(१)
"अरे, अरे, दिन-दहाड़े ही जुल्म ढाता है !
रेलवे का स्लीपर उठाये कहाँ जाता है?”
“बड़ा बेवकूफ है, अजब तेरा हाल है ;
तुझे क्या पड़ी है? य' तो सरकारी माल है।”
“नेता या प्रणेता ! तेरा ठीक तो ईमान है?
पर, दिया जाता अब देश में न कान है।
बने जाते कल-कारखाने आलीशान भी,
साथ-साथ तेरे कुछ अपने मकान भी।”
“भाई बकने दो उन्हें, तुम तो सुजान हो,
कविता बनाते हो, हमारे अभिमान हो ।
मान लो, कभी जो चूर-धुन थोड़ा पाते हैं,
भारत से बाहर तो फेंक नहीं आते हैं।
जो भी बनवाये, अपना ही व’ भवन है,
देश में ही रहता है, देश का जो धन है। ”
“और, अरे यार! तू तो बड़ा शेर-दिल है,
बीच राह में ही लगा रखी महफ़िल है !
देख, लग जायँ नहीं मोटर के झटके,
नाचना जो हो तो नाच सड़क से हटके।”
“सड़क से हट तू ही क्यों न चला जाता है?
मोटर में बैठ बड़ी शान दिखलाता है !
झाड़ देंगे, तुझमें जो तड़क-भड़क है,
टोकने चला है, तेरे बाप की सड़क है?”
“सिर तोड़ देंगे, नहीं राह से टलेंगे हम,
हाँ, हाँ, जैसे चाहेंगे, वैसे नाच के चलेंगे हम।
बीस साल पहले की शेखी तुझे याद है।
भूल ही गया है, अब भारत आजाद है।”
(२)
सुनिये क्रोपाटकिन – गोरकी !
भारत में फैली है आज़ादी बड़े जोर की।
सुनता न कोई फ़रियाद है।
देखिये जिसे ही, वही ज़ोर से आज़ाद है।
लोग हैं आज़ाद चिल्लाने को।
नेता हैं आज़ाद जहाँ चाहे, वहाँ जाने को।
अफ़सर परम स्वतंत्र हैं।
मन्त्रीजी हज़ार पढ़ें, लगते न मन्त्र हैं।
साहब तो खुद परीशान हैं।
चपरासी देते उन्हें पानी न तो पान हैं।
अजब हमारा यह तन्त्र है।
नक़ली दवाइयों का व्यापारी स्वतंत्र है।
पुलिस करे जो कुछ, पाप है।
चोर का जो चाचा है, पुलिस का भी बाप है।
अखबार मुक्त हैं चुपाने को,
विज्ञापनदाताओं का मरम छुपाने को।
और छात्र बड़े पुरजोर हैं,
कालिजों में सीखने को आये तोड़-फोड़ हैं।
कहते हैं, पाप है समाज में,
धिक् हम पे ! जो कभी पढ़ें इस राज में।
अभी पढ़ने का क्या सवाल है?
अभी तो हमारा धर्म एक हड़ताल है।
कोई नहीं है कैद कपाट में,
हाट में जो आया नहीं, होगा अभी बाट में।
हाथ में हो केक या कि रोटी हो,
सूट में हो लैस या कि पहने लँगोटी हो,
कवि हो कि नेता हो कि छात्र हो,
या कि ठेला हाँकता हो, करुणा का पात्र हो ;
एक बात में सभी समान हैं ;
दूसरों की बात पे न देते कभी कान हैं।
हलचल बड़ी है बाज़ार में,
कोई पाँव-पैदल, चढ़ा है कोई कार में।
लेकिन, सभी की यह टेक है,
अब किसी में भी नहीं बुद्धि या विवेक है।
सरकार से यदि न ऊबेगा,
डूबेगा, अवश्य, यह सारा देश डूबेगा।
(३)
सोच-सोच आनन मलीन है,
एक ओर पाकिस्तान, एक ओर चीन है।
समझ न पड़ता चरित्र है,
रूस-अमरीका में से कौन बड़ा मित्र है।
दोस्त ही है, देख के डरो नहीं।
कम्यूनिस्ट कहते हैं, चीन से लड़ों नहीं।
चिन्तन में सोशलिस्ट गर्क है,
कम्यूनिस्ट और काँगरेसी में क्या फ़र्क है?
जनसंघी भारतीय शुद्ध है।
इसीलिए, आज महावीर बड़े क्रुद्ध हैं।
और काँगरेसी भी तबाह है।
ठीक-ठीक जान ही न पाता, कौन राह है।
दायाँ या कि बायाँ? कौन ठीक है?
पूछता है, यार, गाँधीजी की कौन लीक है?
एक कहता है, “चलो रूस को।”
दूसरा है चीखता कि “मारो मनहूस को।
वाणी की स्वतंत्रता प्रमुख है।
चुप रहने से बड़ा और कौन दुःख है?”
“तो फिर अमरीका की बात हो?”
“लोभी, मेरे मस्तर पै भारी वज्रपात हो।
गाँधीजी की बात नहीं याद है?
आदमी को यन्त्र कर देता बरबाद है।”
“तो फिर चलायें, चलो, तकली।”
“हम गाँधीजी के भक्त होंगे नहीं नकली।
दबा नहीं अपने को पायेंगे ;
गाँधीजी के पास हरगिज नहीं जायेंगे।”
“तब तुम्हीं बोलो, हम क्या करें?”
“चाय पियें और जी में आये जो, बका करें।
बकना ही असली स्वराज है।
बाक़ी तो जहाँ भी देखो, डाकुओं का राज है।”
भोर में पुकारो सरदार को,
जीत में जो बदल देते थे कभी हार को।
तब कहो, ढोल की य’ पोल है,
नेहरू के कारण ही सारा गण्डगोल है।
फिर जरा राजाजी का नाम लो।
याद करो जे.पी. को, विनोबा को प्रणाम दो।
तब कहो, लोहिया महान है।
एक ही तो वीर यहाँ सीना रहा तान है।
ऊपर बढ़े जो और गरमी,
एक बारगी दो छोड़ बची-खुची नरमी।
कहो, राम ! तिमिर में राह दो,
डिमोक्रेसी दूर करो, हमें तानाशाह दो।
और फिर माला ले के हाथ में
देवता से माँगो वरदान आधी रात में।
दूर रखो हमको गुनाह से
देश को बचाये रखो राम ! तानाशाह से।
क्षमा करो, क्षमा करो, मन्द गति है ;
नेहरू को छोड़ हमें और नहीं गति है।
और जब पुनः प्रकाश हो ;
बोलो, कांगरेसियों ! तुम्हारा सर्वनाश हो।
(४)
जहाँ भी सुनो, वही आवाज़ है,
भारत में आज, बस, जीभ का स्वराज है।
और मन्त्री भी न अप्रमुख हैं।
एक कैबिनट के अनेक यहाँ मुख हैं।
एक कहता है, हाहाकार है,
दाम पै लगान कसो, देश की पुकार है।
दूसरे की मति अति शुद्ध है,
कहता है, नीति यह धर्म के विरुद्ध है।
गाँधीजी की याद नहीं टेक है?
पूँजीपति और जनता का भाग्य एक है।
आज़ादी की धार गहराने दो,
जो भी चाहता हो, उसे छूट के कमाने दो।
(५)
चिन्तकों में अजब उमंग है।
जनता चकित और सारा विश्व दंग है।
एक कहता है, किस बात में
हम है स्वतंत्र, यदि लाठी नहीं हाथ में?
घूम रहा देश किस ध्यान में,
बकरी का दूध पीके शेरों के जहान में?
वही है स्वतंत्र, जो समर्थ है,
परमाणु-बम जो नहीं तो सब व्यर्थ है।
दूसरा है रोता, विधि वाम है।
सेनाओं का गाँधीजी के देश में क्या काम है?
अहिंसा का तत्त्व यदि जानते,
हाय नेहरू जो गाँधीजी को पहचानते,
सीमा पर शत्रु कोई आता क्यों?
आँखे दिखला के हमें कोई धमकाता क्यों?
भीति युद्ध-बीज सदा बोती है।
शस्त्र जहाँ रहते हैं, हिंसा वहीं होती है।
(६)
राम जानें, भीतर क्या बल है !
तब भी बखूबी यह देश रहा चल है।
गण, जन, किसी का न तन्त्र है।
साफ़ बात यह है कि भारत स्वतन्त्र है।
भिन्नता सँभाले तार-तार की,
राज करती है यहाँ चैन से ‘एनारकी’।
(११-१० ६२ ई०)