जब भी जलवायु परिवर्तन की बात होती है । ना जाने कहाँ से उस विशाल अजगर की कहानी ज़ेहन में तैरने लगती है ,जो इतना विशाल था जितना स्वयं में एक टापू हो। जिसकी सुषुप्त अवस्था में उसके तन पर हरे भरे मैदान को देखकर एक बंजारा समूह निवसित हो चला । इस जनसमूह को अपने पृष्ठ पर आश्रय देकर मानो उस विशाल भुजंग ने एक मूक स्वीकृति दे दी । लेकिन जब उसकी काया का अत्याधिक दोहन होने लगा और जगह जगह उसकी त्वचा को कुरेदा और जलाया जाने लगा तो विकल होकर अंततः अजगर ने करवट ली । समस्त शोषण और दोहन का गोया संतुलन हो गया, और एक लघु विकसित हो रही सभ्यता काल कवलित हो गयी । इस कहानी का अजगर जहां प्रकृति का प्रतिमान है वहीं वो समूह पूरी मानव सभ्यता को प्रतिविम्बित करती है ।
वैश्विक जलवायु परिवर्तन यद्यपि प्रकृति की संतुलनकारी प्रवृत्ति की एक परिघटना रही है बावजूद इसके मानवीय सभ्यता और उसके छद्म विकासनिय गतिविधियों से यह प्रक्रिया तीव्रतर हो चली है । कार्बन उत्सर्जन ,ग्रीन हाउस गैसों के रूप में क्लोरो फ्लोरो कार्बन हो ,मीथेन हो , इन जैसे तमाम उत्सर्जन से पृथ्वी के सामान्य तापमान को बढ़ाकर वो ज्वर दे दिया है जिसे जलवायु परिवर्तन कहा जा रहा है । और प्रकृति रूपी जननी का ये ज्वर स्वाभाविक रूप में उसके कोख में पल रही सभ्यताओं को भी कष्ट दे रहा है ।
तापमान में हो रही वृद्धि से ग्लेशियरों का तेजी से पिघलना जहां जलस्तर को अस्वाभाविक रूप से बढ़ा रहा है , कितने द्वीपसमूह विशाल पयोधि के गर्भ में समा गए तो दूसरी ओर 2 सेंटीग्रेड तक बढ़ा पृथ्वी का वायुमण्डल न जाने कितनी असंख्य पशु पक्षी ,पौधों की प्रजातियों को विलुप्त करने का सबब बनता जा रहा है ।
जाहिर सी बात है विश्व समुदाय इस पर चिंतित है , पृथ्वी सम्मेलनों से लेकर क्योटो प्रोटोकॉल, मोंट्रियल प्रोटोकॉल और कोप सम्मेलनों के मार्फत कॉर्बन कटौती पर सहमति की आजमाइशें प्रायः समाचारों की सुर्खियों में रहती है । बावजूद इसके "मैं नही तू" की तर्ज़ पर ये वार्ताएँ बेअसर प्राय ही मालूम पड़ती है । किसी ठोस परिणाम की बाट अभी भी ये मंच जोह रहे हैं ।
भारतीय सभ्यता में शुरुआत से ही प्रकृति की महत्ता को समझा और सहेजा जाता रहा है । प्रकृति की पूजा आर्यों की उपासना का केंद्रीय तत्व रहा है । भगवद्गीता में श्रीकृष्ण स्वयं को प्रकृति के प्रत्येक घटक में सर्वश्रेस्ठ बताकर जैसे जैव विविधता और प्रकृति संतुलन का पाठ ही सिखा रहे थे । "" स्थिर वस्तुओं में मैं हिमालय, जानवरों में मैं सिंह, नदियों में जान्ह्वी, वृक्षों में पीपल हूँ आदि आदि ।""
पाश्चात्य प्रभावों से इतर यदि देखा जाए तो भारतीय रहन सहन, पूजा पद्धति, पहनावा, त्योहार सभी प्रकृति के अभिन्न सहचर रहे हैं । यहां आज भी हमारे पूर्वजो के अभिलक्षण आदिवासी सभ्यता और उनके मानकों में दिखलाई पड़ते हैं । विश्व को हमे अपना गुरु इन्ही मायनों में स्वीकारा जाना चाहिए । प्रकृति के अजगर रूपी उस स्वरूप से हमने अपने अनुभवों और चिंतन से साक्षात्कार सदियों पूर्व ही कर लिया था । शायद इसीलिए जलवायु परिवर्तन के विमर्श में तमाम मंचों पर भारत नैतिक गुरु के रूप में उपस्थित रहता है । इस गौरव इस गरिमा को हम भारतवासियों को सहेजना और व्यवहृत करना ही होगा~