जैविक खेती।।
मानव सभ्यता के विकास में सर्वप्रथम क्रांति खेती की खोज थी । तकरीबन दस हज़ार वर्ष पूर्व इसे नवपाषाण क्रांति के रूप में भी जाना जाता है । खेती यानी मनुष्य के मनुष्यता की गाथा । खेती यानी जानवर से इंसान बनने की कथा । खेती यानी कुछ ऐसा जिससे प्रकृति में छिपी अद्भत कुदरती शक्ति से साक्षात्कार । खेती यानी एक ऐसी कहानी जिससे न सिर्फ और सिर्फ स्वयं के लिए बल्कि अन्य दुसरों की भी जरूरतों की पूर्ति का बोध होता हो । अन्य यानी एक परिवार ,अन्य यानी एक समाज अन्य यानी समस्त पृथ्वी और यह सारा ब्रह्मण्ड भी।
मानव जीवन ने अपनी सम्पूर्ण यात्रा को कृषि के समानांतर ही बुनी और चुनी । सभ्यताएं इसी लिए नदियों के आसपास सृजित पल्लवित और अलंकृत हुई । आधुनिक काल में औद्योगिक क्रांति वो दूसरी क्रांति थी जिसने कृषि के स्वरूप में आमूल चूल परिवर्तन करने का कार्य किया । और साथ ही कृषि पर ये दबाव बना कि वो नैसर्गिक क्षमता से अधिक पैदा करें । मानवीय स्वार्थ का सर्प जब फन उठाता है तो वो सबसे पहले अपनी जननी पर ही दंश प्रहार कर बैठता है । परिणाम स्पष्ट था नवीन उत्प्रेरक के रूप में रासायनिकों का अतिशय प्रयोग । ये रासायनिक उर्वरक उसी मानवीय लिप्सा के प्रतीक की तरह रहे हैं जिसमें सब कुछ जल्दी पा लेने के शार्ट ट्रिक की जद्दोजहद आज भी दिख पड़ती है ।
उर्वरकों के अतिशय प्रयोग ने इस भूमि की उर्वरा को जैसे निचोड़ डाला । मिट्टी क्षारीय होने लगी और वायुमंडलीय चक्र में ये नाइट्रोजन ,फास्फोरस ने जैसे पूरे पर्यावरण का गणित ही गड़बड़ कर डाला । इसके अनेक दुष्प्रभाव आज मानव स्वास्थ्य पर आम हो चले हैं । ऐसी दुसाध्य बीमारियां जिनके इलाज में मेडिकल साइंस भी घुटने टेक चुका है ।ऐसे अनेक महाअसंतुलन एक लंबी और निरर्थक दूरी तय करने के बाद आज हमें समझ आ रहे हैं । तभी तो "मिट्टी बचाओ" आंदोलन का उद्घोष करता एक संत आज अशांत होकर पूरी दुनिया मे घूम रहा है ।
प्रथम हरित क्रन्ति के दुष्प्रभाव को देखकर हमने अब जैविक कृषि को एक क्रांति के रूप में चलाने का संकल्प लिया है । रासायनिकों नाइट्रोजन ,फास्फोरस और पोटाश के कम और संतुलित उपयोग की दिशा में सख्ती से बढ़ने की कवायद जारी है । जानवरों के उत्सर्जन गोबर मल मूत्र का संग्रह कर उसके कुशल उपयोग पर बल है । बायोफेर्टिलिज़र पर बल है ।पौध उर्वरकों के रूप में लोबिया , ढैंचा के प्रति कृषकों को सचेत किया जा रहा है । साथ ही कृषि उत्पादन पर दबाव कम करने के लिए मत्स्य उत्पादन जैसे विकल्पों को भी देखा जा रहा है ।,
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कोशिश जारी है कि एक लंबे समयकाल में हमने जिस प्रकार बेलगाम शोषण प्रकृति के हर उपादानों के साथ किया है उसे फिर से सही किया जा सकें । लेकिन क्या ये प्रयास काफी होंगे । क्या ये प्रयास कुछेक दिनों में संभव हो सकेंगे । उत्तर सीधा और सपाट है इतनी जल्दी तो नहीं , ठीक वैसे ,जिस प्रकार विध्वंस का तात्कालिक सुख एक लंबे समय काल तक के लिए नीरव और भयानक शांति लाता है जो मानवता को आतंकित करती है ,,तो सृजन एक लंबे समयकाल में एक दृढ़ प्रतिबद्धता के साथ किये गए समेकित कर्मों का संयोजन है ।
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कृषि का जैविक होना इस पर्यावरण में पुनः जीवन डालने की कवायद है । यह मनुष्य को मानवता के इम्तिहान में पुनः एक दर्जा ऊपर कर देने का आह्वान है । इसकी सफलता में ही हमारा ,आपका और हमारे समस्त समाज और पर्यावरण का हित निहित है ~ऋतेश