इक शब गुजर गई फिर से उसकी प्यास से हारकर , गुम गए कुछ सितारे जो यूँ ही उग आए थे रेगिस्तानी आकाश पर गैर मापे पूरे दिन को , इक उम्मीद बुझ गयी फिर से संभावनाओं की गोद में मुँह छिपाकर । .
इक गम फिर से अधूरा रह गया कुछ मतलों व शेरों को बुनकर । कोई साज़ सजकर भी गाया नहीं गया । इक सिकंदर फिर ना लौट सका अपनी उस मंजिल पर जहां उसे लौटकर जाना था । .
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इक चंद्रगुप्त पुनः चक्रवर्ती बने जाने से थोड़ा सा चूक गया । इक सभ्यता बनते बनते खत्म हो गयी ,जहां उसे एक परिपक्व संस्कृति में तब्दील हो जाना था । इक रिश्ता फिर टूट गया किश्तों में कर कर के ,कोई फिर से तन्हा रह गया जाने कितनी महफिलों को सजाकर । कोई फिर रूठ गया मानों जिंदगी भर के लिए ।
सारा आलम उदास हुआ है और सुबह मानो बेरंग । ना रास्ता है ,ना ही अब दिन बचा है सूरज तक पहुंचने को ही । उसे फिर एक रात काटनी होगी ,काली स्याह रात जो ना जाने कितनी कालिख समाए होगी इस बार ~ऋतेश