मैं चाहता था कुछ ऐसा लिखूं जो कुछ अद्भुत बन जाये, कुछ ऐसा जो लेखन की मापनी में ना समाया जा सके , मैंने बहुत सोचा , मन के पतंगे की करनी साधी , उसे कल्पना के नवनीत नभपटल में ले जाकर छोड़ा , हर बार उसके बहकते अस्तित्व को तग्गी देकर झिंझोड़ा ,चेताया , डोरी को ढील देकर प्रलोभन दिया । पर हर बार की तरह कल्पनाओं का बना पूल बीच मे ही कमजोर सा पड़ जाता , और उस ध्रुव तारे को मुट्ठी में भर लेने की , चांद से रूबरू होकर बतियाने की मेरी ख्वाइशें तामील न हो पाती ।
मैंने अथक श्रम किया , कि मन को तुम्हारी दहलीज से खींचकर हिमालय के पर्वतों की गोद मे छोड़ आऊं , लेकिन मेरा हर श्रम निढाल पड़ जाता जब मन हिमालय की बर्फ में भी तुम्हारे चेहरे की आकृति को तलाशने लगता , इसे बर्फ की सफेद चादर में फैली शांति में तुम्हारे अस्तित्व में छिपी अपार स्निग्धता का भान हो जाता , हिमालय के पहाडों का विराट और अजेय स्वरूप इस तथ्य को स्वीकृति देता मन को कि मानो इस जीवन में भी अब तुम्हारा अस्तित्व इन पहाड़ों के सदृश ही अधिव्याप्त है ,अजेय , अदुर्गम , अलभ्य ।
मन राजस्थान के मरुथल से भी अपना सामंजस्य बिठा लेता है , मानो दोनों को खुद के रेगिस्तान होने की प्रक्रिया का भान नहीं । दोनों अभिशप्त है कुदरत के इस अभिशाप को सहन करने के लिए , उन सैलानियों से अपने भीतर की वीभत्सता को छिपाकर एक विपुल वैभव को परोसते हुए । उनकी किलकारियों उनकी हंसी उनके सुख से गोया उनका मरुथलीकरण फलित हो रहा होता है , उनके अस्तित्व को एक सार्थक अर्थ मिल रहा होता है । अपने अभिशाप को वरदान में बदलने को वो संकल्पित से लगते हैं । उन्हें भान हो चुका है अब कि पर्वत , समंदर ,रेगिस्तान और मैदान यहां सभी चक्रीय प्रक्रिया में हैं , सब रूप बदल रहे हैं , यहां सब क्षणभंगुर हैं, बजाय इसके कि क्षण को मापने के पैमाने अलग अलग हैं ।
देखो न मैं सोचता था ये सब न लिखूं पर लिखना मानो अब तुमसे मिलने की तरह हो गया है , और लिखने के क्रम में हर एक मिलन को मैं अद्भुत बनाना चाहता हूं, हां मैं कुछ अद्भुत लिखना चाहता हूं , जो लेखन की मापनी में ना समाये~ ऋतेश