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परशुराम की प्रतीक्षा

18 फरवरी 2022

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 खण्ड-4 

कुछ पता नहीं, हम कौन बीज बोते हैं, 

है कौन स्वप्न, हम जिसे यहाँ ढोते हैं। 

  

पर, हाँ, वसुधा दानी है, नहीं कृपण है, 

देता मनुष्य जब भी उसको जल-कण है। 

यह दान वृथा वह कभी नहीं लेती है, 

बदले में कोई दूब हमें देती है। 

  

पर, हमने तो सींचा है उसे लहू से, 

चढ़ती उमंग की कलियों की खुशबू से। 

क्या यह अपूर्व बलिदान पचा वह लेगी ? 

उद्दाम राष्ट्र क्या हमें नहीं वह देगी ? 

  

ना, यह अकाण्ड दुष्काण्ड नहीं होने का, 

यह जगा देश अब और नहीं सोने का। 

जब तक भीतर की गाँस नहीं कढ़ती है, 

श्री नहीं पुन भारत-मुख पर चढ़ती है, 

  

कैसे स्वदेश की रूह चैन पायेगी ? 

किस नर-नारी को भला नींद आयेगी ? 

  

कुछ सोच रहा है समय राह में थम कर, 

है ठहर गया सहसा इतिहास सहम कर। 

सदियों में शिव का अचल ध्यान डोला है, 

तोपों के भीतर से भविष्य बोला है । 

  

चोटें पड़ती यदि रहीं, शिला टूटेगी, 

भारत में कोई नयी धार फूटेगी । 

  

हम खड़े ध्वंस में जब भी कुछ गुनते हैं, 

रथ के घर्घर का नाद कहीं सुनते हैं । 

जिसकी आशा से खड़ा व्यग्र जन-जन है, 

यह उसी वीर का, स्यात् वज्र-स्यन्दन है । 

  

अम्बर में जो अप्रतिम क्रोध छाया है, 

पावक जो हिम को फोड़ निकल आया है, 

वह किसी भाँति भी वृथा नहीं जायेगा, 

आयेगा, अपना महा वीर आयेगा । 

  

हाँ, वही, रूप प्रज्वलित विभासित नर का, 

अंशावतार सम्मिलित विष्णु-शंकर का । 

हाँ, वही, दुरित से जो न सन्धि करता है, 

जो सन्त धर्म के लिए खड़ग धरता है । 

  

हाँ, वही फूटता जो समष्टि के मन से, 

संचित करता है तेज व्यग्र जन-जन से। 

हाँ, वही, न्याय-वंचित की जो आशा है, 

निर्धनों, दीन-दलितों की अभिलाषा है । 

  

विद्युत् बनकर जो चमक रहा चिन्तन में, 

गुंजित जिसका निर्घोष लोक-गुंजन में, 

जो पतन-पुंज पर पावक बरसाता है, 

यह उसी वीर का रथ दौड़ा आता है । 

  

गाओ कवियो ! जयगान, कल्पना तानो, 

आ रहा देवता जो, उसको पहचानो। 

है एक हाथ में परशु, एक मे कुश है, 

आ रहा नये भारत का भाग्यपुरुष है । 

  

अगार-हार अरपो, अर्चना करो रे । 

आँखो की ज्वालाएं मत देख डरो रे । 

यह असुर भाव का शत्रु, पुण्य-त्राता है, 

भयभीत मनुज के लिए अभय-दाता है । 

  

यह वज्र वज्र के लिए, सुमो का सुम है, 

यह और नहीं कोई, केवल हम-तुम है । 

यह नहीं जाति का, न तो गोत्र-बन्धन का, 

आ रहा मित्र भारत-भर के जन-जन का । 

  

गांधी-गौतम का त्याग लिये आता है, 

शंकर का शुद्ध विराग लिये आता है । 

सच है, आंखों में आग लिये आता है, 

पर, यह स्वदेश का भाग जिये आता है । 

  

मत डरो, सन्त यह मुकुट नहीं मांगेगा, 

धन के निमित्त यह धर्म नहीं त्यागेगा । 

तुम सोओगे, तब भी यह ऋषि जागेगा, 

ठन गया युध्द तो बम-गोले दागेगा । 

  

जब किसी जाति का अहँ चोट खाता है, 

पावक प्रचण्ड हो कर बाहर आता है । 

यह वही चोट खाये स्वदेश का बल है, 

आहत भुजंग है, सुलगा हुआ अनल है । 

  

विक्रमी रूप नूतन अर्जुन-जेता का, 

आ रहा स्वयं यह परशुराम त्रेता का। 

यह उत्तेजित, साकार, क्रुद्ध भारत है, 

यह और नहीं कोई, विशुद्ध भारत है । 

  

पापों पर बनकर प्रलय-वाण छूटेगा, 

यह क्लीव धर्म पर बाज-सदृश टूटेगा । 

जो रुष्ट खड़ग से हैं, उनसे रूठेगा, 

कृत्रिम विभाकरों का प्रकाश लूटेगा । 

  

वह गरुड़ देश का नाग-पाश काटेगा, 

अरि-मुण्डों से खाइयाँ-खोह पाटेगा । 

विद्युतित जीभ से चाट भीति हर लेगा, 

वह तुम्हें आप अपने समान कर लेगा। 

  

रह जायगा वह नहीं ज्ञान सिखला कर, 

दूरस्थ गगन में इन्द्रधनुष दिखला कर । 

वह लक्ष्यविन्दु तक तुम को ले जायेगा, 

उँगलियां थाम मंजिल तक पहुँचायेगा । 

  

हर धड़कन पर वह सजल मेघ सिहरेगा, 

गत और अनागत बीच व्यग्र बिहरेगा । 

बरसेगा बन जलधार तृषित धानों पर, 

बन तडिद्धार छूटेगा चट्टानों पर । 

  

जब वह आयेगा, द्विधा द्वन्द्व विनसेगा, 

आलिंगन में अवनी को व्योम कसेगा । 

विज्ञान धर्म के धड़ से भिन्न न होगा, 

भवितव्य भूत-गौरव से छिन्न न होगा। 

  

जब वह आयेगा खल कुबुद्धि छोड़ेंगे, 

सब साँप आप ही फण अपने तोड़ेंगे 

विषवाह-अभ्र गांधी पर नहीं घिरेंगे, 

शान्ति के नीड़ में गोले नहीं गिरेंगे।  

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रचनाएँ
परशुराम की प्रतीक्षा
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परशुराम की प्रतीक्षा राष्ट्रकवि रामधारी सिंह 'दिनकर' द्वारा रचित खंडकाव्य की पुस्तक है। इस खंडकाव्य की रचना का काल 1962-63 के आसपास का है, जब चीनी आक्रमण के फलस्वरूप भारत को जिस पराजय का सामना करना पड़ा, उससे राष्ट्रकवि दिनकर अत्यंत व्यथित हुये और इस खंडकाव्य की रचना की।
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परशुराम की प्रतीक्षा

18 फरवरी 2022
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खण्ड-1 गरदन पर किसका पाप वीर ! ढोते हो ? शोणित से तुम किसका कलंक धोते हो ? उनका, जिनमें कारुण्य असीम तरल था, तारुण्य-ताप था नहीं, न रंच गरल था; सस्ती सुकीर्ति पा कर जो फूल गये थे, निर्वीर्य कल

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परशुराम की प्रतीक्षा

18 फरवरी 2022
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खण्ड-2  हे वीर बन्धु ! दायी है कौन विपद का ?  हम दोषी किसको कहें तुम्हारे वध का ?     यह गहन प्रश्न; कैसे रहस्य समझायें ?  दस-बीस अधिक हों तो हम नाम गिनायें।  पर, कदम-कदम पर यहाँ खड़ा पातक है, 

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परशुराम की प्रतीक्षा

18 फरवरी 2022
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 खण्ड-3  किरिचों पर कोई नया स्वप्न ढोते हो ?  किस नयी फसल के बीज वीर ! बोते हो ?     दुर्दान्त दस्यु को सेल हूलते हैं हम;  यम की दंष्ट्रा से खेल झूलते हैं हम।  वैसे तो कोई बात नहीं कहने को,  हम

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परशुराम की प्रतीक्षा

18 फरवरी 2022
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 खण्ड-4  कुछ पता नहीं, हम कौन बीज बोते हैं,  है कौन स्वप्न, हम जिसे यहाँ ढोते हैं।     पर, हाँ, वसुधा दानी है, नहीं कृपण है,  देता मनुष्य जब भी उसको जल-कण है।  यह दान वृथा वह कभी नहीं लेती है, 

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परशुराम की प्रतीक्षा

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 खण्ड-5  (१)  सिखलायेगा वह, ऋत एक ही अनल है  जिन्दगी नहीं वह जहाँ नहीं हलचल है ।  जिनमें दाहकता नहीं, न तो गर्जन है,  सुख की तरंग का जहाँ अन्ध वर्जन है,  जो सत्य राख में सने, रुक्ष, रूठे हैं, 

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जवानियाँ

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 नये सुरों में शिंजिनी बजा रहीं जवानियाँ  लहू में तैर-तैर के नहा रहीं जवानियाँ।     (1)  प्रभात-श्रृंग से घड़े सुवर्ण के उँड़ेलती;  रँगी हुई घटा में भानु को उछाल खेलती;  तुषार-जाल में सहस्र हेम-

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हिम्मत की रौशनी

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 उसे भी देख, जो भीतर भरा अङ्गार है साथी।     (१)  सियाही देखता है, देखता है तू अन्धेरे को,  किरण को घेर कर छाये हुए विकराल घेरे को।  उसे भी देख, जो इस बाहरी तम को बहा सकती,  दबी तेरे लहू में रौश

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लोहे के मर्द

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पुरुष वीर बलवान,  देश की शान,  हमारे नौजवान  घायल होकर आये हैं।     कहते हैं, ये पुष्प, दीप,  अक्षत क्यों लाये हो?     हमें कामना नहीं सुयश-विस्तार की,  फूलों के हारों की, जय-जयकार की।    

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जनता जगी हुई है

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 जनता जगी हुई है।  क्रुद्ध सिंहिनी कुछ इस चिन्ता से भी ठगी हुई है।  कहाँ गये वे, जो पानी मे आग लगाते थे?  बजा-बजा दुन्दुभी रात-दिन हमें जगाते थे?  धरती पर है कौन ? कौन है सपनों के डेरों में ?  कौ

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आज कसौटी पर गाँधी की आग है

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(१) अब भी पशु मत बनो, कहा है वीर जवाहरलाल ने। अन्धकार की दबी रौशनी की धीमी ललकार, कठिन घड़ी में भी भारत के मन की धीर पुकार। सुनती हो नागिनी ! समझती हो इस स्वर को ? देखा है क्या कहीं और भू पर उस

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जौहर

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 जगता जब जहान,  उसे जब विपद जगाती है।     हँसी भूल बच्चे चिन्तन करने लगते हैं।  बहनें जाती डूब किसी गम्भीर ध्यान में।  कुसुम खोजने लगते अपनी आग,  ऊँघती नदी तेज होकर हहराती है।     पेड़ खड़े कर

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आपद्धर्म

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 अरे उर्वशीकार !  कविता की गरदन पर धर कर पाँव खड़ा हो।  हमें चाहिए गर्म गीत, उन्माद प्रलय का,  अपनी ऊँचाई से तू कुछ और बड़ा हो।     कच्चा पानी ठीक नहीं,  ज्वर-ग्रसित देश है।  उबला हुआ समुष्ण सल

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पाद-टिप्पणी

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 (युद्ध काव्य की)  मेरी कविताएँ सुनकर खुश होने वाले !  तुझे ज्ञात है, इन खुशियों का रहस्य क्या है?     मेरे सुख का राज? सभ्यता के भीतर से  उठती है जो हूक, बुद्धि को विकलाती है।  कोई उत्तर नहीं।

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शान्तिवादी

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पुत्र मृत्यु के लिए, पिता रोने को,  माँ धुनने को सीस, वत्स आंसू पीने को,  लुटने को सिन्दूर,  उत्तराएँ विधवा होने को है        सरहद के उस पार हो कि इस पार हो,  युध्द सोचता नहीं, कौन किसका द्रोहा

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अहिंसावादी का युद्ध-गीत

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 (1)  हाय, मैं लिखूँ युद्ध के गीत !  बन्धु ! हो गयी बड़ी अनरीत !  कण्ठ उस अन्तर के विपरीत ;  देशवासी ! जागो ! जागो !  गाँधी की रक्षा करने को गाँधी से भागो !     (2)  रुधिर में रखे शीत या ताप? 

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इतिहास का न्याय

18 फरवरी 2022
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दूर भविष्यत् के पट पर जो वाक्य लिखे हैं,  पढ़ लेना, भवितव्य अगर आगे जीवित रहने दे।     गाँधी, बुद्ध, अशोक नाम हैं बड़े दिव्य स्वप्नों के।  भारत स्वयं मनुष्य-जाति की बहुत बड़ी कविता है।     कह ले

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एनार्की

18 फरवरी 2022
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 (१)  "अरे, अरे, दिन-दहाड़े ही जुल्म ढाता है !  रेलवे का स्लीपर उठाये कहाँ जाता है?”     “बड़ा बेवकूफ है, अजब तेरा हाल है ;  तुझे क्या पड़ी है? य' तो सरकारी माल है।”     “नेता या प्रणेता ! तेरा

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एक बार फिर स्वर दो-1

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 एक बार फिर स्वर दो।  अब भी वाणीहीन जनों की दुनिया बहुत बड़ी है।  आशा की बेटियाँ आज भी नीड़ों में सोती हैं  सुख से नहीं ; विवश उड़ने के पंख नहीं होने से,  और मूक इसलिए कि उनके कण्ठ नहीं खुलते हैं।

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एक बार फिर स्वर दो-2

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एक बार फिर स्वर दो।  जिस गंगा के लिए भगीरथ सारी आयु तपे थे,  और हुई जो विवश छोड़ अम्बर भू पर बहने को  लाखों के आँसुओं, करोड़ों के हाहाकारों से ;  लिये जा रहा इन्द्र कैद करने को उसे महल में।  सींच

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तब भी आता हूँ मैं

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 टूट गये युग के दरवाजे?  बन्द हो गयी क्या भविष्य की राह?  तब भी आता हूँ मैं     बल रहते ऐसी निर्बलता,  स्वर रहते स्वरवालों के शब्दों का अर्थाभाव !  दोपहरी में ऐसा तिमिर नहीं देखा था।     खिसक

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समर शेष है

18 फरवरी 2022
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ढीली करो धनुष की डोरी, तरकस का कस खोलो ,  किसने कहा, युद्ध की वेला चली गयी, शांति से बोलो?  किसने कहा, और मत वेधो ह्रदय वह्रि के शर से,  भरो भुवन का अंग कुंकुम से, कुसुम से, केसर से?     कुंकुम?

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जवानी का झण्डा

18 फरवरी 2022
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घटा फाड़ कर जगमगाता हुआ  आ गया देख, ज्वाला का बान;  खड़ा हो, जवानी का झंडा उड़ा,  ओ मेरे देश के नौजवान!     (1)  सहम करके चुप हो गये थे समुंदर  अभी सुन के तेरी दहाड़,  जमीं हिल रही थी, जहाँ हि

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