मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है ये कहते हुए अरस्तू को कोरोना जैसे "अति सामाजिक " प्राणी का ख्याल शायद रहा हो ना रहा हो लेकिन मनुष्य के सहअस्तित्व को चुनौती देता ये सूक्ष्म दानव आज एक बार फिर से भागती दौड़ती मानवीय सभ्यता को ठिठक कर सोचने को मजबूर कर रहा है । ये सोचने पर मजबूर कर रहा है कि विकास और विनाश में ध्वन्यात्मक एकरूपता कदाचित सही है । ये मजबूर कर रहा है ये सोचने पर कि मानव की लोलुप प्रवृति से कुपित प्रकृति जब तांडव रचती है तो लोग घरों में किस तरह दुबकने को विवश हो जाते हैं । ये इस तरफ भी सोचने को विवश करती है कि प्रकृति की गोद मे मनुष्य का समस्त विकास और विज्ञान महज एक आकर्षित करता खिलौना मात्र है ,जिसकी भरी हुई चाभी अपने स्थितिज ऊर्जा तक ही नृत्य कर सकती है । यह इस बात की ओर भी सोचने को विवश करती है कि प्रकृति के पास अनगिनत उपकरण है स्वयं पर आक्षेपित प्रदूषकों से निजात पाने का ।
कोरोना काल स्वयं में जैसे एक विभक्ति रेखा थी मानो , जिसने बदल दिए सारे मानदण्ड लोगो के जीवन के लोगो के जीने के । इसने यह एहसास दिलाया लोगो को कि जीवन मे वास्तव में जरूरी क्या चीज होती है । खाने में अतिरेक ,पहनने का अतिरेक या फिर घूमने का अतिरेक । कोरोना ने जैसे मानो आपकी हर गैरजरूरी चीजो को लाल कलम से रेखांकित कर दिया हो । जैसे जीवन की कॉपी को किसी तगड़े एग्जामिनर ने चेक कर लिया हो और कठिन मूल्यांकन प्रक्रिया में इस दुनियावी कक्षा के सभी विद्याथियों को बस पासिंग मार्क्स मिले हो और कुछ तो उसमे असफल भी हो गए हो । बहरहाल ये गुजरता हुआ संक्रमण अपना समापन किस बिंदु पर ले जाकर करेगा । इसको कातर नेत्रों से और कौतूहलपूर्वक मानो पूरी सभ्यता देख रही है । हम सबको भी इंतेज़ार है संक्रमण के बाद की , इस दावानल के उस पार की परिवर्तित सृष्टि से साक्षात्कार करने का ~ ऋतेश