हम हिन्दी भाषियों के लिए हिंदी की एक सामान्य परिभाषा यही है कि यह हमारी अपनी भाषा है । भाषा , जो वास्तव में संस्कृति का एक अंग हैं । और संस्कृति की मजबूती और प्रसार आजकल अर्थ के पहियों पर गतिमान रहती है । मिसाल के तौर पर अमेरिकी संस्कृति महज चंद सैकड़े वर्षों ही पुरानी है ,लेकिन अपनी मजबूत हैसियत से उसने ना केवल एक विशेष प्रकार की अंग्रेजी भाषा का प्रसार किया बल्कि अपने पहनावों , टी शर्ट ,जीन्स आदि के साथ खान पान , पिज्जा बर्गर संस्कृति को भी प्रसारित किया ।
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भारत मे उदारीकरण और वैश्वीकरण से 1991 के पश्चात खुद अमेरिकन संस्कृति अंधाधुंध रूप में प्रचारित हुई । भूने हुए मक्के की बालियों को हैंडल वाला पॉपकॉर्न कहने समझने वाली पीढियां जन्म लेने लगी । और बस यही नही चीनी खान पान को भी भारतीय मसालों और पाक कौशल के रंग में रंगा हुआ देखा जा सकता है । बहरहाल, भाषा की स्वीकार्यता कई अन्य मानदंडों पर भी निर्भर करती है , जैसे अमेरिकन प्रवाहमयी अंग्रेजी ने ब्रिटिश क्लिष्ट अंग्रेजी का सरलीकरण कर इसे और लोकप्रिय बनाया ।
सार रूप में कहा जाए तो भाषा का प्रसार आपके देश के विकासवादी पक्ष से गहरे से संबंधित है । आप स्वयं को मजबूत कीजिये विश्व आगे बढ़कर आपकी हर संपदा का सम्मान करेगा और अपनाएगा भी । विश्व योग दिवस हो या विश्व अहिंसा दिवस संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा अपनाया जाना ,और विभिन्न देशों में हिंदी का प्रसार इसी दिशा की ओर एक प्रयास है ।
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बावजूद इसके भारतीय संदर्भ में इसे औपचारिक राजभाषा का दर्जा मिलना और राष्ट्रभाषा रूप में हृदय में स्थापित ना होने का एक अलग मसला है । जिसे भारतीय विविधता के अलग अलग तत्वों के संरक्षण और स्वैच्छिक राष्ट्रवाद को बनाये रखने के अंतर्गत देखा जाना चाहिए । भाषा का सौंदर्य इसकी नैसर्गिकता है । वास्तव में इसका सौंदर्यीकरण किसी तालाब के कृत्रिम सजावट में न होकर बहती नदी के सौंदर्य सरीखा होना चाहिए । जिसमें गंगा की पावन धारा के साथ साथ सरयू , चम्बल और सोन की सुंदरता भी प्रवाहमयी और कायम बनी रहे ।
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अंततः हिंदी को मजबूत और ग्राह्य होना होगा, इतना मजबूत कि ये एक ओर तो अन्य वैदेशिक भाषायी चुनौतियों का सामना कर सके तो दूसरी ओर प्रादेशिक भाषाओं से एक संश्लेषण स्थापित कर सके । जिससे प्रादेशिकता का भी अपना एक गौरव बना रहे और हिंदी की बिंदी भी भारत के मस्तक पर ओजमयी बनकर चमकती रहे ~ऋतेश