अरे उर्वशीकार !
कविता की गरदन पर धर कर पाँव खड़ा हो।
हमें चाहिए गर्म गीत, उन्माद प्रलय का,
अपनी ऊँचाई से तू कुछ और बड़ा हो।
कच्चा पानी ठीक नहीं,
ज्वर-ग्रसित देश है।
उबला हुआ समुष्ण सलिल है पथ्य,
वही परिशोधित जल दे।
जाड़े की है रात, गीत की गरमाहट दे,
तप्त अनल दे।
रोज पत्र आते हैं, जलते गान लिखूँ मैं,
जितना हूँ, उससे कुछ अधिक जवान दिखूँ मैं।
और, सत्य ही, मैं भी युग के ज्वरावेग से चूर,
दूर उर्वशी-लोक से,
गयी जवानी की बुझती भट्ठी फिर सुलगाता हूँ।
जितनी ही फैलती देश में भीति युद्ध की,
मैं उतना ही कण्ठ फाड़, कुछ और जोर से,
चिल्लाता, चीखता, युद्ध के अन्ध गीत गाता हूँ।
किन्तु, हृदय से जब भी कोई आग उमड़ कर
चट्टानों की वज्र-मधुर रागिनी
कण्ठ-स्वर में भरने आती है,
ताप और आलोक, जहाँ दोनों बसते आये थे,
वहाँ दहकते अँगारे केवल धरने आती है ;
तभी प्राण के किसी निभृत कोने से,
कहता है कोई, माना, विस्फोट नहीं यह व्यर्थ है,
किन्तु, बुलाने को जिसको तू गरज रहा है,
उसे पास लाने में केवल गर्जन नहीं समर्थ है।
रोष, घोष, स्वर नहीं, मौन शूरता मनुज का धन है।
और शूरता नहीं मात्र अंगार,
शूरता नहीं मात्र रण में प्रकोप धुँधुआती तलवार ;
शूरता स्वस्थ जाति का चिर-अनिद्र, जाग्रत स्वभाव,
शूरत्व मृत्यु के वरने का निर्भीक भाव;
शूरत्व त्याग; शूरता बुद्धि की प्रखर आग;
शूरत्व मनुज का द्विध-मुक्त चिन्तन है।
विजय-केतु गाड़ते वीर जिस गगनजयी चोटी पर,
पहले वह मन की उमंग के बीच चढ़ी जाती है,
विद्युत बन छूटती समर में जो कृपाण लोहे की,
भट्ठी में पीछे, विचार में प्रथम गढ़ी जाती है।
आँख खोलकर देख, बड़ी से बड़ी सिद्धि का
कारण केवल एक अंश तलवार है ;
तीन अंश उसका निमित्त संकल्प-बुद्धि है,
आशा है, साहस है, शुद्ध विचार है।
सोच, कहाँ है उस दुरन्त
पापिनी बुद्धि का मूल, तुझे जो
बार-बार आकर अपनी छलना से छल जाती है?
बार-बार तू उदय-श्रृंग पर चढ़ क्यों गिर जाता है?
बार-बार कर में आकर क्यों सिद्धि निकल जाती है?
ओ विराग को सकल सुकृत का मर्म समझने वाले!
आत्मघात को उच्च धर्म के हित अर्पित बलिदान,
शत्रु के रक्त-पान को
मानवता का पतन, कलुष का कर्म समझने वाले!
ओ निराग्नि ! ओ शान्त ! प्रश्न तेरा गम्भीर, गहन है।
रोष, घोष, हुंकार, गर्जनों से उद्धार न होगा।
भुजा नहीं बलहीन,
रक्त की आभा नहीं मलीन,
अरे, ओ नर पवित्र ! प्राचीन !
दीन, लेकिन, तेरा चिन्तन है।
विजय चाहता है, सचमुच,
तू अगर विषैले नाग पर,
तो कहता हूँ, सुन,
दिल में जो आग लगी है,
उसे बुद्धि में घोल,
उठाकर ले जा उसे दिमाग पर।
तुझ से जो माँगते उबलते गीत अनल के,
पूछ कि वे कूटस्थ आग लेकर क्या भला करेंगे?
क्या प्रमाण है, यह सूखी बारूद नहीं सीलेगी?
घर में बिखरी हुई बर्फ वे कहाँ समेट धरेंगे?
अच्छा है, वे लड़े नहीं, जिनके जीवन में
विचिकित्सा जीवित है धर्म-अधर्म की।
अच्छा है, वे अड़ें आन पर नहीं,
न खेलें कभी जान पर,
चबा रही है जिन्हें युगों से
दुविधा कर्म-अकर्म की।
क्योंकि युद्ध में जीत कभी भी उसे नहीं मिलती है,
प्रज्ञा जिसकी विकल,
द्विधा-कुण्ठित कृपाण की धार है,
परम धर्म पर टिकने की सामर्थ्य नहीं है
और न आपद्धर्म जिसे स्वीकार है।
तुझसे जो माँगते उबलते गीत अनल के,
पूछ, धर्म की वे किंचित् सीमा स्वीकार करेंगे?
मानवीय मूल्यों की जब कुछ आहुतियाँ पड़ती हों,
रोयेंगे तो नहीं? पाप से तो वे नहीं डरेंगे?
अगर कहे तू, युद्ध, पुष्प, बमबाजी फुलझड़ियाँ हैं,
ये रोने की नहीं, मस्त, खुश होने की घड़ियाँ हैं ;
दाँतों से तर्जनी दबा वे चुप तो नहीं रहेंगे?
तुझ को वे दानव या दीवाना तो नहीं कहेंगे?
तब भी श्येन-धर्म ही सच है, गलत युद्ध में पिक है,
पूर्ण चेतना ग़लत, आज पागलपन स्वाभाविक है।
जूझ वीरता से, प्रचण्डता से, बलिष्ठ तन, मन से;
आँख मूँद कर जूझ अन्ध निर्दयता, पागलपन से।
समर पाप साकार, समर क्रीड़ा है पागलपन की,
सभी द्विधाएँ व्यर्थ समर में साध्य और साधन की।
एक वस्तु है ग्राह्य युद्ध में,
और सभी कुछ देय है ;
पुण्य हो कि हो पाप,
जीत केवल दोनों का ध्येय है।
सच है, छल की विजय, अन्त तक,
विजय नहीं, अभिशाप है।
किन्तु, भूल मत, और पाप जितने घातक हों,
समर हारने से बढ़कर घातक न दूसरा पाप है।
(१०-१२-६२ ई०)