shabd-logo

परशुराम की प्रतीक्षा

18 फरवरी 2022

27 बार देखा गया 27

 खण्ड-3 

किरिचों पर कोई नया स्वप्न ढोते हो ? 

किस नयी फसल के बीज वीर ! बोते हो ? 

  

दुर्दान्त दस्यु को सेल हूलते हैं हम; 

यम की दंष्ट्रा से खेल झूलते हैं हम। 

वैसे तो कोई बात नहीं कहने को, 

हम टूट रहे केवल स्वतंत्र रहने को। 

  

सामने देश माता का भव्य चरण है, 

जिह्वा पर जलता हुआ एक, बस प्रण है, 

काटेंगे अरि का मुण्ड कि स्वयं कटेंगे, 

पीछे, परन्तु, सीमा से नहीं हटेंगे। 

  

फूटेगी खर निर्झरी तप्त कुण्डों से, 

भर जायेगा नगराज रुण्ड-मुण्डों से। 

माँगेगी जो रणचण्डी भेंट, चढ़ेगी। 

लाशों पर चढ़ कर आगे फौज बढ़ेगी। 

  

पहली आहुति है अभी, यज्ञ चलने दो, 

दो हवा, देश की आज जरा जलने दो। 

जब हृदय-हृदय पावक से भर जायेगा, 

भारत का पूरा पाप उतर जायेगा; 

  

देखोगे, कैसा प्रलय चण्ड होता है ! 

असिवन्त हिन्द कितना प्रचण्ड होता है ! 

  

बाँहों से हम अम्बुधि अगाध थाहेंगे, 

धँस जायेगी यह धरा, अगर चाहेंगे। 

तूफान हमारे इंगित पर ठहरेंगे, 

हम जहाँ कहेंगे, मेघ वहीं घहरेंगे। 

  

जो असुर, हमें सुर समझ, आज हँसते हैं, 

वंचक श्रृगाल भूँकते, साँप डँसते हैं, 

कल यही कृपा के लिए हाथ जोडेंगे, 

भृकुटी विलोक दुष्टता-द्वन्द्व छोड़ेंगे। 

  

गरजो, अम्बर को भरो रणोच्चारों से, 

क्रोधान्ध रोर, हाँकों से, हुंकारों से। 

यह आग मात्र सीमा की नहीं लपट है, 

मूढ़ो ! स्वतंत्रता पर ही यह संकट है। 

  

जातीय गर्व पर क्रूर प्रहार हुआ है, 

माँ के किरीट पर ही यह वार हुआ है। 

अब जो सिर पर आ पड़े, नहीं डरना है, 

जनमे हैं तो दो बार नहीं मरना है। 

  

कुत्सित कलंक का बोध नहीं छोड़ेंगे, 

हम बिना लिये प्रतिशोध नहीं छोड़ेंगे, 

अरि का विरोध-अवरोध नहीं छोड़ेंगे, 

जब तक जीवित है, क्रोध नहीं छोड़ेंगे। 

  

गरजो हिमाद्रि के शिखर, तुंग पाटों पर, 

गुलमर्ग, विन्ध्य, पश्चिमी, पूर्व घाटों पर, 

भारत-समुद्र की लहर, ज्वार-भाटों पर, 

गरजो, गरजो मीनार और लाटों पर। 

  

खँडहरों, भग्न कोटों में, प्राचीरों में, 

जाह्नवी, नर्मदा, यमुना के तीरों में, 

कृष्णा-कछार में, कावेरी-कूलों में, 

चित्तौड़-सिंहगढ़ के समीप धूलों में— 

  

सोये हैं जो रणबली, उन्हें टेरो रे ! 

नूतन पर अपनी शिखा प्रत्न फेरो रे ! 

  

झकझोरो, झकझोरो महान् सुप्तों को, 

टेरो, टेरो चाणक्य-चन्द्रगुप्तों को; 

विक्रमी तेज, असि की उद्दाम प्रभा को, 

राणा प्रताप, गोविन्द, शिवा, सरजा को; 

  

वैराग्यवीर, बन्दा फकीर भाई को, 

टेरो, टेरो माता लक्ष्मीबाई को। 

  

आजन्म सहा जिसने न व्यंग्य थोड़ा था, 

आजिज आ कर जिसने स्वदेश को छोड़ा था, 

हम हाय, आज तक, जिसको गुहराते हैं, 

‘नेताजी अब आते हैं, अब आते हैं; 

  

साहसी, शूर-रस के उस मतवाले को, 

टेरो, टेरो आज़ाद हिन्दवाले को। 

  

खोजो, टीपू सुलतान कहाँ सोये हैं ? 

अशफ़ाक़ और उसमान कहाँ सोये हैं ? 

बमवाले वीर जवान कहाँ सोये हैं ? 

वे भगतसिंह बलवान कहाँ सोये हैं ? 

  

जा कहो, करें अब कृपा, नहीं रूठें वे, 

बम उठा बाज़ के सदृश व्यग्र टूटें वे। 

  

हम मान गये, जब क्रान्तिकाल होता है, 

सारी लपटों का रंग लाल होता है। 

जाग्रत पौरुष प्रज्वलित ज्वाल होता हैं, 

शूरत्व नहीं कोमल, कराल होता है। 

  

वास्तविक मर्म जीवन का जान गये हैं, 

हम भलीभाँति अघ को पहचान गये हैं। 

हम समझ गये हैं खूब धर्म के छल को, 

बम की महिमा को और विनय के बल को। 

  

हम मान गये, वे धीर नहीं उद्धत थे, 

वे सही, और हम विनयी बहुत गलत थे। 

जा कहो, करें अब क्षमा, नहीं रूठें वे; 

बम उठा बाज़ के सदृश व्यग्र टूटें वे। 

  

साधना स्वयं शोणित कर धार रही है, 

सतलुज को साबरमती पुकार रही है। 

  

वे उठें, देश उनके पीछे हो लेगा, 

हम कहते हैं, कोई न व्यंग्य बोलेगा। 

है कौन मूढ़, जो पिटक आज खोलेगा ? 

बोलेगा जय वह भी, न खड़ग जो लेगा । 

  

वे उठें, हाय, नाहक विलम्ब होता है, 

अपनी भूलों के लिए देश रोता है । 

  

जिसका सारा इतिहास तप्त, जगमग है, 

वीरता-वह्नि से भरी हुई रग-रग है, 

जिसके इतने बेटे रण झेल चुके हैं, 

शूली, किरीच, शोलों से खेल चुके हैं, 

  

उस वीर जाति को बन्दी कौन करेगा ? 

विकराल आग मुट्ठी में कौन धरेगा ? 

  

केवल कृपाण को नहीं, त्याग-तप को भी, 

टेरो, टरो साधना, यज्ञ, जप को भी । 

गरजो, तरंग से भरी आग भड़काओ, 

हो जहाँ तपी, तप से तुम उन्हें जगाओ। 

  

युग-युग से जो ऋद्धियाँ यहाँ उतरी हैं, 

सिद्धियाँ धर्म की जो भी छिपी, धरी हैं, 

उन सभी पावकों से प्रचण्डतम रण दो, 

शर और शाप, दोनों को आमन्त्रण दो। 

  

चिन्तको ! चिन्तन की तलवार गढ़ो रे । 

ऋषियो ! कृशानु-उद्दीपन मंत्र पढ़ो रे । 

योगियो ! जगो, जीवन की ओर बढ़ो रे । 

बन्दूकों पर अपना आलोक मढ़ो रे । 

  

है जहाँ कहीं भी तेज, हमें पाना है, 

रण में समग्र भारत को ले जाना है । 

  

पर्वतपति को आमूल डोलना होगा, 

शंकर को ध्वंसक नयन खोलना होगा। 

असि पर अशोक को मुण्ड तोलना होगा, 

गौतम को जयजयकार बोलना होगा। 

  

यह नहीं शान्ति की गुफा, युध्द है, रण है, 

तप नहीं, आज केवल तलवार शरण है । 

ललकार रहा भारत को स्वयं मरण है, 

हम जीतेंगे यह समर, हमारा प्रण है । 

   

22
रचनाएँ
परशुराम की प्रतीक्षा
0.0
परशुराम की प्रतीक्षा राष्ट्रकवि रामधारी सिंह 'दिनकर' द्वारा रचित खंडकाव्य की पुस्तक है। इस खंडकाव्य की रचना का काल 1962-63 के आसपास का है, जब चीनी आक्रमण के फलस्वरूप भारत को जिस पराजय का सामना करना पड़ा, उससे राष्ट्रकवि दिनकर अत्यंत व्यथित हुये और इस खंडकाव्य की रचना की।
1

परशुराम की प्रतीक्षा

18 फरवरी 2022
1
0
0

खण्ड-1 गरदन पर किसका पाप वीर ! ढोते हो ? शोणित से तुम किसका कलंक धोते हो ? उनका, जिनमें कारुण्य असीम तरल था, तारुण्य-ताप था नहीं, न रंच गरल था; सस्ती सुकीर्ति पा कर जो फूल गये थे, निर्वीर्य कल

2

परशुराम की प्रतीक्षा

18 फरवरी 2022
1
0
0

खण्ड-2  हे वीर बन्धु ! दायी है कौन विपद का ?  हम दोषी किसको कहें तुम्हारे वध का ?     यह गहन प्रश्न; कैसे रहस्य समझायें ?  दस-बीस अधिक हों तो हम नाम गिनायें।  पर, कदम-कदम पर यहाँ खड़ा पातक है, 

3

परशुराम की प्रतीक्षा

18 फरवरी 2022
0
0
0

 खण्ड-3  किरिचों पर कोई नया स्वप्न ढोते हो ?  किस नयी फसल के बीज वीर ! बोते हो ?     दुर्दान्त दस्यु को सेल हूलते हैं हम;  यम की दंष्ट्रा से खेल झूलते हैं हम।  वैसे तो कोई बात नहीं कहने को,  हम

4

परशुराम की प्रतीक्षा

18 फरवरी 2022
0
0
0

 खण्ड-4  कुछ पता नहीं, हम कौन बीज बोते हैं,  है कौन स्वप्न, हम जिसे यहाँ ढोते हैं।     पर, हाँ, वसुधा दानी है, नहीं कृपण है,  देता मनुष्य जब भी उसको जल-कण है।  यह दान वृथा वह कभी नहीं लेती है, 

5

परशुराम की प्रतीक्षा

18 फरवरी 2022
0
0
0

 खण्ड-5  (१)  सिखलायेगा वह, ऋत एक ही अनल है  जिन्दगी नहीं वह जहाँ नहीं हलचल है ।  जिनमें दाहकता नहीं, न तो गर्जन है,  सुख की तरंग का जहाँ अन्ध वर्जन है,  जो सत्य राख में सने, रुक्ष, रूठे हैं, 

6

जवानियाँ

18 फरवरी 2022
0
0
0

 नये सुरों में शिंजिनी बजा रहीं जवानियाँ  लहू में तैर-तैर के नहा रहीं जवानियाँ।     (1)  प्रभात-श्रृंग से घड़े सुवर्ण के उँड़ेलती;  रँगी हुई घटा में भानु को उछाल खेलती;  तुषार-जाल में सहस्र हेम-

7

हिम्मत की रौशनी

18 फरवरी 2022
0
0
0

 उसे भी देख, जो भीतर भरा अङ्गार है साथी।     (१)  सियाही देखता है, देखता है तू अन्धेरे को,  किरण को घेर कर छाये हुए विकराल घेरे को।  उसे भी देख, जो इस बाहरी तम को बहा सकती,  दबी तेरे लहू में रौश

8

लोहे के मर्द

18 फरवरी 2022
0
0
0

पुरुष वीर बलवान,  देश की शान,  हमारे नौजवान  घायल होकर आये हैं।     कहते हैं, ये पुष्प, दीप,  अक्षत क्यों लाये हो?     हमें कामना नहीं सुयश-विस्तार की,  फूलों के हारों की, जय-जयकार की।    

9

जनता जगी हुई है

18 फरवरी 2022
0
0
0

 जनता जगी हुई है।  क्रुद्ध सिंहिनी कुछ इस चिन्ता से भी ठगी हुई है।  कहाँ गये वे, जो पानी मे आग लगाते थे?  बजा-बजा दुन्दुभी रात-दिन हमें जगाते थे?  धरती पर है कौन ? कौन है सपनों के डेरों में ?  कौ

10

आज कसौटी पर गाँधी की आग है

18 फरवरी 2022
1
0
0

(१) अब भी पशु मत बनो, कहा है वीर जवाहरलाल ने। अन्धकार की दबी रौशनी की धीमी ललकार, कठिन घड़ी में भी भारत के मन की धीर पुकार। सुनती हो नागिनी ! समझती हो इस स्वर को ? देखा है क्या कहीं और भू पर उस

11

जौहर

18 फरवरी 2022
0
0
0

 जगता जब जहान,  उसे जब विपद जगाती है।     हँसी भूल बच्चे चिन्तन करने लगते हैं।  बहनें जाती डूब किसी गम्भीर ध्यान में।  कुसुम खोजने लगते अपनी आग,  ऊँघती नदी तेज होकर हहराती है।     पेड़ खड़े कर

12

आपद्धर्म

18 फरवरी 2022
0
0
0

 अरे उर्वशीकार !  कविता की गरदन पर धर कर पाँव खड़ा हो।  हमें चाहिए गर्म गीत, उन्माद प्रलय का,  अपनी ऊँचाई से तू कुछ और बड़ा हो।     कच्चा पानी ठीक नहीं,  ज्वर-ग्रसित देश है।  उबला हुआ समुष्ण सल

13

पाद-टिप्पणी

18 फरवरी 2022
0
0
0

 (युद्ध काव्य की)  मेरी कविताएँ सुनकर खुश होने वाले !  तुझे ज्ञात है, इन खुशियों का रहस्य क्या है?     मेरे सुख का राज? सभ्यता के भीतर से  उठती है जो हूक, बुद्धि को विकलाती है।  कोई उत्तर नहीं।

14

शान्तिवादी

18 फरवरी 2022
0
0
0

पुत्र मृत्यु के लिए, पिता रोने को,  माँ धुनने को सीस, वत्स आंसू पीने को,  लुटने को सिन्दूर,  उत्तराएँ विधवा होने को है        सरहद के उस पार हो कि इस पार हो,  युध्द सोचता नहीं, कौन किसका द्रोहा

15

अहिंसावादी का युद्ध-गीत

18 फरवरी 2022
0
0
0

 (1)  हाय, मैं लिखूँ युद्ध के गीत !  बन्धु ! हो गयी बड़ी अनरीत !  कण्ठ उस अन्तर के विपरीत ;  देशवासी ! जागो ! जागो !  गाँधी की रक्षा करने को गाँधी से भागो !     (2)  रुधिर में रखे शीत या ताप? 

16

इतिहास का न्याय

18 फरवरी 2022
0
0
0

दूर भविष्यत् के पट पर जो वाक्य लिखे हैं,  पढ़ लेना, भवितव्य अगर आगे जीवित रहने दे।     गाँधी, बुद्ध, अशोक नाम हैं बड़े दिव्य स्वप्नों के।  भारत स्वयं मनुष्य-जाति की बहुत बड़ी कविता है।     कह ले

17

एनार्की

18 फरवरी 2022
0
0
0

 (१)  "अरे, अरे, दिन-दहाड़े ही जुल्म ढाता है !  रेलवे का स्लीपर उठाये कहाँ जाता है?”     “बड़ा बेवकूफ है, अजब तेरा हाल है ;  तुझे क्या पड़ी है? य' तो सरकारी माल है।”     “नेता या प्रणेता ! तेरा

18

एक बार फिर स्वर दो-1

18 फरवरी 2022
0
0
0

 एक बार फिर स्वर दो।  अब भी वाणीहीन जनों की दुनिया बहुत बड़ी है।  आशा की बेटियाँ आज भी नीड़ों में सोती हैं  सुख से नहीं ; विवश उड़ने के पंख नहीं होने से,  और मूक इसलिए कि उनके कण्ठ नहीं खुलते हैं।

19

एक बार फिर स्वर दो-2

18 फरवरी 2022
0
0
0

एक बार फिर स्वर दो।  जिस गंगा के लिए भगीरथ सारी आयु तपे थे,  और हुई जो विवश छोड़ अम्बर भू पर बहने को  लाखों के आँसुओं, करोड़ों के हाहाकारों से ;  लिये जा रहा इन्द्र कैद करने को उसे महल में।  सींच

20

तब भी आता हूँ मैं

18 फरवरी 2022
0
0
0

 टूट गये युग के दरवाजे?  बन्द हो गयी क्या भविष्य की राह?  तब भी आता हूँ मैं     बल रहते ऐसी निर्बलता,  स्वर रहते स्वरवालों के शब्दों का अर्थाभाव !  दोपहरी में ऐसा तिमिर नहीं देखा था।     खिसक

21

समर शेष है

18 फरवरी 2022
1
0
0

ढीली करो धनुष की डोरी, तरकस का कस खोलो ,  किसने कहा, युद्ध की वेला चली गयी, शांति से बोलो?  किसने कहा, और मत वेधो ह्रदय वह्रि के शर से,  भरो भुवन का अंग कुंकुम से, कुसुम से, केसर से?     कुंकुम?

22

जवानी का झण्डा

18 फरवरी 2022
1
0
0

घटा फाड़ कर जगमगाता हुआ  आ गया देख, ज्वाला का बान;  खड़ा हो, जवानी का झंडा उड़ा,  ओ मेरे देश के नौजवान!     (1)  सहम करके चुप हो गये थे समुंदर  अभी सुन के तेरी दहाड़,  जमीं हिल रही थी, जहाँ हि

---

किताब पढ़िए

लेख पढ़िए