गांव जाता हूँ तो टुकड़ा टुकड़ा हो जाता हूँ , गाँव यानि जड़ें , जहां जीवन बसता है , जहां से प्राण तत्व निकलता है मानो , हालांकि जड़ों की शुष्क कठोरता भी एक अदद सच्चाई है , जड़ों तक पहुचने की बेचैनी अक्सर पत्तियों से मिले कोमल एहसासों को चकनाचूर कर देती हैं ,इस कशमकश में ऊपर की मखमली सजावटी परतें छिल जाती हैं , और सही मायनों में मैं जैसा कोई वहां से टूटकर ही सही जमीन का इंसान होकर निकलता है~