इंतेज़ार एक ऐसा लफ्ज़
जिसमें समूचा जीवन
अंगड़ाई ले सकता है ।
कायनात की हर शय मानो
किसी के इंतेज़ार में ही है ।
बच्चा जवान होने के इंतेज़ार में
तो कोई फिर से
बच्चा होने की चाह रखता है ●●
●●भंवरे को फूल के आमंत्रण का इंतेज़ार तो फूल को कांटे के आवरण का इंतेज़ार । इंतेज़ार में ही चांद पूरा दिन काटता है तो सूरज पूरी रात । एक शायर एक कवि अपनी तमाम उम्र उस एक शेर अपनी उस रचना के वास्ते गुजार देता है जिसको कहने की तड़प अपने भीतर पालकर जीने को अभिशप्त है वो मानो ●●
●●प्रतीक्षारत हैं वो महात्मा भी जो स्वयं बुद्ध तो हो गए पर जिन्हें इस दुनियावी आतप का भान हो चला था जैसे और अपनी दिव्यदृष्टि को जन जन से समेकित कर वो एक दुखमुक्त विश्व की परिकल्पना साध रहे थे। मुझे बाट जोहते कबीर याद आते है जिन्हें अपने उस समतावादी समाज के सपने को साकार होते देखना था । असी घाट पर बैठा वो संत भी तो जाने किस रामराज्य को साधने के लिए चौपाइयों और दोहों सोरठों को गुनता बुनता जा रहा है अभी तक । राजघाट से बापू के स्वरों "वैष्णव जन तो तेने कहिये जो पीर पराई जानिए" में वही इंतेज़ार तो बावस्ता है । आज़ाद की आज़ादी , सरदार का इंकलाब , सुभाष की जय एक पैरों पर साधनारत है उस अभीष्ट को घटित होते हुए देखने की जिसके लिए उनकी चेतनाएँ मानो संकल्पित हुई थी ●●
●●सुनो तुम ! मुझे भी इंतेज़ार है अपने भीतर के बुद्ध को विस्तार देने का , मैं भी संकल्पित होना चाहता हूं गांधी, सुभाष , भगत और आज़ाद की तरह । मेरे भीतर के कबीर और तुलसी भी आकंठ होना चाहते है अपनी कुंठा तोड़कर । ये महती जिम्मेवारी तुम्हारी है कि मेरे सृजन को नवीन आयाम दो मेरी चेतना को उसके उत्कर्ष का स्पर्श दो , शायद तभी अधूरेपन का हमारा सांझा अभिशाप निवारित होगा ~