आत्ममुग्धता
इस धराधाम पर जन्म लेने के बाद मनुष्य अनेक प्रकार के शत्रुओं एवं मित्रों से घिर जाता है इसमें से कुछ सांसारिक शत्रु एवं मित्र होते हैं तो कुछ आंतरिक | आंतरिक शत्रुओं में जहाँ हमारे शास्त्रों ने काम , क्रोध , मद , लोभ आदि को मनुष्य का शत्रु कहा गया है वहीं शास्त्रों में वर्णित षडरिपुओं के अतिरिक्त मनुष्य का एक और भी परम शत्रु है जिसे "आत्ममुग्धता" कहा गया है | आत्ममुग्धता अर्थात स्वयं की प्रशंसा करना या सुनना | आत्ममुग्ध मनुष्य अपने स्वयं की प्रशंसा के अतिरिक्त कुछ भी सुनना पसंद नहीं करते हैं | सदैव अपनी बड़ाई ही उन्हें स्वीकार होती है | ऐसे व्यक्ति ये सोंचते हैं कि मैं जो हूँ या जो कर रहा हूँ वही श्रेष्ठ है | यदि भूले से कोई भी इनके गलत कार्यों के प्रति इनको सचेत करने का प्रयास करता भी है तो ऐसे लोग उसको अपना परम शत्रु मानकर ही व्यवहार करते हैं | इसका ज्वलंत उदाहरण त्रेतायुग में लंकाधिपति रावण के रूप में देखने को मिलता है |
यद्यपि रावण बहुत बड़ा विद्वान , त्रिकालदर्शी , परम ज्योतिषी एवं शिवभक्त था परंतु उसमें अनेक दोष भी थे जिनमें विशेष दोष था उसका स्वयं के बल , परिवार एवं विद्वता पर आत्ममुग्ध होना | ऐसे मनुष्य अपने आसपास ऐसे लोगों की भीड़ जमा रखते हैं जो उसके प्रत्येक उचित - अनुचित कार्य की सिर्फ बड़ाई करते रहें | विरोध करने वाले लोग ऐसे लोगों को कदापि पसंद नहीं आते | ऐसे ही लोगों के लिए सचेत करते हुए गोस्वामी तुलसीदास जी ने मानस में लिख दिया है :-- सचिव वैद गुरु तीनि जौ प्रिय बोलहिं भय आस ! राज धर्म तन तीनि कर होंहिं बेगही नास !! अर्थात :- आत्ममुग्ध मनुष्य के रुष्ट हो जाने के भय से यदि उसके सलाहकार , डॉक्टर एवं गुरु उसके ही अनुसार बोलने लगते हैं तो ऐसे आत्ममुग्ध मनुष्य का राज्य धर्म और शरीर का विनाश हो जाता है , जो कि रावण के विषय में देखने को मिलता है | अत: प्रत्येक मनुष्य को आत्ममुग्धता से बाहर निकलकर आत्मावलोकन अवश्य करना चाहिए |* *आज के चकाचौंध भरे भौतिक युग में लगभग प्रत्येक व्यक्ति इस रोग से पीड़ित दिखाई पड़ता है |
विशेषकर जब से सोशल मीडिया पर फेसबुक एवं व्हाट्सएप का प्रचलन बढ़ा तब से मनुष्य की आत्ममुग्धता कुछ ज्यादा ही बढ़ गई है | आज के युवक-युवतियों को आत्ममुग्धता की प्रकृति उन्हें आत्म केंद्रित बना रही है | आत्म केंद्रित होने का अर्थ है कि मनुष्य ना तो किसी के विषय में सोचता है और ना ही किसी दूसरे के विषय में कोई विचार ही रखता है | ऐसे व्यक्तियों का एकमात्र लक्ष्य होता है कि वह स्वयं को कितना ज्यादा और कैसे प्रचारित कर दे | मेरा "आचार्य अर्जुन तिवारी" का मानना है कि यह समस्या नहीं बल्कि एक कमी है इसके लिए समाधान होने की आवश्यकता नहीं है बल्कि मनुष्य को अपनी सोच बदलने की आवश्यकता है | यह आत्ममुग्धता की पराकाष्ठा ही है कि लोग तरह-तरह से स्वयं के चित्र खींचकर सोशल साईट्स पर प्रेषित करते हैं फिर उस पर ज्यादा से ज्यादा लाइक कमेंट की अपेक्षा करते हैं | ऐसे लोगों का विचार ऐसा होता है ये स्वयं की कमी बताने पर उसको अपनी आलोचना समझकर उसको बिल्कुल नहीं बर्दाश्त कर पाते तथा साधारण सी बात पर पूरी तरह नाराज होकर विवाद करने पर उतर आते हैं | ऐसे लोग प्रत्येक जगह पर स्वयं को विशिष्ट दिखाने के लिए अपना महत्त्व बढ़ा चढ़ाकर बताने व दिखाने का प्रयास करते हैं |
जहां देखते हैं कि उनकी प्रशंसा नहीं होती है वहां से स्वयं पलायन कर जाते हैं | जबकि ऐसा नहीं होना चाहिए | प्रत्येक मनुष्य को इस आत्ममुग्धता से बाहर निकल कर समाज के विषय में भी विचार करना चाहिए अन्यथा परिणाम रावण की तरह ही हो सकता है |* *आत्ममुग्ध मनुष्य ना तो कभी सफल हो पाया है और ना ही हो पाएगा , क्योंकि इस रोग से पीड़ित मनुष्य को अपने अतिरिक्त ना तो कुछ दिखाई पड़ता है और ना ही वह विचार ही करना चाहता है |