मानव एक संसाधन है । एक ऐसी पूंजी जिसके हाथों ने सदियों से इस सृष्टि को अथक रूप से निरंतर गढ़ा है । सृजन से लेकर विनाश तक अनेकों बार सृष्टि के खेल को देखते ,समझते और सहेजते मानव ने आज वो मुकाम हासिल किया है जिसे हम मानव सभ्यता के सबसे सबलतम कालखंड के रूप में मान सकते हैं ,
सवाल ये है कि इन उपलब्धियों को क्या अनायाश ही प्राप्त कर लिया गया , वो कौन से हाथ थे जिन्होंने आग ,खेती ,पहिये,कंप्यूटर्स, बिजली जैसी सुविधाओं को न सिर्फ खोजा बल्कि उन्हें ऐसी कुशलता से बरता कि आज मानव के मनुष्यत्व की भूमिका उसके इंसानियत के किरदार पर न केवल अपने आस पास पड़ोस और समाज की जिम्मेवारी है बल्कि कदाचित वो पर्यावरण और इस क़ायनात के संचालन में भी एक सक्रिय सहभागिता के लिए विमर्शशील है । बावजूद इसके कि ये कौशल ये ज्ञान और मानव के मनुष्यत्व तक की यात्रा अभी तक सभी को समान रूप से नसीब नही हुई है ।
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यही कारण है कि यूरोप और अन्य विकसित देशों के जन संसाधनों की तुलना में तीसरी दुनिया के लोग न ही उतने कौशलयुक्त हो पाए हैं और ना ही उनसे एक विश्व नागरिक हो पाने की बेमानी उम्मीद रखी जानी चाहिए । नतीजतन तमाम वैश्विक मानकों जैसे "ह्यूमन कैपिटल इन्डेक्स" से लेकर "मानव विकास सूचकांक" तक के पैरामीटर्स में सबसे ऊपर स्वीडन, नार्वे, अमेरिका आदि विकसित देश रहते हैं तो सबसे नीचे अफ्रीकी और एशियाई देश । इसकी वजह ऐतिहासिक औपनिवेशिक शोषण तो रहा है है साथ ही आज भी ये मानसिकता नए रूप में नवउपनिवेशवाद के रूप में कही न कही काबिज है, बहरहाल विश्व के दूसरे सबसे बड़ी जनसंख्या वाले देश के रूप में भारत आज की तारीख में क्या स्थिति रखता है इसकी पड़ताल का एक प्रयास,,
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2011 के जनांकिकीय आकड़ो के अनुसार सवा अरब की जनसंख्या और वर्तमान में तकरीबन विश्व की सबसे बड़ी आबादी वाले देश के रूप में जनसंख्या भारत के लिए एक चुनौती रही है । इतनी बड़ी जनसंख्या के खाद्य प्रबंधन से लेकर शिक्षा ,स्वास्थ्य जैसी मूलभूत सुविधाओं को प्रदान करना एक विकासोन्मुखी देश के लिए निश्चय ही संघर्षपूर्ण रहा है , यही नही पिछले कई दशकों से जब मानव विकास को मापने वाले तमाम वैश्विक पैरामीटर भूख, स्वास्थ्य ,शिक्षा, महिला सशक्तिकरण ,रोजगार की स्केल पर भारत को सबसे निचले पायदान पर रखते हैं तो विश्वगुरू , और सोने की चिड़िया का हमारा संबोधन हमें ही जैसे मुंह चिढ़ा रहा होता है , बावजूद इसके चुनौतियों को स्वीकारने और उससे लड़कर उसे पटखनी देने की हमारी प्रवृत्ति ही हमारी पहचान रही है । हज़ारो सालो की संस्कृति का निचोड़ है हमारी अदम्य जिजीविषा ।
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कोल्ड ड्रिंक ड्यू के विज्ञापन में "डर के आगे जीत है" का स्लोगन अनायास ही नही हिट करता , हमने सीखा है खतरों में से संभावनाओं को खोजना। जनसंख्या की चुनौती को एक बड़े संसाधन के रूप में बदलने की जिम्मेदारी हमने उठायी है । समावेशी विकास के सिद्धांत के द्वारा हमने ये सुनिश्चित करने की कोशिश की है कि न केवल देश अपने कमजोर और हाशिये पर पहुँच रहे अंतिम व्यक्ति तक सुविधाओं को पहुंचाए बल्कि उन्हें एक ऐसे संसाधन के रूप में तब्दील करें जो एक से अनेक होकर देश निर्माण में भागीदार बन सकें , उनके कौशल, स्वास्थ्य , पोषण और शिक्षा के द्वारा उन्हें एक मानवीय पूंजी के रूप में निर्मित किया जा सकें ।,
ये कोशिशें मनरेगा से लेकर मेक इन इंडिया , आत्मनिर्भर भारत , राष्ट्रीय कौशल विकास कार्यक्रम हर उस पहल में आपको दिखती मिलेंगी , किसान से लेकर मजदूर , खरीददार से लेकर विक्रेता सभी के मनोबल को ऊंचा कर उत्तरदायी बनाने की तरफ हम बढ़ रहे हैं । ऐसा करना न केवल हमारी सांस्कृतिक विरासत के त्वरण के लिए जरूरी है बल्कि वर्तमान वैश्विक कूटनीति में स्वयं को स्थापित करने के दृष्टिगत भी अपरिहार्य है । एक मजबूत राष्ट्र के रूप में आप की हर मंचो पर उपयोगिता बनी रहे और आपको सुना जाए इसके लिए आवश्यक है कि आपका हर राष्ट्रवासी मजबूत बने । मानवीय पूंजी की सार्थकता इसी में हैं ~~~