*इस सृष्टि में कुछ भी स्थिर नहीं है बल्कि सृष्टि के समस्त अवयव निरंतर गतिमान हैं | मनुष्य को देखने में तो यह लगता है कि सुबह हो गयी , दोपहर हो गयी , फिर शाम | दिन भर परिश्रम करके थका हुआ मनुष्य रात्रि भर सो जाता है पुन: नई सुबह की प्रतीक्षा में | दिन आते - जाते रहते हैं और जीवन व्यतीत होता चला जाता है | जन्म लेकर मनुष्य शैशवावस्था से अपनी जीवनयात्रा प्रारम्भ करते हुए बाल्यावस्था , युवावस्था , प्रौढ़ावस्था को पारकर वृद्धावस्था को प्राप्त करके इस संसार से विदा हो जाता है | संसार से जीव के चले जाने के बाद भी जीव की
यात्रा समाप्त नहीं होती है अपने किये कर्मों के आधार पर जीव अन्य योनियों की यात्रा प्रारम्भ कर देता है | कहने का तात्पर्य इतना ही है कि इस संसार में कुछ भी स्थाई नहीं है | शायद इसीलिए कहा गया है कि :- "आया है सो जायेगा , राजा रंक फकीर ! कोई सिंहासन चढि चला , कोई बाँधि जंजीर !!" यह नियम सिर्फ मनुष्यों पर ही लागू न हो करके सृष्टि के सूक्ष्म से सूक्ष्म कण पर भी लागू होता है | हमारे धर्मशास्त्र बताते हैं कि सतयुग से सृष्टि प्रारम्भ हुई , सतयुग बीता , त्रेता बीता , द्वापर भी बीत गया और अब कलियुग चल रहा है | कलियुग भी निरन्तर अपनी गति भागता हुआ चला जा रहा है | दिन , सप्ताह , महीने फिर वर्ष व्यतीत होते चले जा रहे हैं और हम अपने नित्य के कार्यों में व्यस्त हैं | हमें यह लगता है कि यही सृष्टि का नियम है परंतु हमने कभी यह विचार करने का प्रयास ही नहीं किया कि यह जो जीवन हमें मिला है वह निरंतर व्यतीत होता चला जा रहा है तो हम ऐसा क्या करें जिससे कि इस संसार में न रहने के बाद भी लोग हमें याद करते रहें | मनुष्य के अधिकार में सिर्फ एक शक्ति है वह है कर्म करना , कर्मरूपी शक्ति का प्रयोग करके ही हम मृत्यु के बाद भी संसार में अमर रहते हैं जैसा कि हम आज यदि अपने पूर्वजों , देवताओं या महान विभूतियों का यशोगान करते हैं तो उसका मुख्य कारण उनके कर्म ही हैं | निरन्तर चलायमान इस सृष्टि में रुकने का समय किसी के भी पास नहीं है जो रुक गया समझ लो समाप्त हो गया | इसी निरन्तरता के क्रम में आज एक वर्ष और व्यतीत हो गया |* *आज इस सृष्टि का एक वर्ष और व्यतीत हो गया | कलियुग अपने गंतव्य की ओर गतिमान है | आज विरोधकृत नामक विक्रम सम्वत् २०७५ अपना समय व्यतीत कर चुका , कल से नव सम्वत् की गणना होने लगेगी | यही इस सृष्टि की विचित्रता एवं महानता है | जो आज है वह कल नहीं रहेगा यह बात सत्य ही है | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" यह
लेख लिखते समय विचार कर रहा हूँ कि ईश्वर की भी माया कितनी विचित्र है , आज का सांध्य संदेश तो मैं "विरोधकृत" सम्वतसर में लिख रहा हूँ परंतु कल का प्रात: संदेश जब विखने बैठूँगा तो पूरा एक वर्ष व्यतीत हो गया होगा और वह संदेश नव सम्वत्सर "परिधावी" का प्रथम संदेश होगा | आश्चर्य तब होता है जब मनुष्य इस निरन्तरता को जानते हुए भी ऐसे कर्म करने लगता है जैसे कि उसे लगता है कि आज मेरे समान कोई नहीं है | मानवमात्र को यह विचार करना चाहिए कि जब राम , कृष्ण , वामन जैसे अवतार , वेदव्यास , तुलसी , मीरा , ध्रुव , प्रहलाद जैसे भक्त , रावण , महिषासुर , कंस , हिरणाकश्यप आदि त्रैलोक्यविजयी चरित्र इस धराधाम से अपना समय पूरा करके चले गये तो क्या हम यहाँ सदैव रह जायेंगे ?? परंतु मनुष्य कुछ समय के लिए सबकुछ भूल जाता है और "एको$हं द्वितीयोनास्ति" की भावना से प्रभावित होकर कृत्य करने लगता है | क्या ऐसा करना उचित है ? जब इस संसार में कुछ भी स्थिर व स्थाई नहीं है तो हम ही भला सदैव किसी अवस्था पर स्थिर कैसे रह सकते हैं | इसका विचार सबको अवश्य करना चाहिए |* *नवसम्वतसर की पूर्व संध्या पर यही कहना चाहूँगा कि व्यतीत हो रहे वर्तमान वर्ष में मेरे लेखों के द्वारा यदि किसी भी पाठक को कुछ भी कष्ट हुआ हो तो क्षमाप्रार्थी |*