एक बार फिर स्वर दो।
जिस गंगा के लिए भगीरथ सारी आयु तपे थे,
और हुई जो विवश छोड़ अम्बर भू पर बहने को
लाखों के आँसुओं, करोड़ों के हाहाकारों से ;
लिये जा रहा इन्द्र कैद करने को उसे महल में।
सींचेगा वह गृहोद्यान अपना इसकी धारा से
और भगीरथ के हाथों में डण्डा थमा कहेगा,
अगर मार्क्स को मार सके तुम, हम तुमको पूजेंगे ;
हार गये तो, गंगा की धारा जो ले गये आये हो,
उसी धार में बोर-बोर हम तुम्हें मार डालेंगे।
एक बार फिर स्वर दो।
देख रहे हो, गाँधी पर कैसी विपत्ति आयी है?
तन तो उसका गया, नहीं क्या मन भी शेष बचेगा?
चुरा ले गया अगर भाव-प्रतिमा कोई मन्दिर से,
उन अपार, असहाय, बुभुक्षित लोगों का क्या होगा,
जो अब भी हैं खड़े मौन गाँधी से आस लगा कर?
एक बार फिर स्वर दो।
कहो, सर्वत्यागी वह संचय का सन्तरी नहीं था,
न तो मित्र उन साँपों का जो दर्शन विरच रहे हैं
दंश मारने का अपना अधिकार बचा रखने को।
एक बार फिर स्वर दो।
उन्हें पुकारो, जो गाँधी के सखा, शिष्य, सहचर हैं।
कहो, आज पावक में उनका कंचन पड़ा हुआ है।
प्रभापूर्ण हो कर निकला यह तो पूजा जायेगा ;
मलिन हुआ को भारत की साधना बिखर जायेगी।
एक बार फिर स्वर दो।
कहो, शान्ति का मन अशान्त है, बादल गुजर रहे हैं,
तप्त, ऊमसी हवा टहनियों में छटपटा रही है।
गाँधी अगर जीत कर निकले, जलधारा बरसेगी,
हारे तो तूफान इसी ऊमस से फूट पड़ेगा।
(२६-५-६१ ई०)