खण्ड-4
कुछ पता नहीं, हम कौन बीज बोते हैं,
है कौन स्वप्न, हम जिसे यहाँ ढोते हैं।
पर, हाँ, वसुधा दानी है, नहीं कृपण है,
देता मनुष्य जब भी उसको जल-कण है।
यह दान वृथा वह कभी नहीं लेती है,
बदले में कोई दूब हमें देती है।
पर, हमने तो सींचा है उसे लहू से,
चढ़ती उमंग की कलियों की खुशबू से।
क्या यह अपूर्व बलिदान पचा वह लेगी ?
उद्दाम राष्ट्र क्या हमें नहीं वह देगी ?
ना, यह अकाण्ड दुष्काण्ड नहीं होने का,
यह जगा देश अब और नहीं सोने का।
जब तक भीतर की गाँस नहीं कढ़ती है,
श्री नहीं पुन भारत-मुख पर चढ़ती है,
कैसे स्वदेश की रूह चैन पायेगी ?
किस नर-नारी को भला नींद आयेगी ?
कुछ सोच रहा है समय राह में थम कर,
है ठहर गया सहसा इतिहास सहम कर।
सदियों में शिव का अचल ध्यान डोला है,
तोपों के भीतर से भविष्य बोला है ।
चोटें पड़ती यदि रहीं, शिला टूटेगी,
भारत में कोई नयी धार फूटेगी ।
हम खड़े ध्वंस में जब भी कुछ गुनते हैं,
रथ के घर्घर का नाद कहीं सुनते हैं ।
जिसकी आशा से खड़ा व्यग्र जन-जन है,
यह उसी वीर का, स्यात् वज्र-स्यन्दन है ।
अम्बर में जो अप्रतिम क्रोध छाया है,
पावक जो हिम को फोड़ निकल आया है,
वह किसी भाँति भी वृथा नहीं जायेगा,
आयेगा, अपना महा वीर आयेगा ।
हाँ, वही, रूप प्रज्वलित विभासित नर का,
अंशावतार सम्मिलित विष्णु-शंकर का ।
हाँ, वही, दुरित से जो न सन्धि करता है,
जो सन्त धर्म के लिए खड़ग धरता है ।
हाँ, वही फूटता जो समष्टि के मन से,
संचित करता है तेज व्यग्र जन-जन से।
हाँ, वही, न्याय-वंचित की जो आशा है,
निर्धनों, दीन-दलितों की अभिलाषा है ।
विद्युत् बनकर जो चमक रहा चिन्तन में,
गुंजित जिसका निर्घोष लोक-गुंजन में,
जो पतन-पुंज पर पावक बरसाता है,
यह उसी वीर का रथ दौड़ा आता है ।
गाओ कवियो ! जयगान, कल्पना तानो,
आ रहा देवता जो, उसको पहचानो।
है एक हाथ में परशु, एक मे कुश है,
आ रहा नये भारत का भाग्यपुरुष है ।
अगार-हार अरपो, अर्चना करो रे ।
आँखो की ज्वालाएं मत देख डरो रे ।
यह असुर भाव का शत्रु, पुण्य-त्राता है,
भयभीत मनुज के लिए अभय-दाता है ।
यह वज्र वज्र के लिए, सुमो का सुम है,
यह और नहीं कोई, केवल हम-तुम है ।
यह नहीं जाति का, न तो गोत्र-बन्धन का,
आ रहा मित्र भारत-भर के जन-जन का ।
गांधी-गौतम का त्याग लिये आता है,
शंकर का शुद्ध विराग लिये आता है ।
सच है, आंखों में आग लिये आता है,
पर, यह स्वदेश का भाग जिये आता है ।
मत डरो, सन्त यह मुकुट नहीं मांगेगा,
धन के निमित्त यह धर्म नहीं त्यागेगा ।
तुम सोओगे, तब भी यह ऋषि जागेगा,
ठन गया युध्द तो बम-गोले दागेगा ।
जब किसी जाति का अहँ चोट खाता है,
पावक प्रचण्ड हो कर बाहर आता है ।
यह वही चोट खाये स्वदेश का बल है,
आहत भुजंग है, सुलगा हुआ अनल है ।
विक्रमी रूप नूतन अर्जुन-जेता का,
आ रहा स्वयं यह परशुराम त्रेता का।
यह उत्तेजित, साकार, क्रुद्ध भारत है,
यह और नहीं कोई, विशुद्ध भारत है ।
पापों पर बनकर प्रलय-वाण छूटेगा,
यह क्लीव धर्म पर बाज-सदृश टूटेगा ।
जो रुष्ट खड़ग से हैं, उनसे रूठेगा,
कृत्रिम विभाकरों का प्रकाश लूटेगा ।
वह गरुड़ देश का नाग-पाश काटेगा,
अरि-मुण्डों से खाइयाँ-खोह पाटेगा ।
विद्युतित जीभ से चाट भीति हर लेगा,
वह तुम्हें आप अपने समान कर लेगा।
रह जायगा वह नहीं ज्ञान सिखला कर,
दूरस्थ गगन में इन्द्रधनुष दिखला कर ।
वह लक्ष्यविन्दु तक तुम को ले जायेगा,
उँगलियां थाम मंजिल तक पहुँचायेगा ।
हर धड़कन पर वह सजल मेघ सिहरेगा,
गत और अनागत बीच व्यग्र बिहरेगा ।
बरसेगा बन जलधार तृषित धानों पर,
बन तडिद्धार छूटेगा चट्टानों पर ।
जब वह आयेगा, द्विधा द्वन्द्व विनसेगा,
आलिंगन में अवनी को व्योम कसेगा ।
विज्ञान धर्म के धड़ से भिन्न न होगा,
भवितव्य भूत-गौरव से छिन्न न होगा।
जब वह आयेगा खल कुबुद्धि छोड़ेंगे,
सब साँप आप ही फण अपने तोड़ेंगे
विषवाह-अभ्र गांधी पर नहीं घिरेंगे,
शान्ति के नीड़ में गोले नहीं गिरेंगे।