(युद्ध काव्य की)
मेरी कविताएँ सुनकर खुश होने वाले !
तुझे ज्ञात है, इन खुशियों का रहस्य क्या है?
मेरे सुख का राज? सभ्यता के भीतर से
उठती है जो हूक, बुद्धि को विकलाती है।
कोई उत्तर नहीं। हार कर मैं मन-मारा
चौराहे पर खड़ा जोर से चिल्लाता हूँ।
गर्जन धावा नहीं ; स्वरों का घटाटोप है;
परित्राण का शिखर ; पलायन उन प्रश्नों से
जिन का उत्तर नहीं, न कोई समाधान है।
तेरे सुख का भेद? कहीं भीतर प्राणों में
तुझ को भी काटते पाप ; मन बहलाने को
तू मेरी वारुणी पान कर चिल्लाता है।
कौन पाप? है याद, उचक्के जब मंचों से
गरज रहे थे, तू ने उन्हें प्रणाम किया था?
पहनाया था उसे हार, जिसके जीवन का
कंचन है आराध्य, त्याग सूती चप्पल है।
कौन पाप? याद, भेड़िये जब टूटे थे
तेरे घर के पास दीन-दुर्बल भेड़ों पर,
पचा गया था क्रोध सोच कर तू यह मन में
कौन विपद् में पड़े बली से वैर बढ़ा कर?
जब-जब उठा सवाल, सोचने से कतरा कर
पड़ा रहा काहिल तू इस बोदी आशा में,
कौन करे चिन्तन? खरोंच मन पर पड़ती है।
जब दस-बीस जवाब दुकानों में उतरेंगे,
हम भी लेंगे उठा एक अपनी पसन्द का।
जब चुनाव आया, तेरी आवाज बन्द थी;
तू शरीफ था, बड़ा चतुर, नीरव तटस्थ था।
जब भी दो दल लड़े, मंच से खिसक गया तू,
बड़ी बुद्धि के साथ सोच, यह कलह व्यर्थ है।
मुझ को क्या? मैं गन्धमुक्त, सब से अलिप्त हूं।
अब समझा, चुप्पी कदर्यता की वाणी है?
बहुत अधिक चातुर्य आपदाओं का घर है।
दोषी केवल वही नहीं, जो नयनहीन था,
उस का भी है पाप, आँख थी जिसे, किन्तु, जो
बड़ी-बड़ी घड़ियों में मौन, तटस्थ रहा है।
सीधा नहीं सवाल, युद्ध घनघोर प्रश्न है!
अघी समस्त समाज, बाँध में छेद बहुत हैं।
जो सबसे है अनघ, दोष कुछ उसका भी है।
कह सकता है, जो विपत्तियाँ अब आयी हैं,
तू ने उन का कभी नहीं आह्वान किया था
ग़लत हुक्म कर दर्ज संचिकाओं पर अथवा
ग़लत ढंग से अपना घर-आँगन बुहार कर?
सरहद पर ही नहीं, मोरचे खुले हुए हैं
खेतों में, खलिहान, बैठकों, बाजारों में!
जहाँ कहीं आलस्य, वहीं दुर्भाग्य देश का ;
जो भी नहीं सतर्क, सभी के लिए विपद् है।
और आज भी जिस पापी का सही नहीं ईमान,
(भले वह नेता हो, शासक हो या दूकानदार हो)
चीनी है, दुश्मन है, सब के लिए काल है।
कल जो किया गुनाह, आग बन कर आया है।
पर, जो हम कर रहे, आज, उसका क्या होगा?
समझ नहीं नादान ! पाप से छूट गये हम
सुन कर गर्जन-गीत या कि हुंकार उठा कर।
अपनी रक्षा के निमित्त औरों को रण में
कटवाना है पाप ; पाप है यह विचार भी,
जगें युवक सीमा पर, पर सोने जाते हैं।
(६-११-६२ ई०)