अवैध निर्माण ~
निर्माण एक रचनात्मक प्रक्रिया है । घर का निर्माण , भवन का निर्माण , सृष्टि का निर्माण हो या व्यक्तित्व का निर्माण । नींव से लेकर अपनी परिणति प्राप्त करने तक यह एक वृहद कर्मयज्ञ का आयोजन है । बावजूद इसके यदि इस निर्मिति को विधानों के अंतर्गत ना किया जाए तो यह अवैधता की श्रेणी में आ जाती है और अवैधता हर उस समाज मे त्याज्य है जिसका अभीष्ट दीर्घगामी होना हो ।
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स्मरण में आ रही है दरजा 6 की वो अंग्रेजी की पाठ्य पुस्तक की कथा, उसमें एक लड़का छड़ी घुमाते हुए जा रहा था और सामने से आ रहे बूढ़े व्यक्ति के नाक पर दे मारता है । बूढ़े व्यक्ति के विरोध पर उस लड़के ने कहा कि "यह हमारा अधिकार है, मैं कुछ भी कर सकता हूं "तब जो प्रतिउत्तर आया वह बहुत मायने रखता है, उत्तर था कि "तुम्हारे अधिकार और तुम्हारी स्वतंत्रता की मियाद वही तक है जहां से मेरी नाक शुरू होती है। " आज हर कोई अपनी मजबूत हुई छड़ी को दूसरे पर भांजने को आमादा है । समाचार पत्रों से लेकर कोर्ट कचहरियों में ये आम बात है , बगल वाले चाचा ने अवसर पाकर दूसरे की जमीन में बारजा निकाल दिया तो क्षेत्र के किसी रसूख वाले ने किसी कमज़ोर की इकलौती जमीन पर अवैध मकान ही बना लिया । न्याय और प्रशासन की गुहार लगाते ऐसे अनगिनत कमजोर लोग सत्ता और व्यवस्था में अपना विश्वास खो बैठते हैं । और जिनकी चप्पलें न्याय पाने की उम्मीद में घिसी जा रही हो उनसे एक सच्चा देशभक्त और सच्ची मानवीयता की उम्मीद भी करना बेमानी बात होगी ।
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"कुदरत सभी व्यक्तियों की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए पर्याप्त दे सकती है किन्तु उनके लालच की पूर्ति के लिये नही।" गांधी जी का ये कथन आज के वक़्त में नैतिकता की धूरी है । विकास की अंधड़ में मनुष्य ने प्रकृति को इस पृथ्वी को और जहां बन सका वहां सभी को इतना नोचा और खसोटा कि आज उसे शुद्ध पानी और शुद्ध हवा जैसी चीजों के लिए मूल्य चुकाना पड़ रहा है । जंगल पृथ्वी के फेफड़ों की तरह सफाई करते रहे हैं । जंगलो के गर्भ में घुसकर मानव ने हर अवैध निर्माण के द्वारा उन जीवनदायी गर्भनालों को क्षतिग्रस्त कर डाला । पहाड़ों पर नदियों में और यहां तक की समंदरों में भी इंसानी अतिक्रमण जारी रहा , और आज हमें UNEP, UNCLOS, जैसे संगठनों और कोप ,मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल जैसे नियामकों की आवश्यकता पड़ रही है ।
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बर्चस्वता, अतिक्रमण और दूसरों को नीचा कर, हेय दिखाकर स्वयं को तुलनात्मक रूप में शक्तिशाली दिखाना गोया मानुष समुदाय को दिया गया अभिशाप हो । घर परिवार, गाँव मोहल्लों से बढ़कर ये राष्ट्रों में भी अभिशप्त है । यूरोपीय राष्ट्रों के इन्हीं अतिक्रमणों और अवैध निर्माणों और विध्वंसों से पूरा विश्व इतिहास लबरेज हैं तो भारत भी चीन और पाकिस्तान के ऐसे ही मंशूबों से दो चार होता रहा है । चीन का आज़ादी के बाद से ही अरुणाचल से लेकर लद्दाख तक में ये प्रवृत्ति जारी है , थल तो थल उसने भारतीय जल में भी अवैध घुसपैठ कर डाली । हिंदुस्तान के हिन्द महासागर में चारों ओर उसने भारत को घेरने की भरसक कोशिश की है । अवैधता को भी वैधता का जामा पहनाकर ऐसी घुसपैठी प्रवृत्तियों का इलाज क्या कुछ करके किया जा सकता है !!!
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काम-क्रोध-मद-लोभ ये चतुर्विकार प्रत्येक अज्ञान, अंधकार और अहंकार के हेतुक हैं , और यही चारो विकार कारक है हर विधान के उल्लंघन के लिए भी। ये विकार न केवल मानव के स्तर पर बल्कि उसके द्वारा निर्मित लघु से वृहद हर समाज मे मौजूद हैं । और ऐसे प्रत्येक विकार की अंतिम परिणति विध्वंस ही है , चाहे वो मानवीय विधान के अंतर्गत हो या कुदरती विधान के अन्तर्गत । इस बात की तसल्ली करने के लिए आप प्रकृति के हर उस संतुलन को याद कीजिये जो बाढ़ हो सूखा हो भूकम्प हो या सुनामी के रूप में मनुष्य को ये याद दिलाती है कि निर्माण सहचारी ही होना चाहिये । नियमों से बाहर जाना एक ऐसा प्रदूषक है जिसका फिल्टरेशन प्रकृति या हर वो नियामक संस्था करेगी जिसके संविधान का जिसके कानून का उल्लंघन हुआ होगा । "सर्वे भवन्तु सुखिनः" के आदर्श को पाने के लिए "शठे शाठयम समाचरेत" का अनुपालन वर्तमान की आवश्यकता है ।अब वो चाहे किसी कुदरती जलजले से बन पड़े या फिर प्रशासनिक बुलडोज़र चलाने से बन पड़े ~