में
समंदरी फितरत को लिए हुए जब वो अवसाद के क्षणों में हो ,
जब प्रवाह मद्धिम हो
धार मंद हो ।
वो भी बोझिल है खुद को समेटे हुए खुद ही में ,
ये जो अभिशाप सा मिला है उसे प्रकृति का ।
बन के समंदर मिलो उसे कभी ,
सुपुर्द कर दे तुम्हे कहीं ।
हाँ पर -- समन्दरों से मिलना तो जरा डूब
के मिलना वरना मिल के डूबोगे ~~