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परशुराम की प्रतीक्षा

18 फरवरी 2022

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खण्ड-2 

हे वीर बन्धु ! दायी है कौन विपद का ? 

हम दोषी किसको कहें तुम्हारे वध का ? 

  

यह गहन प्रश्न; कैसे रहस्य समझायें ? 

दस-बीस अधिक हों तो हम नाम गिनायें। 

पर, कदम-कदम पर यहाँ खड़ा पातक है, 

हर तरफ लगाये घात खड़ा घातक है। 

  

घातक है, जो देवता-सदृश दिखता है, 

लेकिन, कमरे में गलत हुक्म लिखता है, 

जिस पापी को गुण नहीं; गोत्र प्यारा है, 

समझो, उसने ही हमें यहाँ मारा है। 

  

जो सत्य जान कर भी न सत्य कहता है, 

या किसी लोभ के विवश मूक रहता है, 

उस कुटिल राजतन्त्री कदर्य को धिक् है, 

यह मूक सत्यहन्ता कम नहीं वधिक है। 

  

चोरों के हैं जो हितू, ठगों के बल हैं, 

जिनके प्रताप से पलते पाप सकल हैं, 

जो छल-प्रपंच, सब को प्रश्रय देते हैं, 

या चाटुकार जन से सेवा लेते हैं; 

  

यह पाप उन्हीं का हमको मार गया है, 

भारत अपने घर में ही हार गया है। 

  

है कौन यहाँ, कारण जो नहीं विपद् का ? 

किस पर जिम्मा है नहीं हमारे वध का ? 

जो चरम पाप है, हमें उसी की लत है, 

दैहिक बल को कहता यह देश गलत है। 

  

नेता निमग्न दिन-रात शान्ति-चिन्तन में, 

कवि-कलाकार ऊपर उड़ रहे गगन में। 

यज्ञाग्नि हिन्द में समिध नहीं पाती है, 

पौरुष की ज्वाला रोज बुझी जाती है। 

  

ओ बदनसीब अन्धो ! कमजोर अभागो ? 

अब भी तो खोलो नयन, नींद से जागो। 

वह अघी, बाहुबल का जो अपलापी है, 

जिसकी ज्वाला बुझ गयी, वही पापी है। 

  

जब तक प्रसन्न यह अनल, सुगुण हँसते है; 

है जहाँ खड्ग, सब पुण्य वहीं बसते हैं। 

वीरता जहाँ पर नहीं, पुण्य का क्षय है, 

वीरता जहाँ पर नहीं, स्वार्थ की जय है। 

  

तलवार पुण्य की सखी, धर्मपालक है, 

लालच पर अंकुश कठिन, लोभ-सालक है। 

असि छोड़, भीरु बन जहाँ धर्म सोता है, 

पातक प्रचण्डतम वहीं प्रकट होता है। 

  

तलवारें सोतीं जहाँ बन्द म्यानों में, 

किस्मतें वहाँ सड़ती है तहखानों में। 

बलिवेदी पर बालियाँ-नथें चढ़ती हैं, 

सोने की ईंटें, मगर, नहीं कढ़ती हैं। 

  

पूछो कुबेर से, कब सुवर्ण वे देंगे ? 

यदि आज नहीं तो सुयश और कब लेंगे ? 

तूफान उठेगा, प्रलय-वाण छूटेगा, 

है जहाँ स्वर्ण, बम वहीं, स्यात्, फूटेगा। 

  

जो करें, किन्तु, कंचन यह नहीं बचेगा, 

शायद, सुवर्ण पर ही संहार मचेगा। 

हम पर अपने पापों का बोझ न डालें, 

कह दो सब से, अपना दायित्व सँभालें। 

  

कह दो प्रपंचकारी, कपटी, जाली से, 

आलसी, अकर्मठ, काहिल, हड़ताली से, 

सी लें जबान, चुपचाप काम पर जायें, 

हम यहाँ रक्त, वे घर में स्वेद बहायें। 

  

हम दें उस को विजय, हमें तुम बल दो, 

दो शस्त्र और अपना संकल्प अटल दो। 

हों खड़े लोग कटिबद्ध वहाँ यदि घर में, 

है कौन हमें जीते जो यहाँ समर में ? 

  

हो जहाँ कहीं भी अनय, उसे रोको रे ! 

जो करें पाप शशि-सूर्य, उन्हें टोको रे ! 

  

जा कहो, पुण्य यदि बढ़ा नहीं शासन में, 

या आग सुलगती रही प्रजा के मन में; 

तामस बढ़ता यदि गया ढकेल प्रभा को, 

निर्बन्ध पन्थ यदि मिला नहीं प्रतिभा को, 

  

रिपु नहीं, यही अन्याय हमें मारेगा, 

अपने घर में ही फिर स्वदेश हारेगा।  

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रचनाएँ
परशुराम की प्रतीक्षा
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परशुराम की प्रतीक्षा राष्ट्रकवि रामधारी सिंह 'दिनकर' द्वारा रचित खंडकाव्य की पुस्तक है। इस खंडकाव्य की रचना का काल 1962-63 के आसपास का है, जब चीनी आक्रमण के फलस्वरूप भारत को जिस पराजय का सामना करना पड़ा, उससे राष्ट्रकवि दिनकर अत्यंत व्यथित हुये और इस खंडकाव्य की रचना की।
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परशुराम की प्रतीक्षा

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खण्ड-1 गरदन पर किसका पाप वीर ! ढोते हो ? शोणित से तुम किसका कलंक धोते हो ? उनका, जिनमें कारुण्य असीम तरल था, तारुण्य-ताप था नहीं, न रंच गरल था; सस्ती सुकीर्ति पा कर जो फूल गये थे, निर्वीर्य कल

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परशुराम की प्रतीक्षा

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खण्ड-2  हे वीर बन्धु ! दायी है कौन विपद का ?  हम दोषी किसको कहें तुम्हारे वध का ?     यह गहन प्रश्न; कैसे रहस्य समझायें ?  दस-बीस अधिक हों तो हम नाम गिनायें।  पर, कदम-कदम पर यहाँ खड़ा पातक है, 

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परशुराम की प्रतीक्षा

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 खण्ड-3  किरिचों पर कोई नया स्वप्न ढोते हो ?  किस नयी फसल के बीज वीर ! बोते हो ?     दुर्दान्त दस्यु को सेल हूलते हैं हम;  यम की दंष्ट्रा से खेल झूलते हैं हम।  वैसे तो कोई बात नहीं कहने को,  हम

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परशुराम की प्रतीक्षा

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 खण्ड-4  कुछ पता नहीं, हम कौन बीज बोते हैं,  है कौन स्वप्न, हम जिसे यहाँ ढोते हैं।     पर, हाँ, वसुधा दानी है, नहीं कृपण है,  देता मनुष्य जब भी उसको जल-कण है।  यह दान वृथा वह कभी नहीं लेती है, 

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परशुराम की प्रतीक्षा

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 खण्ड-5  (१)  सिखलायेगा वह, ऋत एक ही अनल है  जिन्दगी नहीं वह जहाँ नहीं हलचल है ।  जिनमें दाहकता नहीं, न तो गर्जन है,  सुख की तरंग का जहाँ अन्ध वर्जन है,  जो सत्य राख में सने, रुक्ष, रूठे हैं, 

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जवानियाँ

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 नये सुरों में शिंजिनी बजा रहीं जवानियाँ  लहू में तैर-तैर के नहा रहीं जवानियाँ।     (1)  प्रभात-श्रृंग से घड़े सुवर्ण के उँड़ेलती;  रँगी हुई घटा में भानु को उछाल खेलती;  तुषार-जाल में सहस्र हेम-

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लोहे के मर्द

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पुरुष वीर बलवान,  देश की शान,  हमारे नौजवान  घायल होकर आये हैं।     कहते हैं, ये पुष्प, दीप,  अक्षत क्यों लाये हो?     हमें कामना नहीं सुयश-विस्तार की,  फूलों के हारों की, जय-जयकार की।    

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पाद-टिप्पणी

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 (युद्ध काव्य की)  मेरी कविताएँ सुनकर खुश होने वाले !  तुझे ज्ञात है, इन खुशियों का रहस्य क्या है?     मेरे सुख का राज? सभ्यता के भीतर से  उठती है जो हूक, बुद्धि को विकलाती है।  कोई उत्तर नहीं।

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शान्तिवादी

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पुत्र मृत्यु के लिए, पिता रोने को,  माँ धुनने को सीस, वत्स आंसू पीने को,  लुटने को सिन्दूर,  उत्तराएँ विधवा होने को है        सरहद के उस पार हो कि इस पार हो,  युध्द सोचता नहीं, कौन किसका द्रोहा

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अहिंसावादी का युद्ध-गीत

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इतिहास का न्याय

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एनार्की

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 (१)  "अरे, अरे, दिन-दहाड़े ही जुल्म ढाता है !  रेलवे का स्लीपर उठाये कहाँ जाता है?”     “बड़ा बेवकूफ है, अजब तेरा हाल है ;  तुझे क्या पड़ी है? य' तो सरकारी माल है।”     “नेता या प्रणेता ! तेरा

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एक बार फिर स्वर दो-1

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 एक बार फिर स्वर दो।  अब भी वाणीहीन जनों की दुनिया बहुत बड़ी है।  आशा की बेटियाँ आज भी नीड़ों में सोती हैं  सुख से नहीं ; विवश उड़ने के पंख नहीं होने से,  और मूक इसलिए कि उनके कण्ठ नहीं खुलते हैं।

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एक बार फिर स्वर दो-2

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एक बार फिर स्वर दो।  जिस गंगा के लिए भगीरथ सारी आयु तपे थे,  और हुई जो विवश छोड़ अम्बर भू पर बहने को  लाखों के आँसुओं, करोड़ों के हाहाकारों से ;  लिये जा रहा इन्द्र कैद करने को उसे महल में।  सींच

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तब भी आता हूँ मैं

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 टूट गये युग के दरवाजे?  बन्द हो गयी क्या भविष्य की राह?  तब भी आता हूँ मैं     बल रहते ऐसी निर्बलता,  स्वर रहते स्वरवालों के शब्दों का अर्थाभाव !  दोपहरी में ऐसा तिमिर नहीं देखा था।     खिसक

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समर शेष है

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ढीली करो धनुष की डोरी, तरकस का कस खोलो ,  किसने कहा, युद्ध की वेला चली गयी, शांति से बोलो?  किसने कहा, और मत वेधो ह्रदय वह्रि के शर से,  भरो भुवन का अंग कुंकुम से, कुसुम से, केसर से?     कुंकुम?

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जवानी का झण्डा

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घटा फाड़ कर जगमगाता हुआ  आ गया देख, ज्वाला का बान;  खड़ा हो, जवानी का झंडा उड़ा,  ओ मेरे देश के नौजवान!     (1)  सहम करके चुप हो गये थे समुंदर  अभी सुन के तेरी दहाड़,  जमीं हिल रही थी, जहाँ हि

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