आत्ममुग्धता इस धराधाम पर जन्म लेने के बाद मनुष्य अनेक प्रकार के शत्रुओं एवं मित्रों से घिर जाता है इसमें से कुछ सांसारिक शत्रु एवं मित्र होते हैं तो कुछ आंतरिक | आंतरिक शत्रुओं में जहाँ हमारे शास्त्रों ने काम , क्रोध , मद , लोभ आदि को मनुष्य का शत्रु कहा गया है वहीं शास्त्रों में वर्णित षडरिपुओं के
अर्जुन तिवारी जी के द्वारा jeevan jeene ki kala *इस संसार में मानव जीवन को सर्वश्रेष्ठ एवं अलौकिक कहा गया है | चौरासी लाख योनियों में मानव जीवन सर्वश्रेष्ठ इसलिए है क्योंकि यह वह कल्पवृक्ष है जिसके माध्यम से मनुष्य कुछ भी प्राप्त कर सकता है | मानव जीवन वह पवित्र क्षेत्र है जिसमें ईश्वर ने सृष्टि की
सनातन धर्म में कर्म ही प्रधान कर्म एवं भाग्य पर प्राय: चर्चा हुआ करती है | कर्म बड़ा या भाग्य ? यह विषय आदिकाल से प्राय:सबके ही मस्तिष्क में घूमा करता है | Sanatana Dharma के धर्मग्रंथों वेद , पुराण , उपनिषद एवं गीता आदि में कर्म को ही कर्तव्य मानकर इसी की प्रधानता प्रतिपादित की गयी है | कर्म को ह
कर्म की प्रधानता*सनातन धर्म में सदैव से कर्म को ही प्रधान माना गया है एवं अनासक्त होकर कर्मेंद्रियों से कर्मयोग का आचरण करने वाले पुरुषों को श्रेष्ठ पुरुष कहा गया है और यही karma meaning है| अपने द्वारा किए गए कर्म के आधार पर ही जीव की अगली योनियों का निर्धारण होता है | मनुष्य अपने कर्मों का भाग्
*सनातन धर्म में चौरासी लाख योनियों का वर्णन मिलता है | देव , दानव , मानव , प्रेत , पितर , गन्धर्व , यक्ष , किन्नर , नाग आदि के अतिरिक्त भी जलचर , थलचर , नभचर आदि का वर्णन मिलता है | हमारे इतिहास - पुराणों में स्थान - स्थान पर इनका विस्तृत वर्णन भी है | आदिकाल से ही सनातन के अनुयायिओं के साथ ही सनातन
नश्वर और अनश्वर *सृष्टि के आदिकाल से लेकर आज तक अनेकानेक जीव इस पृथ्वी पर अपने कर्मानुसार आये विकास किये और एक निश्चित अवधि के बाद इस धराधाम से चले भी गये | श्री राम , श्रीकृष्ण , हों या बुद्ध एवं महावीर जैसे महापुरुष इस विकास एवं विनाश (मृत्यु) से कोई भी नहीं बच पाया है | इसका मूल कारण यह है कि
सच्चरित्रता का मतलब- सत और चरित्र इन दो शब्दों के मेल से सच्चरित्र शब्द बना हैं तथा इस शब्द में ता प्रत्यय लगने से सच्चरित्रता शब्द की उत्पत्ति हुई हैं. सत का अर्थ होता हैं अच्छा एवं चरित्र का तात्पर्य हैं आचरण, चाल चलन, स्वभाव, गुण ध
एक सच्ची पुकार - *ईश्वर की अनुकम्पा से अपने कर्मानुसार अनेकानेक योनियों में भ्रमण करते हुए जीव मानवयोनि को प्राप्त करता है | आठ - नौ महीने माँ के उदर में रहकर जीव भगवान के दर्शन करता रहता है और उनसे प्रार्थना किया करता है कि :-हे भगवन ! हमें यहाँ से निकालो मैं पृथ्वी पर पहुँचकर आपका भजन करूँगा | ई
संसार में कर्म ही प्रधान कर्मानुसार ही मनुष्य को सुख - दुख , मृत्यु - मोक्ष आदि प्राप्त होते हैं | कर्म की प्रधानता यहाँ तक है कि जीव को अगला जन्म किस योनि में लेना है यह भी उसके कर्म ही निर्धारित करते हैं | यद्यपि सभी जीवों को अपने कर्मों का फल भोगना ही पड़ता है परंतु इन सबसे ऊपर एक परमसत्ता है द
*जब से इस धराधाम पर मनुष्य का जन्म हुआ तब से मनुष्य प्रतिपल आनंद की खोज में ही रहा , क्योंकि मनुष्य आनन्दप्रिय प्राणी कहा गया है | आनंद की खोज में पूरा जीवन व्यतीत कर देने वाला मनुष्य कभी-कभी यह भी नहीं जान पाता है जो वास्तविक आनंद है क्या ?? हमारे धर्मग्रंथों में परमात्मा को ही आनन्द कहा गया है | स
*परमपिता परमात्मा ने सुंदर संसार की रचना की , और इस संसार को एक उपवन की तरह बनाया | इस संसार में आपको प्रत्येक वस्तु मिलेगी चाहे वह सकारात्मक हो चाहे नकारात्मक | गोस्वामी तुलसीदास जी ने अपने मानस में लिखा है :-- "जड़ चेतन गुण दोषमय विश्व कीन्ह करतार" अर्थात यहां गुण भी हैं और दोष भी | यह आपकी दृष्टि
*इस सृष्टि में कुछ भी स्थिर नहीं है बल्कि सृष्टि के समस्त अवयव निरंतर गतिमान हैं | मनुष्य को देखने में तो यह लगता है कि सुबह हो गयी , दोपहर हो गयी , फिर शाम | दिन भर परिश्रम करके थका हुआ मनुष्य रात्रि भर सो जाता है पुन: नई सुबह की प्रतीक्षा में | दिन आते - जाते रहते हैं और जीवन व्यतीत होता चला जाता
*ईश्वर की बनाई इस महान श्रृष्टि में सबसे प्रमुखता कर्मों को दी गई है | चराचर जगत में जड़ , चेतन , जलचर , थलचर , नभचर या चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करने वाला कोई भी जीवमात्र हो | सबको अपने कर्मों का फल अवश्य भुगतना पड़ता है | ईश्वर समदर्शी है , ईश्वर की न्यायशीलता प्रसिद्ध है | ईश्वर का न्याय सिद्ध
*सम्पूर्ण जीवनकाल में मनुष्य काम , क्रोध , लोभ , मद , मोह , अहंकार आदि से जूझता रहता है | यही मनुष्य के शत्रु कहे गये हैं , इनमें सबसे प्रबल "मोह" को बताते हुए गोस्वामी तुलसीदास जी मानस में लिखते हैं :- "मोह सकल व्याधिन्ह कर मूला" अर्थात सभी रोगों की जड़ है "मोह" | जिस प्रकार मनुष्य को अंधकार में कु
*सनातन काल से मनुष्य भगवान को प्राप्त करने के अनेकानेक उपाय करता रहा है , परंतु इसके साथ ही भगवान का पूजन , ध्यान एवं सत्संग करने से कतराता भी रहता है | मनुष्य का मानना है कि भगवान का भजन करने के लिए एक निश्चित आयु होती है | जबकि हमारे शास्त्रों में बताया गया है कि मनुष्य के जीवन का कोई भरोसा नहीं ह
*इस सकल सृष्टि में हर प्राणी प्रसन्न रहना चाहता है , परंतु प्रसन्नता है कहाँ ? लोग सामान्यतः अनुभव करते हैं कि धन, शक्ति और प्रसिद्धि प्रसन्नता के मुख्य सूचक हैं | यह सत्य है कि धन, शक्ति और प्रसिद्धि अल्प समय के लिए एक स्तर की संतुष्टि दे सकती है | परन्तु यदि यह कथन पूर्णतयः सत्य था तब वो सभी जिन्ह
*इस धरा धाम पर अनेक प्राणियों के मध्य में मनुष्य सबसे ज्यादा सामर्थ्यवान एवं शक्ति संपन्न माना जाता है | अनेक प्राणी इस सृष्टि में ऐसे भी हैं जो कि मनुष्य अधिक बलवान है परंतु यह भी सत्य है कि मनुष्य शारीरिक शक्ति में भले ही हाथी , शेर , बैल , घोड़े आदि से कम हो परंतु बौद्धिक बल , सामाजिक बल एवं आत्
*सृष्टि का सृजन परमपुरुष परमात्मा की इच्छामात्र से हुई है | परमात्मा के अंशस्वरूप आत्मा का सृजन हुआ | यही आत्मा समस्त जड़ - चेतन में विद्यमान होती है | आत्मा का कोई स्वरूप नहीं होता है | मनुष्य की मूल सत्ता न शरीर है और न उसकी इच्छाएँ आकांक्षा हैं | बल्कि इनका आत्मा ही मनुष्य का मूल स्वरूप है | यह आ
!! भगवत्कृपा हि केवलम् !! *परमपिता परमात्मा द्वारा सृजित सृष्टि सतत परिवर्तनशील एवं चलायमान है | इस सकल सृष्टि में जिस प्रकार सब कुछ परिवर्तनशील है उसी प्रकार मानव जीवन में पल पल परिदृश्य भी परिवर्तित होते रहते हैं | जीवन विविध घटनाओं की एक अनवरत श्रृंखला है | इन्हीं से संसार निरंतर चलायमान प्र
!! भगवत्कृपा हि केवलम् !! *ईश्वर ने सर्वप्रथम जड़ शरीर का सृजन किया फिर उसमें आत्मारूपी चेतनाशक्ति प्रकट की | देखना , सुनना , अनुभव करना , विचार करना , निर्णय करना आदि सभी कार्य चेतनाशक्ति के कारण होते हैं | चेतना के अभाव में यह जड़ शरीर कुछ भी नहीं कर सकता | यह चेतनशक्ति तीन अवस्थाओं में रहती