जल संरक्षण ।
क्षिति जल पावक गगन समीरा अर्थात पंच महाभूत । ये वो पांच तत्व है जिनसे न केवल मानव शरीर निर्मित होता है बल्कि किरदार के खत्म होने पर इन्हीं पंच तत्वों में हम सुपुर्द भी हो जाते हैं ।
भारतीय चिंतन परम्परा में इन पांचों तत्वों के समन्वय से ही मनुष्य और मानव जीवन की संकल्पना रची गयी हैं । आज के समय में ये कितना प्रासंगिक है इसका भान हमें तब होता है जब वैश्विक स्तर पर पर्यावरण संरक्षण को लेकर हाय तौबा मची हुई है । इसे विडम्बना कहिये या संयोग या फिर कोई टोना जोग (😊) , अभी तक की ज्ञात जानकारी में इस विशाल ब्रहांड के कण बराबर पृथ्वी में ही केवल और केवल जल की पर्याप्त संभावनायें मौजूद है , जी हां वो जल जिसकी उपयोगिता तक को हम बिना सूखे से झुलसती फसलों, बिना वाटर सप्लाई बंद हुए घर की दशा या थार और सहारा जैसे मरुथलो में मटकों में पानी खोजते लोगो को देखे बगैर समझ ही नहीं पाते । आज की चर्चा हम जल की उपयोगिता , उसके हो रहे दुरुपयोग और उसके संरक्षण के संभावित उपायों की ओर करेंगे ।
"जल ही जीवन है " जरा सोचिए मानव और मानव निर्मित समाज को , जिन्होंने सभ्यताओं का पालन किया और जिस प्रकार उसमें पोषित हुए वो बिना बहती सदनीराओं के सम्भव भी था क्या ? सिंधु ने अपने गर्भ में हड़प्पा की सभ्यता तो गंगा ने महान मगध साम्राज्य को सृजित किया, एशिया के पश्चिम की जो बुनियाद मेसोपोटामिया ने रखी वो बिना दजला फ़रात दरियाओं के सम्भव भी नही थी । अन्न से लेकर व्यापार तक, संस्कृति से लेकर धार्मिक अनुष्ठान, शिल्प से लेकर व्यक्तिगत सौन्दर्य सब चीजों में जल ऐसे ही घुल मिल गया जैसे यही उसकी नियति हो , इंद्रजीत सिंह ने क्या खूब लिखा भी "पानी रे पानी तेरा रंग कैसा
जिस रंग में मिला दो उस रंग जैसा
वैसे तो हर रंग में तेरा
जलवा रंग जमाए
जब तू फिरे उम्मीदों पर तेरा
रंग समझ ना आए
कली खिले तो झट आ जाए
पतझड़ का पैगाम
पानी रे पानी तेरा रंग कैसा
सौ साल जीने की उम्मीदों जैसा"
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"बिन पानी सब सून"
जल ने वो सब सिंचित किया जिसकी मनुष्यता को दरकार थी, खेत तृप्त हुए अन्न फूट पड़े, लोग तृप्त हुए । जल ने सौंदर्यता का बोध दिया, झीलें , पोखर, ताल ,नदियां और समंदर तक रच डालें । वो सब दिया उस जननी की तरह जिसकी दरकार थी मानवीयता को , बस नही दे पायी तो सभ्यताओं को अपना गुण कि निस्वार्थता ही प्रकृति है । और स्वार्थ जैसे प्रकृति का मनुष्यता को दिया गया सबसे बड़ा अभिशाप है , जल के दुरुपयोग , उसका प्रदूषण , उसके प्रवाह को बांधना जैसे तमाम वो कृत्य जो मनुष्यता को अपना सामर्थ्य प्रतीत होता है वास्तव में वो उस कुल्हाड़ी की चोट सरीखी थी जिसकी डाली पर वो बैठा था । तमाम पुरातन सभ्यताओं का पतन बाढ़ ,सूखा जैसे जल असंतुलन कारणों से ही हुआ ।
"जल है तो कल है"
याद आ रही हैं भारत के रत्न पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी की वो अभिलेखीय पंक्तियाँ , ‘ध्यान रहे कि आग पानी में भी लगती है और कोई आश्चर्य नहीं कि अगला विश्वयुद्ध पानी के मसले पर हो.’ इंसान की फितरत ही ऐसी है कि वो हर उस चीज की तरफ तक नही दौड़ता जब तक कि उसकी उपलब्धता कम ना हो जाये, सोने ,चांदी और ऐसी तमाम कीमती चीजों की कीमत और आकर्षण ही इसी मनोविज्ञान पर टिके हैं । आज चाहे भारत हो या अफ्रीकी देश या फिर अमेरिका जैसे देश में भी पानी की कमी से जलसंकट गहराने लगा है. दरअसल, एक बार तेल के बिना ज़िंदगी चल सकती है लेकिन पानी के बिना नहीं. जब सवाल अस्तित्व का आ जाए तब जाहिर तौर पर जिंदगी की जंग लड़ने के लिए पानी पर युद्ध का फैसला कोई भी ताकतवर देश करने से हिचकेगा नहीं। सभ्यताओं और समाजों ने स्वयं के अस्तित्व के लिए ही सबसे हिंसक नरसंहार किये हैं, इतिहास इसका गवाह है ।
"पानी पृथ्वी का खून है इसे यूं ना बहाये"
रोजमर्रा की तमाम क्रियाओं में जाने अनजाने जल का दुरुपयोग होता ही जाता हैं, कभी नल का टैब खोलकर तो कभी गुणवत्ता वाले पेय योग्य जल का अन्य चीजों में दुरुपयोग करके । यहां तक कि उत्तर भारत मे ट्यूबवेल के द्वारा फसलों की सिंचाई में जल का अतिरेक उपयोग भी एक सामान्य सी बात है , साथ ही आधुनिकता की अंधदौड़ में पारंपरिक गांव की धरोहर पोखरे, गड़ही , तालाब , बागों को जिस तरह समूल समाप्त कर दिया जा रहा है उस पर भी सोचने की आवश्यकता है , हाल ही में इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ बेंच ने एक मुकदमें में फैसला देते हुए कहा है कि तालाब, पोखर, गड़ही, नदी, नहर, पर्वत, जंगल और पहाड़ियों आदि सभी जलस्रोत पारिस्थितिकी संतुलन बनाए रखते हैं। इसलिये पारिस्थितिकी संकटों से उबरने और स्वस्थ पर्यावरण के लिये इन प्राकृतिक देनों की सुरक्षा करना आवश्यक है ताकि सभी संविधान के अनुच्छेद 21 द्वारा दिए गए अधिकारों का आनंद ले सकें ।
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इसके अलावा बारिश के जल का निर्रथक होकर पुनः जल चक्र में चले जाना भी एक चुनौती है जिससे निबटने के लिए व्यक्तिगत, सरकारी और सामूहिक प्रयास जरूरी हैं । दक्षिण भारतीय राज्यों में जल संरक्षण के लिए छतों पर जल भंडारण हेतु किये जा रहे प्रयास अनुकरणीय हैं । फसलों की सिंचाई के लिए इजरायली ड्रिप इरिगेशन से जल की कम से कम खपत में बेहतर परिणाम प्राप्त हो सकेंगें ।
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और इन सबसे ऊपर जल की उस आध्यत्मिकता को समझने की आवश्यकता है, उसकी उपयोगिता को समझना जरूरी है , और ये समझ इसलिए भी जरूरी है कि पानी, मिट्टी ,हवा कुछ ऐसे मौलिक चीजें जिनका दूषित होना, कम होना और उनका बिल्कुल ही ना होना कुछ ऐसे अनचाहे ,अवांछित परिस्थितयां है जिसकी कल्पना मात्र से जैसे जीवन अपाहिज जान पड़ने लगता है । भगवद्गीता में योगेश्वर कृष्ण स्वयं के विराट रूप को बतलाते हुए "स्त्रोतस्मिम जान्हवी " के द्वारा खुद को जान्हवी भी कह रहे होते हैं । इन मायनों में जल का ईश्वरीय गुण तो प्रगट है ही ।
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शेष पानी के बारे में कुछ भी लिखना पानी पानी कर देना नहीं बल्कि पानी पानी हो जाना ही है , रहीम की ये पंक्तियां वाकई लाज़मी हैं -
रहिमन पानी राखिये, बिनु पानी सब सून।
पानी गए न ऊबरै, मोती, मानुष, चून~~