नारीवाद~
एक इंसान के तौर पर जब हम इस धरती पर आते है तो सबसे पहला सानिध्य जिससे होता है वो एक नारी है, एक बुभुक्षु के तौर पर हमें कराई गयी पहली क्षुधा पूर्ति का माध्यम एक नारी होती है , और तो और हमारे समझदार और परिपक्व अवस्था मे पहुंचने या पंहुचाये जाने का आधार एक नारी ही होती है । हमारे ग्रंथो , शास्त्रों और ऋचाओं तक में नारी को शब्द दर शब्द, हरफ़ दर हरफ़ "नारी तू नारायणी" , "देवी" और महत्तम अलंकारों से विभूषित किया गया है ।गार्गी , अपाला, घोषा जैसी अनेक विदुषियों से हमारी प्राचीनता समृद्ध और गौरवशाली भी रही है ,
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आधुनिकता की इस अंधदौड़ मे भी "हर सफल इंसान के पीछे एक नारी का हाथ" जैसे जुमले आम हैं , इस पूरे नैरेटिव में ही केंद्र में इंसान के तौर पर एक पुरुष को रखा जाना और नारी को उसकी प्रेरणा , आराध्या, देवी ,सहयोगी या सहायिका की भूमिका देना वर्तमान "जेंडर ईनेकुलिटी" की समस्या का वास्तविक आधार है ।,
समझने की बात ये है कि कुदरत ने स्त्री और पुरुष को एक दूसरे के सम्पूरक और सहचारी के रूप में सृजित किया । पत्थर और फूल दोनों ही एक समेकित जीवन के लिए कितने आवश्यक हैं सभी जानते हैं । इस तर्ज़ पर ही बल यदि पुरुष को दिया तो करुणा , सहिष्णुता और सौंदर्य बोध स्त्री को । लेकिन सभ्यता के विकास के क्रम में पत्थर ने फूल की अवहेलना , बल ने करुणा पर बर्चस्व ,और पुरुष ने स्त्री पर अधिकार जिस तरह से किया है उसी का परिणाम है कि आज सारी बुराइयों , मसलन भ्रूण हत्या, लैंगिक शोषण, दहेज जैसे अभिशापों से पूरा समाज अभिशप्त है ।
संतुलन एक अवश्यम्भावी और अपरिहार्य प्रक्रिया है । किसी भी असमानता , अनैतिकता का परिहार और उसका संतुलन प्रकृति का अटल नियम है । सदियों से परतंत्रता को झेल रही आधी आबादी की अपने अधिकारों की लड़ाई आज की समस्या भर नही हैं बल्कि विश्व के तथाकथित विकसित हो चुके देशों में भी ये कुछेक दशकों में ही ज्वलंत हुए हैं ।
फ्रांसीसी नारीवादी लेखिका सिमोन द बुआ ने अपनी चर्चित कृति ‛द सेकंड सेक्स’ में कहा कि,“ स्त्री पैदा नहीं होती बल्कि उसे ऐसा बना दिया जाता है” सिमोन ने कहा कि पुरुष प्रधान समाज में स्त्री को ‛द्वितीय लिंग’ का दर्जा दिया जाता है।
विचारक वर्जीनिया वूल्फ ने महिलाओं की शोषित स्थिति को देखते हुए कहा कि,“महिला होने के नाते मेरा कोई देश नहीं है।” फायरस्टोन ने अपनी चर्चित कृति ‛डायलेक्टिक आफ सेक्स’ के अंतर्गत नारीवाद की नई व्याख्या देकर इससे जुड़े आंदोलन को एक नई दिशा प्रदान की। दार्शनिक केट मिलेट ने अपनी पुस्तक ‛सेक्सुअल पॉलिटिक्स’ के अंतर्गत बताया कि नारीवाद को एक राजनीतिक आंदोलन का रूप देने की आवश्यकता है। उन्होंने कहा कि स्त्री-पुरुष का संबंध प्राकृतिक न होकर राजनीतिक है। उन्होंने कहा कि स्त्री पर पुरुष का जो नियंत्रण है वह बायोलॉजिकल अंतर नही है बल्कि सामाजिक संरचना का परिणाम है । केट मिलेट की उपर्युक्त पुस्तक अमेरिका में नारी मुक्ति आंदोलन को बढ़ावा देने में विशेष रूप से उपयोगी साबित हुई।
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, इन पाश्चात्य विचारों से इतर यदि देखा जाए तो भारतवर्ष में स्त्री को सदैव श्रद्धेय माना जाता रहा है । हमारे आदिपुरुष भगवान शिव ने भी स्वयं को अर्धनारीश्वर के रूप में स्वयं को प्रस्तुत किया है ।शिव का अर्धनारीश्वर स्वरूप तो वस्तुतः उनके रौद्र स्वरूप को संतुलित करता है मानो , अर्द्ध नारीश्वर शिव वास्तव में स्वयं में कुछ अद्भुत सत्यता से रूबरू भी करते है । जैसे कि एक पुरुष की महानता इस बात पर निर्भर करती है कि उसके हृदय में नारी शोभित करुणा कितनी अंतस्थ है , उनके तांडव और लास्य स्वरूप का ये संश्लेषण अद्भुत है स्वयं में, सूर्य का ओज और चाँद की शीतलता ।
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स्वतंत्र भारत में लैंगिक असमानता को दूर करने के लिए शुरू से ही प्रयास निरन्तर रहे हैं । भ्रूण परीक्षण को अपराध बनाकर , जननी माताओं को संबल देकर, कार्यस्थलो पर स्त्रियों को कानूनी अधिकार देकर, वीमेन हेल्पलाइन के द्वारा उन्हें सुरक्षा बोध देकर, घरेलू अहिंसा कानून के द्वारा उन्हें सबल करने आदि के प्रयासों के द्वारा औरतों को आत्मविश्वास देने के काम तो हुआ है , लेकिन इन सबके साथ इनको सही तरह से बरता जाए , इन कानूनों का सही सदुपयोग हो , जरूरतमंदों तक वास्तविक मदद पहुंचे इसकी बहुत सारी गुंजाइशें अभी भी शेष हैं ।
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कानून के द्वारा , सरकारों के द्वारा बनाये कानूनों और नियमों से इतर जरूरी है अपने अंतर्मन और सोच को बदलना । क्योंकि ये नियम और कानून तब तक ही प्रभावी हैं जब तक इनका भय है । आज आवश्यकता इस बात की है कि पुरुष और स्त्री के मन मे एक दूसरे के लिए सम्मान हो दोनों अपनी अपनी भूमिकाओं को भी गौरवान्वित होकर निभाने की है । स्त्री को पुरुषत्व की गुणों को अपनाकर पुरुषों को ये बोध कराना की वो कम नहीं है ,नारीवादी आंदोलन के एक उपकरण के तौर पर अच्छी बात है , परन्तु प्रकृति प्रदत्त कोमलता , करुणा, आंतरिक सौंदर्य,प्रेम जैसे जीवनदायी रसों से ही ये सृष्टि कालजयी और सौन्दर्यमयी बनी हुई है । इसके संरक्षण की जिम्मेवारी स्त्री और पुरुष दोनों की है ,इनके द्वारा ही मनुष्यता जीवित रह सकती है । पुरुष और स्त्री का सहचारी और सहयोगी बने रहना ही वास्तविक प्रकृति है -एवमस्तु !