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जवानियाँ

18 फरवरी 2022

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 नये सुरों में शिंजिनी बजा रहीं जवानियाँ 

लहू में तैर-तैर के नहा रहीं जवानियाँ। 

  

(1) 

प्रभात-श्रृंग से घड़े सुवर्ण के उँड़ेलती; 

रँगी हुई घटा में भानु को उछाल खेलती; 

तुषार-जाल में सहस्र हेम-दीप बालती, 

समुद्र की तरंग में हिरण्य-धूलि डालती; 

  

सुनील चीर को सुवर्ण-बीच बोरती हुई, 

धरा के ताल-ताल में उसे निचोड़ती हुई; 

उषा के हाथ की विभा लुटा रहीं जवानियाँ। 

  

(2) 

घनों के पार बैठ तार बीन के चढ़ा रहीं, 

सुमन्द्र नाद में मलार विश्व को सुना रहीं; 

अभी कहीं लटें निचोड़ती, जमीन सींचती, 

अभी बढ़ीं घटा में क्रुद्ध काल-खड्ग खींचती; 

  

पड़ीं व’ टूट देख लो, अजस्र वारिधार में, 

चलीं व बाढ़ बन, नहीं समा सकी कगार में। 

रुकावटों को तोड़-फोड़ छा रहीं जवानियाँ। 

  

(3) 

हटो तमीचरो, कि हो चुकी समाप्त रात है, 

कुहेलिका के पार जगमगा रहा प्रभात है। 

लपेट में समेटता रुकावटों को तोड़ के, 

प्रकाश का प्रवाह आ रहा दिगन्त फोड़ के! 

  

विशीर्ण डालियाँ महीरुहों की टूटने लगीं; 

शमा की झालरें व’ टक्करों से फूटने लगीं। 

चढ़ी हुई प्रभंजनों प’ आ रहीं जवानियाँ। 

  

(4) 

घटा को फाड़ व्योम बीच गूँजती दहाड़ है, 

जमीन डोलती है और डोलता पहाड़ है; 

भुजंग दिग्गजों से, कूर्मराज त्रस्त कोल से, 

धरा उछल-उछल के बात पूछती खगोल से। 

  

कि क्या हुआ है सृष्टि को? न एक अंग शान्त है; 

प्रकोप रुद्र का? कि कल्पनाश है, युगान्त है? 

जवानियों की धूम-सी मचा रहीं जवानियाँ। 

  

(5) 

समस्त सूर्य-लोक एक हाथ में लिये हुए, 

दबा के एक पाँव चन्द्र-भाल पर दिये हुए, 

खगोल में धुआँ बिखेरती प्रतप्त श्वास से, 

भविष्य को पुकारती हुई प्रचण्ड हास से; 

  

उछाल देव-लोक को मही से तोलती हुई, 

मनुष्य के प्रताप का रहस्य खोलती हुई; 

विराट रूप विश्व को दिखा रहीं जवानियाँ। 

  

(6) 

मही प्रदीप्त है, दिशा-दिगन्त लाल-लाल है, 

व’ देख लो, जवानियों की जल रही मशाल है; 

व’ गिर रहे हैं आग में पहाड़ टूट-टूट के, 

व’ आसमाँ से आ रहे हैं रत्न छूट-छूट के; 

  

उठो, उठो कुरीतियों की राह तुम भी रोक दो, 

बढ़ो, बढ़ो, कि आग में गुलामियों को झोंक दो, 

परम्परा की होलिका जला रहीं जवानियाँ। 

  

(7) 

व’ देख लो, खड़ी है कौन तोप के निशान पर; 

व’ देख लो, अड़ी है कौन जिन्दगी की आन पर; 

व’ कौन थी जो कूद के अभी गिरी है आग में? 

लहू बहा? कि तेल आ गिरा नया चिराग में? 

  

अहा, व अश्रु था कि प्रेम का दबा उफान था? 

हँसी थी या कि चित्र में सजीव, मौन गान था? 

अलभ्य भेंट काल को चढ़ा रहीं जवानियाँ। 

  

(8) 

अहा, कि एक रात चाँदनी-भरी सुहावनी, 

अहा, कि एक बात प्रेम की बड़ी लुभावनी; 

अहा, कि एक याद दूब-सी मरुप्रदेश में, 

अहा, कि एक चाँद जो छिपा विदग्ध वेश में; 

  

अहा, पुकार कर्म की; अहा, री पीर मर्म की, 

अहा, कि प्रीति भेंट जा चढ़ी कठोर धर्म की। 

अहा, कि आँसुओं में मुस्कुरा रहीं जवानियाँ। 

(१९४५)  

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रचनाएँ
परशुराम की प्रतीक्षा
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परशुराम की प्रतीक्षा राष्ट्रकवि रामधारी सिंह 'दिनकर' द्वारा रचित खंडकाव्य की पुस्तक है। इस खंडकाव्य की रचना का काल 1962-63 के आसपास का है, जब चीनी आक्रमण के फलस्वरूप भारत को जिस पराजय का सामना करना पड़ा, उससे राष्ट्रकवि दिनकर अत्यंत व्यथित हुये और इस खंडकाव्य की रचना की।
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परशुराम की प्रतीक्षा

18 फरवरी 2022
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खण्ड-1 गरदन पर किसका पाप वीर ! ढोते हो ? शोणित से तुम किसका कलंक धोते हो ? उनका, जिनमें कारुण्य असीम तरल था, तारुण्य-ताप था नहीं, न रंच गरल था; सस्ती सुकीर्ति पा कर जो फूल गये थे, निर्वीर्य कल

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परशुराम की प्रतीक्षा

18 फरवरी 2022
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खण्ड-2  हे वीर बन्धु ! दायी है कौन विपद का ?  हम दोषी किसको कहें तुम्हारे वध का ?     यह गहन प्रश्न; कैसे रहस्य समझायें ?  दस-बीस अधिक हों तो हम नाम गिनायें।  पर, कदम-कदम पर यहाँ खड़ा पातक है, 

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परशुराम की प्रतीक्षा

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 खण्ड-3  किरिचों पर कोई नया स्वप्न ढोते हो ?  किस नयी फसल के बीज वीर ! बोते हो ?     दुर्दान्त दस्यु को सेल हूलते हैं हम;  यम की दंष्ट्रा से खेल झूलते हैं हम।  वैसे तो कोई बात नहीं कहने को,  हम

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परशुराम की प्रतीक्षा

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 खण्ड-4  कुछ पता नहीं, हम कौन बीज बोते हैं,  है कौन स्वप्न, हम जिसे यहाँ ढोते हैं।     पर, हाँ, वसुधा दानी है, नहीं कृपण है,  देता मनुष्य जब भी उसको जल-कण है।  यह दान वृथा वह कभी नहीं लेती है, 

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परशुराम की प्रतीक्षा

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 खण्ड-5  (१)  सिखलायेगा वह, ऋत एक ही अनल है  जिन्दगी नहीं वह जहाँ नहीं हलचल है ।  जिनमें दाहकता नहीं, न तो गर्जन है,  सुख की तरंग का जहाँ अन्ध वर्जन है,  जो सत्य राख में सने, रुक्ष, रूठे हैं, 

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जवानियाँ

18 फरवरी 2022
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 नये सुरों में शिंजिनी बजा रहीं जवानियाँ  लहू में तैर-तैर के नहा रहीं जवानियाँ।     (1)  प्रभात-श्रृंग से घड़े सुवर्ण के उँड़ेलती;  रँगी हुई घटा में भानु को उछाल खेलती;  तुषार-जाल में सहस्र हेम-

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हिम्मत की रौशनी

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 उसे भी देख, जो भीतर भरा अङ्गार है साथी।     (१)  सियाही देखता है, देखता है तू अन्धेरे को,  किरण को घेर कर छाये हुए विकराल घेरे को।  उसे भी देख, जो इस बाहरी तम को बहा सकती,  दबी तेरे लहू में रौश

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लोहे के मर्द

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पुरुष वीर बलवान,  देश की शान,  हमारे नौजवान  घायल होकर आये हैं।     कहते हैं, ये पुष्प, दीप,  अक्षत क्यों लाये हो?     हमें कामना नहीं सुयश-विस्तार की,  फूलों के हारों की, जय-जयकार की।    

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जनता जगी हुई है

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 जनता जगी हुई है।  क्रुद्ध सिंहिनी कुछ इस चिन्ता से भी ठगी हुई है।  कहाँ गये वे, जो पानी मे आग लगाते थे?  बजा-बजा दुन्दुभी रात-दिन हमें जगाते थे?  धरती पर है कौन ? कौन है सपनों के डेरों में ?  कौ

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आज कसौटी पर गाँधी की आग है

18 फरवरी 2022
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(१) अब भी पशु मत बनो, कहा है वीर जवाहरलाल ने। अन्धकार की दबी रौशनी की धीमी ललकार, कठिन घड़ी में भी भारत के मन की धीर पुकार। सुनती हो नागिनी ! समझती हो इस स्वर को ? देखा है क्या कहीं और भू पर उस

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जौहर

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 जगता जब जहान,  उसे जब विपद जगाती है।     हँसी भूल बच्चे चिन्तन करने लगते हैं।  बहनें जाती डूब किसी गम्भीर ध्यान में।  कुसुम खोजने लगते अपनी आग,  ऊँघती नदी तेज होकर हहराती है।     पेड़ खड़े कर

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आपद्धर्म

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 अरे उर्वशीकार !  कविता की गरदन पर धर कर पाँव खड़ा हो।  हमें चाहिए गर्म गीत, उन्माद प्रलय का,  अपनी ऊँचाई से तू कुछ और बड़ा हो।     कच्चा पानी ठीक नहीं,  ज्वर-ग्रसित देश है।  उबला हुआ समुष्ण सल

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पाद-टिप्पणी

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 (युद्ध काव्य की)  मेरी कविताएँ सुनकर खुश होने वाले !  तुझे ज्ञात है, इन खुशियों का रहस्य क्या है?     मेरे सुख का राज? सभ्यता के भीतर से  उठती है जो हूक, बुद्धि को विकलाती है।  कोई उत्तर नहीं।

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शान्तिवादी

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पुत्र मृत्यु के लिए, पिता रोने को,  माँ धुनने को सीस, वत्स आंसू पीने को,  लुटने को सिन्दूर,  उत्तराएँ विधवा होने को है        सरहद के उस पार हो कि इस पार हो,  युध्द सोचता नहीं, कौन किसका द्रोहा

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अहिंसावादी का युद्ध-गीत

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 (1)  हाय, मैं लिखूँ युद्ध के गीत !  बन्धु ! हो गयी बड़ी अनरीत !  कण्ठ उस अन्तर के विपरीत ;  देशवासी ! जागो ! जागो !  गाँधी की रक्षा करने को गाँधी से भागो !     (2)  रुधिर में रखे शीत या ताप? 

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इतिहास का न्याय

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दूर भविष्यत् के पट पर जो वाक्य लिखे हैं,  पढ़ लेना, भवितव्य अगर आगे जीवित रहने दे।     गाँधी, बुद्ध, अशोक नाम हैं बड़े दिव्य स्वप्नों के।  भारत स्वयं मनुष्य-जाति की बहुत बड़ी कविता है।     कह ले

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एनार्की

18 फरवरी 2022
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 (१)  "अरे, अरे, दिन-दहाड़े ही जुल्म ढाता है !  रेलवे का स्लीपर उठाये कहाँ जाता है?”     “बड़ा बेवकूफ है, अजब तेरा हाल है ;  तुझे क्या पड़ी है? य' तो सरकारी माल है।”     “नेता या प्रणेता ! तेरा

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एक बार फिर स्वर दो-1

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 एक बार फिर स्वर दो।  अब भी वाणीहीन जनों की दुनिया बहुत बड़ी है।  आशा की बेटियाँ आज भी नीड़ों में सोती हैं  सुख से नहीं ; विवश उड़ने के पंख नहीं होने से,  और मूक इसलिए कि उनके कण्ठ नहीं खुलते हैं।

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एक बार फिर स्वर दो-2

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एक बार फिर स्वर दो।  जिस गंगा के लिए भगीरथ सारी आयु तपे थे,  और हुई जो विवश छोड़ अम्बर भू पर बहने को  लाखों के आँसुओं, करोड़ों के हाहाकारों से ;  लिये जा रहा इन्द्र कैद करने को उसे महल में।  सींच

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तब भी आता हूँ मैं

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 टूट गये युग के दरवाजे?  बन्द हो गयी क्या भविष्य की राह?  तब भी आता हूँ मैं     बल रहते ऐसी निर्बलता,  स्वर रहते स्वरवालों के शब्दों का अर्थाभाव !  दोपहरी में ऐसा तिमिर नहीं देखा था।     खिसक

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समर शेष है

18 फरवरी 2022
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ढीली करो धनुष की डोरी, तरकस का कस खोलो ,  किसने कहा, युद्ध की वेला चली गयी, शांति से बोलो?  किसने कहा, और मत वेधो ह्रदय वह्रि के शर से,  भरो भुवन का अंग कुंकुम से, कुसुम से, केसर से?     कुंकुम?

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जवानी का झण्डा

18 फरवरी 2022
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घटा फाड़ कर जगमगाता हुआ  आ गया देख, ज्वाला का बान;  खड़ा हो, जवानी का झंडा उड़ा,  ओ मेरे देश के नौजवान!     (1)  सहम करके चुप हो गये थे समुंदर  अभी सुन के तेरी दहाड़,  जमीं हिल रही थी, जहाँ हि

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