अध्यात्म और मनश्चिकित्साअर्जुन ने जब दोनों सेनाओं में अपने ही प्रियजनों को आमनेसामने खड़े देखा तो उनकी मृत्यु से भयाक्रान्त हो श्री कृष्ण की शरण पहुँचे “शिष्यस्तेऽहंशाधि मां त्वां प्रपन्नम् |” तब भगवान ने सर्वप्रथम एक कुशल वैद्य औरमनोवैज्ञानिक की भाँति उनके मन से मृत्यु का भय दूर किया | मृत्यु को अवश
*चौरासी लाख योनियों में मानव जीवन को देव दुर्लभ कहा गया है | मनुष्य जन्म बड़े भाग्य से मिलता है क्योंकि मनुष्य को छोड़कर अन्य सभी योनियाँ भोग योनि होती हैं | इस संसार में दो प्रकार की योनियों का वर्णन मिलता है एक भोगयोनि दूसरी कर्मियोनि | मनुष्य के अतिरिक्त अन्य योनियों को भोग योनि कहा गया है क्योंक
*परमात्मा की बनाई यह सृष्टि निरन्तर क्षरणशील है | एक दिन सबका ही अन्त निश्चित है | सृष्टि का विकास हुआ तो एक दिन महाप्रलय के रूप में इसका विनाश भी हो जाना है , सूर्य प्रात:काल उदय होता है तो एक निश्चित समय पर अस्त भी हो जाता है | उसी प्रकार इस सृष्टि में जितने भी जड़
🌸🌞🌸🌞🌸🌞🌸🌞🌸🌞🌸 ‼ *भगवत्कृपा हि केवलम्* ‼ 🌻☘🌻☘🌻☘🌻☘🌻☘🌻 *इस धरती पर अनेकों जीव विचरण कर रहे हैं इनमें सर्वश्रेष्ठ प्राणी मनुष्य को कहा गया है | चौरासी लाख योनियों में सर्वश्रेष्ठ मानव योनि कही गई है | साधारण से दिखने वाले मनुष्य में इतनी शक
*इस संसार में मनुष्य ने अपनी कार्यकुशलता से अनहोनी को भी होनी करके दिखाया है | अपनी समझ से कोई भी ऐसा कार्य न बचा होगा जो मनुष्य ने कपने का प्रयास न किया हो | संसार में समय के साथ बड़े से बड़े घाव , गहरे से गहरे गड्ढे भी भर जाते हैं | समुद्र के विषय में बाबा गोस्वामी तुलसीदास जी ने मानस में लिखा है
*भारतीय परंपरा में आदिकाल से एक शब्द प्रचलन में रहा है साधना | हमारे महापुरूषों ने अपने जीवन काल में अनेकों प्रकार की साधनायें की हैं | अनेकों प्रकार की साधनाएं हमारे भारतीय सनातन के धर्म ग्रंथों में वर्णित है | यंत्र साधना , मंत्र साधना आदि इनका उदाहरण कही जा सकती हैं | यह साधना आखिर क्या है ? किस
*इस धराधाम पर परमात्मा द्वारा सृजित सभी प्रकार के जड़ - चेतन में सबसे शक्तिशाली मनुष्स ही है | सब पर विजय प्राप्त कर लेने वाला मनुष्य किसी से पराजित होता है तो वह उसका स्वयं का मन है जो उसको ऐसे निर्णय व कार्य करने के लिए विवश कर देता है जो कि वह कभी भी करना पसंद नहीं करता | कभी - कभी तो मन के बहकाव
*प्रत्येक शरीर में एक आत्मा निवास करती है जिस प्रकार भगवान शिव के हाथ में सुशोभित त्रिशूल में ती शूल होते हैं उसी प्रकार आत्मा की तुलना भी एक त्रिशूल से की जा सकती है, जिसमें तीन भाग होते हैं- मन, बुद्धि और संस्कार | इनको त्रिदेव भी कहा जा सकता है | मन सृजनकर्ता ब्रह्मा , बुद्धि संहारकारी शिव तथा सं
*इस संसार में मनुष्य एक चेतन प्राणी है , उसके सारे क्रियाकलाप में चैतन्यता स्पष्ट दिखाई पड़ती है | मनुष्य को चैतन्य रखने में मनुष्य के मन का महत्वपूर्ण स्थान है | मनुष्य का यह मन एक तरफ तो ज्ञान का भंडार है वहीं दूसरी ओर अंधकार का गहरा समुद्र भी कहा जा सकता है | मन के अनेक क्रियाकलापों में सबसे महत्
*इस संसार में समस्त जड़ - चेतन को संचालित करने वाला परमात्मा है तो मनुष्य को क्रियान्वित करने वाला है मनुष्य का मन | मनुष्य का मन स्वचालित होता है और मौसम , खान - पान , परिस्थिति एवं आसपास घट रही घटनाओं के अनुसार परिवर्तित होता रहता है | जिस प्रकार मनुष्य के जीवन में बचपन , जवानी एवं बुढ़ापा रूपी ती
*इस धराधाम पर जन्म लेने के बाद मनुष्य सबकुछ प्राप्त करना चाहता है | परमात्मा की इस सृष्टि में यदि गुण हैं तो दोष भी हैं क्योंकि परमात्मा गुण एवं दोष बराबर सृजित किये हैं | यह मनुष्य के ऊपर निर्भर करता है कि वह क्या ग्रहण करना चाहता है | जीवन भर अनेक सांसारिक सुख साधन के लिए भटकने वाला मनुष्य सबकुछ प
*इस धरा धाम पर वैसे तो मनुष्य की कई श्रेणियां हैं परंतु आध्यात्मिक दृष्टि से मनुष्य को दो श्रेणियों में बांटा गया है :- प्रथम भक्त एवं दूसरा ज्ञानी | भक्त एवं ज्ञानी दोनों ही आध्यात्मिक पथ के पथिक हैं परंतु दोनों में भी भेद है | जहाँ भक्त बनना कुछ सरल है वहीं ज्ञानी बनना अत्यंत कठिन | भक्तों के लिए
*इस संसार में जन्म लेने के बाद प्रत्येक जीव का उद्देश्य होता है भगवान की भक्ति करके उनका दर्शन करने एवं मोक्ष प्राप्त करना | इसके लिए अनेक साधन बताये गये हैं , इन सभी प्रकार के साधनों में एक विशेष बात होती है निरन्तरता | अनन्य भाव के साथ निरन्तर प्रयास करने से इस सृष्टि में कुछ भी असम्भव नहीं है | अ
*इस संसार में जन्म लेने के बाद मनुष्य माया में लिप्त हो जाता है और इसी के वशीभूत होकर वह सांसारिक जीवों , पदार्थों के आसक्ति में डूब जाता है | किसी भी प्राणी या वस्तु के विषय में दिन रात सोंचते रहना एवं उसे प्राप्त ही कर लेने कामना , या पहले से उपलब्ध वस्तु को कभी भी न छोड़ने का भाव ही आसक्ति कहा गय
*यह समस्त संसार मायामय है | संसार में अवतीर्ण जड़ चेतन एवं जितनी भी सृष्टि है सब माया ही है | माया को भगवान की शक्ति एवं दासी कहा गया है | जिस प्रकार एक सिक्के के दो पहलू होते हैं एक ओर देखो तो दूसरा अदृश्य हो जाता है ठीक उसी प्रकार ब्रह्म एवं माया सिक्के के दो पहलू हैं जब मनुष्य माया में लिप्त हो
*परमात्मा ने पंचतत्त्वों के संयोग से सुंदर प्रकृति की रचना की | धरती , आकाश , जल , अग्नि एवं वायु को मिलाकर सुंदर प्रकृति का निर्माण किया फिर इन्हीं पंचतत्त्वों को मिलाकर मनुष्य की रचना की इसीलिए मनुष्य को प्रकृति का अभिन्न अंग कहा गया है | धरती पर दिखने वाली प्रकृति एवं पर्यावरण वैसे तो बहुत सुंदर
भगवान श्री शिवशंकर की अराधना में महामृत्युंजय जाप एककाफी पवित्र मंत्र माना जाता है जिसे हमारे बुजुर्गों द्वारा प्राण रक्षक मंत्रकहा जाता है। इस मंत्र की उत्पत्ति सबसे पहले महाऋषि मार्कंडय जी ने की। Mahmrityunjay Mantra का जाप करनेसे शिव जी को प्रसन्न करने की शक्ति मिलती है। Mahamrityunjay Mantra in
*इस संसार में जन्म लेने के बाद मनुष्य मोह - माया में लिप्त हो जाता है | कहा जाता है कि अनेकों महापुरुषों ने मोह - माया पर विजय भी प्राप्त किया है परंतु यदि सूक्ष्मदृष्टि से देखा जाय तो इस मोह से कोई बच ही नहीं पाया है | सबसे बड़ा मोह है अपने शरीर का मोह ! मनुष्य जीवन भर पवित्र एवं अपवित्र के बीच झूल
*चौरासी लाख योनियों में सर्वश्रेष्ठ मानव योनि कहीं गई है | मनुष्य इस संसार में आकर सर्वत्र सुख की कामना करता है , परंतु उसको जीवन भर सुख की प्राप्ति नहीं हो पाती है , क्योंकि इस संसार को "दु:खालय" कहा गया जिसका अर्थ होता है दुख का घर | इस संसार को दु:खालय क्यों कहा गया इसका कारण यह है कि जीव जब मां
दृढ़ संकल्प इस धरा धाम पर मानवयोनि में जन्म लेने के बाद मनुष्य जीवन में अनेकों कार्य संपन्न करना चाहता , इसके लिए मनुष्य कार्य को प्रारंभ भी करता है परंतु अपने लक्ष्य तक कुछ ही लोग पहुंच पाते हैं | इसका कारण मनुष्य में अदम्य उत्साह एवं अपने कार्य के प्रति निरंतरता तथा सतत प्रयास का अभाव होना ही कहा