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आपद्धर्म

18 फरवरी 2022

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 अरे उर्वशीकार ! 

कविता की गरदन पर धर कर पाँव खड़ा हो। 

हमें चाहिए गर्म गीत, उन्माद प्रलय का, 

अपनी ऊँचाई से तू कुछ और बड़ा हो। 

  

कच्चा पानी ठीक नहीं, 

ज्वर-ग्रसित देश है। 

उबला हुआ समुष्ण सलिल है पथ्य, 

वही परिशोधित जल दे। 

जाड़े की है रात, गीत की गरमाहट दे, 

तप्त अनल दे। 

  

रोज पत्र आते हैं, जलते गान लिखूँ मैं, 

जितना हूँ, उससे कुछ अधिक जवान दिखूँ मैं। 

  

और, सत्य ही, मैं भी युग के ज्वरावेग से चूर, 

दूर उर्वशी-लोक से, 

गयी जवानी की बुझती भट्ठी फिर सुलगाता हूँ। 

जितनी ही फैलती देश में भीति युद्ध की, 

मैं उतना ही कण्ठ फाड़, कुछ और जोर से, 

चिल्लाता, चीखता, युद्ध के अन्ध गीत गाता हूँ। 

  

किन्तु, हृदय से जब भी कोई आग उमड़ कर 

चट्टानों की वज्र-मधुर रागिनी 

कण्ठ-स्वर में भरने आती है, 

ताप और आलोक, जहाँ दोनों बसते आये थे, 

वहाँ दहकते अँगारे केवल धरने आती है ; 

तभी प्राण के किसी निभृत कोने से, 

कहता है कोई, माना, विस्फोट नहीं यह व्यर्थ है, 

किन्तु, बुलाने को जिसको तू गरज रहा है, 

उसे पास लाने में केवल गर्जन नहीं समर्थ है। 

  

रोष, घोष, स्वर नहीं, मौन शूरता मनुज का धन है। 

और शूरता नहीं मात्र अंगार, 

शूरता नहीं मात्र रण में प्रकोप धुँधुआती तलवार ; 

शूरता स्वस्थ जाति का चिर-अनिद्र, जाग्रत स्वभाव, 

शूरत्व मृत्यु के वरने का निर्भीक भाव; 

शूरत्व त्याग; शूरता बुद्धि की प्रखर आग; 

शूरत्व मनुज का द्विध-मुक्त चिन्तन है। 

  

विजय-केतु गाड़ते वीर जिस गगनजयी चोटी पर, 

पहले वह मन की उमंग के बीच चढ़ी जाती है, 

विद्युत बन छूटती समर में जो कृपाण लोहे की, 

भट्ठी में पीछे, विचार में प्रथम गढ़ी जाती है। 

  

आँख खोलकर देख, बड़ी से बड़ी सिद्धि का 

कारण केवल एक अंश तलवार है ; 

तीन अंश उसका निमित्त संकल्प-बुद्धि है, 

आशा है, साहस है, शुद्ध विचार है। 

  

सोच, कहाँ है उस दुरन्त 

पापिनी बुद्धि का मूल, तुझे जो 

बार-बार आकर अपनी छलना से छल जाती है? 

बार-बार तू उदय-श्रृंग पर चढ़ क्यों गिर जाता है? 

बार-बार कर में आकर क्यों सिद्धि निकल जाती है? 

ओ विराग को सकल सुकृत का मर्म समझने वाले! 

आत्मघात को उच्च धर्म के हित अर्पित बलिदान, 

शत्रु के रक्त-पान को 

मानवता का पतन, कलुष का कर्म समझने वाले! 

  

ओ निराग्नि ! ओ शान्त ! प्रश्न तेरा गम्भीर, गहन है। 

रोष, घोष, हुंकार, गर्जनों से उद्धार न होगा। 

भुजा नहीं बलहीन, 

रक्त की आभा नहीं मलीन, 

अरे, ओ नर पवित्र ! प्राचीन ! 

दीन, लेकिन, तेरा चिन्तन है। 

  

विजय चाहता है, सचमुच, 

तू अगर विषैले नाग पर, 

तो कहता हूँ, सुन, 

दिल में जो आग लगी है, 

उसे बुद्धि में घोल, 

उठाकर ले जा उसे दिमाग पर। 

  

तुझ से जो माँगते उबलते गीत अनल के, 

पूछ कि वे कूटस्थ आग लेकर क्या भला करेंगे? 

क्या प्रमाण है, यह सूखी बारूद नहीं सीलेगी? 

घर में बिखरी हुई बर्फ वे कहाँ समेट धरेंगे? 

  

अच्छा है, वे लड़े नहीं, जिनके जीवन में 

विचिकित्सा जीवित है धर्म-अधर्म की। 

अच्छा है, वे अड़ें आन पर नहीं, 

न खेलें कभी जान पर, 

चबा रही है जिन्हें युगों से 

दुविधा कर्म-अकर्म की। 

क्योंकि युद्ध में जीत कभी भी उसे नहीं मिलती है, 

प्रज्ञा जिसकी विकल, 

द्विधा-कुण्ठित कृपाण की धार है, 

परम धर्म पर टिकने की सामर्थ्य नहीं है 

और न आपद्धर्म जिसे स्वीकार है। 

  

तुझसे जो माँगते उबलते गीत अनल के, 

पूछ, धर्म की वे किंचित् सीमा स्वीकार करेंगे? 

मानवीय मूल्यों की जब कुछ आहुतियाँ पड़ती हों, 

रोयेंगे तो नहीं? पाप से तो वे नहीं डरेंगे? 

  

अगर कहे तू, युद्ध, पुष्प, बमबाजी फुलझड़ियाँ हैं, 

ये रोने की नहीं, मस्त, खुश होने की घड़ियाँ हैं ; 

दाँतों से तर्जनी दबा वे चुप तो नहीं रहेंगे? 

तुझ को वे दानव या दीवाना तो नहीं कहेंगे? 

  

तब भी श्येन-धर्म ही सच है, गलत युद्ध में पिक है, 

पूर्ण चेतना ग़लत, आज पागलपन स्वाभाविक है। 

  

जूझ वीरता से, प्रचण्डता से, बलिष्ठ तन, मन से; 

आँख मूँद कर जूझ अन्ध निर्दयता, पागलपन से। 

  

समर पाप साकार, समर क्रीड़ा है पागलपन की, 

सभी द्विधाएँ व्यर्थ समर में साध्य और साधन की। 

  

एक वस्तु है ग्राह्य युद्ध में, 

और सभी कुछ देय है ; 

पुण्य हो कि हो पाप, 

जीत केवल दोनों का ध्येय है। 

  

सच है, छल की विजय, अन्त तक, 

विजय नहीं, अभिशाप है। 

किन्तु, भूल मत, और पाप जितने घातक हों, 

समर हारने से बढ़कर घातक न दूसरा पाप है। 

(१०-१२-६२ ई०)  

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रचनाएँ
परशुराम की प्रतीक्षा
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परशुराम की प्रतीक्षा राष्ट्रकवि रामधारी सिंह 'दिनकर' द्वारा रचित खंडकाव्य की पुस्तक है। इस खंडकाव्य की रचना का काल 1962-63 के आसपास का है, जब चीनी आक्रमण के फलस्वरूप भारत को जिस पराजय का सामना करना पड़ा, उससे राष्ट्रकवि दिनकर अत्यंत व्यथित हुये और इस खंडकाव्य की रचना की।
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परशुराम की प्रतीक्षा

18 फरवरी 2022
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खण्ड-1 गरदन पर किसका पाप वीर ! ढोते हो ? शोणित से तुम किसका कलंक धोते हो ? उनका, जिनमें कारुण्य असीम तरल था, तारुण्य-ताप था नहीं, न रंच गरल था; सस्ती सुकीर्ति पा कर जो फूल गये थे, निर्वीर्य कल

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परशुराम की प्रतीक्षा

18 फरवरी 2022
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खण्ड-2  हे वीर बन्धु ! दायी है कौन विपद का ?  हम दोषी किसको कहें तुम्हारे वध का ?     यह गहन प्रश्न; कैसे रहस्य समझायें ?  दस-बीस अधिक हों तो हम नाम गिनायें।  पर, कदम-कदम पर यहाँ खड़ा पातक है, 

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परशुराम की प्रतीक्षा

18 फरवरी 2022
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 खण्ड-3  किरिचों पर कोई नया स्वप्न ढोते हो ?  किस नयी फसल के बीज वीर ! बोते हो ?     दुर्दान्त दस्यु को सेल हूलते हैं हम;  यम की दंष्ट्रा से खेल झूलते हैं हम।  वैसे तो कोई बात नहीं कहने को,  हम

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परशुराम की प्रतीक्षा

18 फरवरी 2022
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 खण्ड-4  कुछ पता नहीं, हम कौन बीज बोते हैं,  है कौन स्वप्न, हम जिसे यहाँ ढोते हैं।     पर, हाँ, वसुधा दानी है, नहीं कृपण है,  देता मनुष्य जब भी उसको जल-कण है।  यह दान वृथा वह कभी नहीं लेती है, 

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परशुराम की प्रतीक्षा

18 फरवरी 2022
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 खण्ड-5  (१)  सिखलायेगा वह, ऋत एक ही अनल है  जिन्दगी नहीं वह जहाँ नहीं हलचल है ।  जिनमें दाहकता नहीं, न तो गर्जन है,  सुख की तरंग का जहाँ अन्ध वर्जन है,  जो सत्य राख में सने, रुक्ष, रूठे हैं, 

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जवानियाँ

18 फरवरी 2022
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 नये सुरों में शिंजिनी बजा रहीं जवानियाँ  लहू में तैर-तैर के नहा रहीं जवानियाँ।     (1)  प्रभात-श्रृंग से घड़े सुवर्ण के उँड़ेलती;  रँगी हुई घटा में भानु को उछाल खेलती;  तुषार-जाल में सहस्र हेम-

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हिम्मत की रौशनी

18 फरवरी 2022
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 उसे भी देख, जो भीतर भरा अङ्गार है साथी।     (१)  सियाही देखता है, देखता है तू अन्धेरे को,  किरण को घेर कर छाये हुए विकराल घेरे को।  उसे भी देख, जो इस बाहरी तम को बहा सकती,  दबी तेरे लहू में रौश

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लोहे के मर्द

18 फरवरी 2022
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पुरुष वीर बलवान,  देश की शान,  हमारे नौजवान  घायल होकर आये हैं।     कहते हैं, ये पुष्प, दीप,  अक्षत क्यों लाये हो?     हमें कामना नहीं सुयश-विस्तार की,  फूलों के हारों की, जय-जयकार की।    

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जनता जगी हुई है

18 फरवरी 2022
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 जनता जगी हुई है।  क्रुद्ध सिंहिनी कुछ इस चिन्ता से भी ठगी हुई है।  कहाँ गये वे, जो पानी मे आग लगाते थे?  बजा-बजा दुन्दुभी रात-दिन हमें जगाते थे?  धरती पर है कौन ? कौन है सपनों के डेरों में ?  कौ

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आज कसौटी पर गाँधी की आग है

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(१) अब भी पशु मत बनो, कहा है वीर जवाहरलाल ने। अन्धकार की दबी रौशनी की धीमी ललकार, कठिन घड़ी में भी भारत के मन की धीर पुकार। सुनती हो नागिनी ! समझती हो इस स्वर को ? देखा है क्या कहीं और भू पर उस

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जौहर

18 फरवरी 2022
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 जगता जब जहान,  उसे जब विपद जगाती है।     हँसी भूल बच्चे चिन्तन करने लगते हैं।  बहनें जाती डूब किसी गम्भीर ध्यान में।  कुसुम खोजने लगते अपनी आग,  ऊँघती नदी तेज होकर हहराती है।     पेड़ खड़े कर

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आपद्धर्म

18 फरवरी 2022
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पाद-टिप्पणी

18 फरवरी 2022
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 (युद्ध काव्य की)  मेरी कविताएँ सुनकर खुश होने वाले !  तुझे ज्ञात है, इन खुशियों का रहस्य क्या है?     मेरे सुख का राज? सभ्यता के भीतर से  उठती है जो हूक, बुद्धि को विकलाती है।  कोई उत्तर नहीं।

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शान्तिवादी

18 फरवरी 2022
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पुत्र मृत्यु के लिए, पिता रोने को,  माँ धुनने को सीस, वत्स आंसू पीने को,  लुटने को सिन्दूर,  उत्तराएँ विधवा होने को है        सरहद के उस पार हो कि इस पार हो,  युध्द सोचता नहीं, कौन किसका द्रोहा

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अहिंसावादी का युद्ध-गीत

18 फरवरी 2022
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 (1)  हाय, मैं लिखूँ युद्ध के गीत !  बन्धु ! हो गयी बड़ी अनरीत !  कण्ठ उस अन्तर के विपरीत ;  देशवासी ! जागो ! जागो !  गाँधी की रक्षा करने को गाँधी से भागो !     (2)  रुधिर में रखे शीत या ताप? 

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इतिहास का न्याय

18 फरवरी 2022
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दूर भविष्यत् के पट पर जो वाक्य लिखे हैं,  पढ़ लेना, भवितव्य अगर आगे जीवित रहने दे।     गाँधी, बुद्ध, अशोक नाम हैं बड़े दिव्य स्वप्नों के।  भारत स्वयं मनुष्य-जाति की बहुत बड़ी कविता है।     कह ले

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एनार्की

18 फरवरी 2022
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 (१)  "अरे, अरे, दिन-दहाड़े ही जुल्म ढाता है !  रेलवे का स्लीपर उठाये कहाँ जाता है?”     “बड़ा बेवकूफ है, अजब तेरा हाल है ;  तुझे क्या पड़ी है? य' तो सरकारी माल है।”     “नेता या प्रणेता ! तेरा

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एक बार फिर स्वर दो-1

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 एक बार फिर स्वर दो।  अब भी वाणीहीन जनों की दुनिया बहुत बड़ी है।  आशा की बेटियाँ आज भी नीड़ों में सोती हैं  सुख से नहीं ; विवश उड़ने के पंख नहीं होने से,  और मूक इसलिए कि उनके कण्ठ नहीं खुलते हैं।

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एक बार फिर स्वर दो-2

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एक बार फिर स्वर दो।  जिस गंगा के लिए भगीरथ सारी आयु तपे थे,  और हुई जो विवश छोड़ अम्बर भू पर बहने को  लाखों के आँसुओं, करोड़ों के हाहाकारों से ;  लिये जा रहा इन्द्र कैद करने को उसे महल में।  सींच

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तब भी आता हूँ मैं

18 फरवरी 2022
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 टूट गये युग के दरवाजे?  बन्द हो गयी क्या भविष्य की राह?  तब भी आता हूँ मैं     बल रहते ऐसी निर्बलता,  स्वर रहते स्वरवालों के शब्दों का अर्थाभाव !  दोपहरी में ऐसा तिमिर नहीं देखा था।     खिसक

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समर शेष है

18 फरवरी 2022
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ढीली करो धनुष की डोरी, तरकस का कस खोलो ,  किसने कहा, युद्ध की वेला चली गयी, शांति से बोलो?  किसने कहा, और मत वेधो ह्रदय वह्रि के शर से,  भरो भुवन का अंग कुंकुम से, कुसुम से, केसर से?     कुंकुम?

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जवानी का झण्डा

18 फरवरी 2022
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घटा फाड़ कर जगमगाता हुआ  आ गया देख, ज्वाला का बान;  खड़ा हो, जवानी का झंडा उड़ा,  ओ मेरे देश के नौजवान!     (1)  सहम करके चुप हो गये थे समुंदर  अभी सुन के तेरी दहाड़,  जमीं हिल रही थी, जहाँ हि

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