साहित्य एक पवित्र नदी की तरह है । एक ऐसी नदी जिसमे स्नान करके मानव जीवन का वास्तविक उद्देश्य पूरा होता है । ये वो गंगा है जिसके पवित्र जल से सभ्यताएं तक पुनीत होती आयी है ।.
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साहित्य रूपी गंगा का निर्माण संभव नही है क्योंकि ये शाश्वत है सत्य है अविनाशी है , इसका स्त्रोत परिष्कृत नही किया जा सकता , ना ही इसे अवरोधित किया जा सकता है आप ना ही इसपर अधिकार जता सकते हैं ना ही इसपर किसी विशेष पंथ या भाषा के हकदार होने का दावा ही रख सकते हैं । .
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आप तो इसके जल को पावन रखने का कार्य कर सकते हैं । इस प्रक्रिया में ये आपको पोषित करेगी , आपको सभ्य बनाएगी , वो दृष्टि प्रदान करेगी कि आप के चतुर्दिक बसा समाज सदियों तक गौरवान्वित होता रहे । साहित्य के इस विशाल आयाम में मेरा आह्वान इसके प्रत्येक सेवक से मात्र यही है कि साहित्य के इस उद्देश्य को शिरोधार्य कर स्वयं के भीतर एक उम्दा इंसान निर्मित करें । .
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रामचरितमानस , भगवद्गीता आज भी गेय और प्रासंगिक इसीलिए है कि इन्होंने मानव के परम उद्देश्यों को उद्घाटित कर दिया । समाज के और मनुष्य के भीतर के विकारों को शमित कर दिया । एक आदर्श रखा व्यक्ति के लिए , एक पथ दर्शाया समाज रूपी रथ को । मानव को मानव होने की गरिमा से परिचित करवाया ।.
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साहित्यिक परिवार से होने के नाते संयोग या दुर्योग से मैंने ऐसे वातावरण को भी देखा है महसूस किया है जिसमे आजकल के तमाम तथाकथित साहित्य के पुजारी यश के लोभ में अपने भीतर के पनपते साहित्य के पौधे को दमित कर डालते हैं । उनका समूचा व्यक्तित्व उस गंगा रूपी पावन नदी को अपने आंगन में पोखर बनाने की क़वायद में प्रदूषित प्राय सा हो जाता है । मैंने उनके भीतर के मानव को मरते देखा है । और उस मरन से निकलने वाली सड़ान्ध और बदबू से जूझते वातावरण को भी तरीके से महसूस किया है ।
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विशेषकर हिंदी के संदर्भ में इसका बेड़ा गर्क इसके तथाकथित मल्लाह ही करते आये हैं । भाई भतीजावाद व्यक्तिगत दुराग्रह हिंदी समाज का स्थापित सच बनता चला गया है । इसलिए हर युग मे नागार्जुन और मुक्तिबोध आदि को हाशिये पर रखा गया । अच्छे साहित्य को प्रोत्साहित करने के बजाय दुराग्रह से उन्हें हतोत्साहित कर न केवल हिंदी का बल्कि स्वयं की भी अवनति की जाती रही है। हिंदी साहित्य स्वयं से ही इतना शक्तिशाली रहा है अपने रचनाकारों के द्वारा । लेकिन ये भी सत्य है कि कितने सारे सच्चे साहित्य को समाप्त कर दिया गया गला घोंटकर उनकी हत्या तक कर दी गयी । शायद इसीलिए अन्य जयंतियों की तरह 14 सितम्बर को हिंदी जयंती मनाकर हम अपने किये गए पापों को प्रायश्चित दे रहे होते हैं । बहरहाल ,,
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साहित्य राजनीति की पथ प्रदर्शक है , साहित्य सेवा में भी राजनीति प्रविष्ट कर जाए तो ये कितना अहित करेगी , इसे कहने की आवश्यकता है क्या ? ......
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साहित्य समर्पण मांगता है और ऐसी कोई भी धारा जिससे समाज की दशा और दिशा तय होती है वो महान समर्पण और त्याग की अपेक्षा रखती है । लिखने के क्रम में यदि ये एक बात आत्मसात कर ली जाए तो विश्वास रखिये पुनः एक रामचरितमानस रचा जाएगा , आज का मानस जो आने वाली पीढ़ियों को ना सिर्फ सच्चे पथ से साक्षात्कार कराएगा बल्कि मानव को मानव होने के असली उद्देश्यों से भी रूबरू कराएगा । .
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इस लेख के माध्यम से उन समस्त साहित्य सेनानियों से मेरी यही अपेक्षा है इसकी निस्वार्थ , निरपेक्ष सेवा कीजिये , आपको अंततः वो मिलेगा जो आपके यहाँ इस सृष्टि में होने का सबसे बड़ा सबब है ~शुभम भवतु ~