संसार में कर्म ही प्रधान
कर्मानुसार ही मनुष्य को सुख - दुख , मृत्यु - मोक्ष आदि प्राप्त होते हैं | कर्म की प्रधानता यहाँ तक है कि जीव को अगला जन्म किस योनि में लेना है यह भी उसके कर्म ही निर्धारित करते हैं | यद्यपि सभी जीवों को अपने कर्मों का फल भोगना ही पड़ता है परंतु इन सबसे ऊपर एक परमसत्ता है देवाधिदेव महादेव की जो कि भाग्य के लिए को भी मिटाकर भक्तों को सर्वस्व प्रदान कर देते हैं परंतु इसके लिए मनुष्य को भक्त बनना पड़ता है | तुलसी बाबा ने अपनी कालजयी रचना "मानस" में लिखा है :- "भाविउ मेटि सकहिं त्रिपुरारी" | यह स्थिति तब आती है जब मनुष्य परमात्माके प्रति पूर्णरूप से समर्पित हो जाता है | समर्पण का अर्थ यह कदापि नहीं है कि संसार से नाता तोड़कर विरक्त हो जाय बल्कि समर्पण का अर्थ हमारे मनीषियों ने बताते हुए कहा है कि :- समर्पण की प्रथम कड़ी है शारीरिक एवं इन्द्रियों का संयम ! महात्मा मृकुण्ड के पाँच वर्षीय पुत्र मार्कण्डेय ने जब यह जाना कि वे अल्पायु हैं और दो दिन में उनकी मृत्यु हो जायेगी तो वे समर्पित भाव से कालों के काल महाकाल की शरण में चले गये | वहाँ जब यमराज उसके प्राणों को लेने पहुँचे तो स्वयं महादेव ने प्रकट होकर मार्कण्डेय के भाग्य में लिखी मृत्यु को मिटाकर उन्हें चिरंजीव कर दिया | कहने का तात्पर्य यह है कि त्रिपुर के विनाशक भागवान भोलेनाथ भाग्य के लिखे को तभी मिटायेंगे जब जीव उनकी प्रति पूर्ण समर्पण की भावना रखेगा | काम क्रोध मद लोभ अहंकार ईर्ष्या द्वेष से स्वयं को बचाकर सत्कर्म करते हुए अपने लिखे भाग्य को भी मिटाया जा सकता है , परंतु उसके लिए भी कर्म करना पड़ेगा |
गीता में स्वयं योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं :- "ये यथा मा प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्" अर्थात जो हमको जैसे भजता है मैं भी उसे उतने ही प्रेम से भजता हूँ | अब मनुष्य को आत्मावलोकन करना चाहिए कि हम परमात्मा को कितना भजते हैं ?? परमात्मा को भजने का अर्थ पूजन , भजन नहीं बल्कि परमात्मा के बताये गये सदमार्गों का अनुसरण करना कह जायेगा | भाग्य का लिखा मिट सकता है परंतु उसके लिए हमें वैसे कर्म करने पड़ेंगे |* *आज प्राय: यह चर्चा होती है कि जब यह लिख दिया गया है कि :- अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्मं शुभाशुभम्" अर्थात किये हुए कर्म का फल अवश्य भोगना पड़ेगा ! यह अकाट्य है ! अचूक है !! इसे कोई काट नहीं सकता " तो बाबा जी ने मानस में क्यों लिखा कि "भाविउ मेटि सकहिं त्रिपुरारी" यहाँ पर मनुष्यों के हृदय में शंका उत्पन्न होती है | इन शंकाओं का निवारण करने का प्रयास करते हुए मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" बताना चाहूँगा कि देश में कानून व्यवस्था बनाये रखने के लिए ग्राम पंचायत स्तर से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक अनेक संस्थायें हैं जो कि मनुष्य के कर्मों के अनुसार उसके लिए सुबूतों के आधार पर दण्ड का निर्धारण करती है |
यदि किसी ने हत्या कर दी और सर्वोच्च न्यायालय ने उसके कर्म के प्रतिफल के रूप प्राणदण्ड की सजा सुनाई और कारावास में डाल दिया परंतु वहाँ उस अपराधी के कर्म अपने अपराध के विपरीत सत्कर्म में परिवर्तित हो जाते हैं तो उसके कर्मों एवं आचरण को देखकर सर्वोच्च पद पर पदासीन आदरणीय राष्ट्रपति जी के द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को निरस्त करके सम्बन्धित व्यक्ति को प्राणदान प्रदान किया जाता है | परंतु यहाँ एक बात का ध्यान अवश्य रखना चाहिए कि इस दण्ड के परिवर्तित होने में भी मुख्य कारण उसके परिवर्तित कर्म एवं आचरण ही रहे | ठीक उसी प्रकार देवों के देव महादेव जी भी ब्रह्मा जी द्वारा लिखे गये भाग्य भी मिटा सकते हैं परंतु उसके लिए भी कर्म करना ही पड़ेगा | बिना कर्म किये यहाँ कुछ भी नहीं प्राप्त होना है | दोनों तथ्य अपने स्थान पर सटीक हैं और दोनों के चरितार्थ होने में मूल मनुष्य के कर्म ही हैं | इसमें किंचित भी संदेह नहीं करना चाहिए |* *हमारे महर्षियों एवं उपदेशकों के एक - एक वाक्य अकाट्य हैं आवश्यकता हैं उन पर मन्थन करने की | क्योंकि बिना मथे घी नहीं निकलता है |*