रिश्ता ! क्या होता है ये रिश्ता और इनके मायने क्या होते हैं ? कौन देता है इन्हें मां बाप ,भाई बहन और ऐसे अनेकों नाम, साथ ही इनमे जन्म लेती और पल्लवित होती भावनाएं और एक अपनत्व को जतलाता हुआ अख्तियार ! क्या कोई विधान है जो इन रिश्तों को नाम दे सकता है ? जी नहीं ! ये रिश्तें सच मानिये तो कुदरती सरोकारों से ही जनित होते हैं । किसी शिशु को अपने गर्भ में धारण करती एक मां ही वास्तविक विधाता हो सकती है , बजाय कि उन विधानों के जिंससे ये निर्धारित किया जाए कि मां की कोख से निःसृत वो नवजात किस का अंश है । निःसंदेह वो अंश होगा उस प्रसूता का ही , जिसने उसे ना केवल अपने जीवन के सबसे कीमती नौ महीने दिए हैं बल्कि उन समस्त सकारात्मक ऊर्जाओं से आप्लावित भी किया है जो इस धरा पर हो सकती है । इन्हीं खूबसूरत से एहसासों को लेकर आगे बढ़ती और ना जाने कितनी इंसानियत की और सुंदर मिसालों को मुकम्मल करती कहानी है फ़िल्म मिमी की ।
वैज्ञानिक विकास और नैतिकता का ह्रास कोई नवीन समस्या नही हैं । सदियों से मानवीय विकास की यात्रा में यह आजमाइश जारी रही है । नए विचार पुराने विश्वासों और रुढिगत सोच के खंडहरों पर नया निर्माण तो करते ही आये हैं, बजाय इसके नही बदली है तो सिर्फ मानवीय मूल्यों की बुनियाद । सरोगेसी , पौधों और जानवरों में नस्ल सुधार , मानव क्लोनिंग , इथोनेसिया और ना जाने ऐसे कितने मुद्दे हैं जिसे मशीनी सोच से दूर रखने की क़वायद रही है । जो मानव द्वारा ही निर्मित विधानों पर कुदरती विधानों और मानवीय एहसासों को सर्वोपरि साबित करते रहे हैं ।
सरोगेसी पर न्यायालयों में लंबित मामले और जी एम फसलों और इस जैसे तमाम मशीनी सोच पर रखा गया नियंत्रण इसकी बानगी है ।
मिमी कहानी है एक मां की संवेदना की , एक ऐसी संवेदना जो किसी भी मानव निर्मित संस्थान की मोहताज़ नही है । किराये की कोख देने के लिए तैयार हुई मिमी ने कभी भी ये नही सोचा था कि इन नौ महीनों में वो जिन चीजों से रूबरू होगी वो तमाम दुनियावी करतबों से अलहदा चीज होगी । कुदरती व्यवस्था में इसे मां होना बताया गया है , और इस बात को बहुत खूबसूरती से इस चलचित्र में दर्शाया भी गया है । साथ ही ये भी कि एक बच्चे की पैदाइश महज शुक्राणुओं और अंडाणुओं के मेल से ही सृजित नही होता , इस ख़ालिस वैज्ञानिक सोच को ख़ारिज करती ये कहानी इस बात को मजबूती से रखती है कि स्नेहिल सरोकारों , इंसानी ज़ज़्बातों से ही एक रिश्ता क़ायम होता है ।व्यवस्था के स्थापना की प्रक्रिया में उसकी निगहबानी में एक दूसरे से आगे बढ़ने की जद्दोजहद में प्रायः इंसान कब मशीनी होने लगता है उसे मालूम तक नही होता । कि कब एक कलाकार जिसने मानव होने के लिए ही जिस कला का चुनाव किया होगा , वह केविन कार्टर की तरह उस काल कवलित अफ्रीकन बच्चे की तस्वीर खींचकर जिस प्रसिद्धि को हासिल कर लिया गोया उसी कृत्य ने एक उम्दा इंसान और एक बेहतरीन कलाकार की मौत की बुनियाद भी निर्मित कर दी हो ।
बहरहाल फ़िल्म की मानवीय संवेदना को यहां रखना ही उद्देश्य था , वही संवेदना जिससे हम आप और ये समाज सभ्य से सभ्यतम होने का दम्भ भरता है । और इन संवेदनाओं में माँ बनने की प्रक्रिया निःसंदेह सभी मे सर्वोत्तम है । यहां अंततः किसी चर्चित फिल्म का वो समीचीन और सार्थक संवाद बरबस याद हो आता है - "दुनिया की सबसे बड़ी योद्धा एक माँ ही होती है " , सभी माताओं को नमन ! ~