
अर्जुन तिवारी जी के द्वारा jeevan jeene ki kala
*इस संसार में मानव जीवन को सर्वश्रेष्ठ एवं अलौकिक कहा गया है | चौरासी लाख योनियों में मानव जीवन सर्वश्रेष्ठ इसलिए है क्योंकि यह वह कल्पवृक्ष है जिसके माध्यम से मनुष्य कुछ भी प्राप्त कर सकता है | मानव जीवन वह पवित्र क्षेत्र है जिसमें ईश्वर ने सृष्टि की समस्त विभूतियाँ बीज रूप में रख दी हैं | यदि मनुष्य चाहे तो इन विभूतियों के बीज का विकास करके नर से नारायण सदृश हो सकता है , इन विभूतियों का विकास तभी हो सकता है जब इस जीवन के गूढ़ रहस्यों को समझकर उसका व्यवस्थित रूप से संचालन किया जाय | जो भी मनुष्य इस सुरदुर्लभ जीवन को पाकर इसे सुचारु रूप से संचालित नहीं कर पाता अथवा प्रमाद में ही व्यतीत कर देता समझ लो कि यह उसका दुर्भाग्य है|
अव्यवस्थित जीवन , या इस जीवन का दुरुपयोग मनुष्य की दरिद्रता में वृद्धि करता है | दरिद्रता सिर्फ धन की ही नहीं होती बल्कि सामाजिक , भौतिक एवं आध्यात्मिक दरिद्रता भी मनुष्य को घेर लेती है | जीवन को सुचारु रूप से चलाने की भी एक वैज्ञानिक पद्धति है जिसे "अध्यात्म" कहा गया है | अध्यात्म को "जीवन जीने की कला" भी कहा जा सकता है जिसे अपनाकर मनुष्य अपने जीवन को सुचारु रूप से संचालित कर सकता है अन्यथा यह जीवन भी अन्य पशु - पक्षियों के समान ही व्यतीत हो जाता है | इस लोक से लेकर परलोक तक अनेक ऐश्वर्य विखरे पड़े हैं | चारों पुरुषार्थ (धर्म , अर्थ , काम , मोक्ष ) को प्राप्त करने के लिए यह जीवन जीने की कला (अध्यात्म) के विषय में जानना परम आवश्यक है | प्राय: लोग कहते हैं कि अध्यात्म तो विरक्तों , संतों का क्षेत्र है इससे एक गृहस्थ ओवं लौकिक व्यक्ति का कोई सम्बन्ध नहीं है |
जो सांसारिक जीवन जीवन जीना चाहते हैं उनका अध्यात्म से कोई सम्बन्ध नहीं है | ऐसा कहने का अर्थ सिर्फ अध्यात्म के विषय में अज्ञानता ही कही जा सकती है | यह सत्य है कि प्रत्येक व्यक्ति आध्यात्मिक तो नहीं बन सकता परंतु यदि प्रयास करे तो उसका लघु रूप जीवन जीने की कला अवश्य जान सकता है |* *आज के भौतिकवादी युग में मनुष्य किस प्रकार का जीवन जी रहा है उसमें आध्यात्मिकता को प्राप्त करना असंभव लगता है , परंतु जीवन निर्माण की सरल आध्यात्मिक साधना अवश्य संभव कही जा सकती है | क्योंकि इसके आरंभ के बिना कोई भी कार्य संपन्न नहीं हो सकता | इसलिए प्रत्येक मनुष्य को आध्यात्मिकता के लघु सोपान "जीवन जीने की कला" को सीखना होगा | मेरा "आचार्य अर्जुन तिवारी" का मानना है कि जीवन विषयक अध्यात्म हमारे गुण , कर्म , स्वभाव से संबंधित है | प्रत्येक मनुष्य को यह चाहिए कि वह अपनी गुणों में वृद्धि करता रहे | इनमें प्रमुख रूप से ब्रह्मचर्य , सच्चरित्रता , सदाचार , मर्यादा का पालन एवं स्वयं अपनी सीमा में अनुशासित रहना आदि जीवन जीने की कला के नियम माने गए हैं | वहीं आलस्य , व्यसन , अस्तव्यस्तता , अव्यवस्था एवं प्रमाद आदि जीवन के विरोधी दुर्गुण है , इनका त्याग करने से ही मनुष्य के जीवन काल को बल मिलता है | यहां एक बात और ध्यान देने योग्य होती है कि मनुष्य के स्वभाव , गुण एवं कर्मों में विरोधाभास नहीं होना चाहिए क्योंकि यदि मनुष्य के गुण एवं उसके द्वारा किये गये कर्म परस्पर विरोधी होते हैं तो कभी उन्नति नहीं कर सकता बल्कि अवनति को प्राप्त होता चला जाता है | मनुष्य के गुण , कर्म एवं स्वभाव की सामंजस्यता ही वह विशेषता है जो जीवन जीने कीला में सहायक सिद्ध होती है | जीवन यापन की इस विधि के द्वारा ही मनुष्य अधिकाधिक सुखी , शान्त एवं स्थिर रह सकता है | साथ ही दूसरें के लिए आदरणीय हो सकता है | यही अध्यात्म की प्रथम सीढ़ी है इस पर चढ़े बिना कोई भी आध्यात्मिकता के शिखर पर नहीं पहुँच सकता |* *जिस प्रकार किसी छत पर जाने के लिए सीढी के प्रथम डंडे पर चढ़ना आवश्यक है उसी प्रकार आध्यात्मिकता प्राप्त करने के लिए इन प्राथमिक गुणों को आत्मसात करना ही होगा |*