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परशुराम की प्रतीक्षा

18 फरवरी 2022

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 खण्ड-5 

(१) 

सिखलायेगा वह, ऋत एक ही अनल है 

जिन्दगी नहीं वह जहाँ नहीं हलचल है । 

जिनमें दाहकता नहीं, न तो गर्जन है, 

सुख की तरंग का जहाँ अन्ध वर्जन है, 

जो सत्य राख में सने, रुक्ष, रूठे हैं, 

छोड़ो उनको, वे सही नहीं, झूठे हैं । 

  

(२) 

वैराग्य छोड़ बाँहों की विभा संभालो 

चट्टानों की छाती से दूध निकालो 

है रुकी जहाँ भी धार शिलाएं तोड़ो 

पीयूष चन्द्रमाओं का पकड़ निचोड़ो 

चढ़ तुंग शैल शिखरों पर सोम पियो रे 

योगियों नहीं विजयी के सदृश जियो रे! 

  

(३) 

मत टिको मदिर, मधुमयी, शान्त छाया में, 

भूलो मत उज्जवल, ध्येय मोह-माया में। 

लौलुप्य-लालसा जहाँ, वहीं पर क्षय है; 

आनंद नहीं, जीवन का लक्ष्य विजय है । 

जृम्भक, रहस्य-धूमिल मत ऋचा रचो रे ! 

सर्पित प्रसून के मद से बचो-बचो रे ! 

  

(४) 

जब कुपित काल धीरता त्याग जलता है 

चिनगी बन फूलों का पराग जलता है 

सौन्दर्य बोध बन नयी आग जलता है 

ऊँचा उठकर कामार्त्त राग जलता है 

अम्बर पर अपनी विभा प्रबुद्ध करो रे 

गरजे कृशानु तब कंचन शुद्ध करो रे! 

  

(५) 

भामा ह्रादिनी-तरंग, तडिन्माला है, 

वह नहीं काम की लता, वीर बाला है, 

आधी हालाहल-धार, अर्ध हाला है। 

जब भी उठती हुंकार युद्ध-ज्वाला है, 

चण्डिका कान्त को मुण्ड-माल देती है; 

रथ के चक्के में भुजा डाल देती है। 

  

(६) 

खोजता पुरुष सौन्दर्य, त्रिया प्रतिभा को, 

नारी चरित्र-बल को, नर मात्र त्वचा को। 

श्री नहीं पाणि जिसके सिर पर धरती है, 

भामिनी हृदय से उसे नहीं वरती है। 

पाओ रमणी का हृदय विजय अपनाकर, 

या बसो वहाँ बन कसक वीर-गति पा कर। 

  

(७) 

जिसकी बाँहें बलमयी ललाट अरुण है 

भामिनी वही तरुणी नर वही तरुण है 

है वही प्रेम जिसकी तरंग उच्छल है 

वारुणी धार में मिश्रित जहाँ गरल है 

उद्दाम प्रीति बलिदान बीज बोती है 

तलवार प्रेम से और तेज होती है! 

  

(८) 

पी जिसे उमड़ता अनल, भुजा भरती है, 

वह शक्ति सूर्य की किरणों में झरती है । 

मरु के प्रदाह में छिपा हुआ जो रस है, 

तूफान-अन्धड़ों में जो अमृत-कलस है, 

उस तपन-तत्व से ह्रदय-प्राण सींचो रे ! 

खींचो, भीतर आंधियाँ और खींचो रे ! 

  

(९) 

छोड़ो मत अपनी आन, सीस कट जाये 

मत झुको अनय पर भले व्योम फट जाये 

दो बार नहीं यमराज कण्ठ धरता है 

मरता है जो एक ही बार मरता है 

तुम स्वयं मृत्यु के मुख पर चरण धरो रे 

जीना हो तो मरने से नहीं डरो रे! 

  

(१०) 

स्वातंत्र्य जाति की लगन व्यक्ति की धुन है 

बाहरी वस्तु यह नहीं भीतरी गुण है 

नत हुए बिना जो अशनि-घात सहती है, 

स्वाधीन जगत् में वहीं जाति रहती है । 

वीरत्व छोड़ पर का मत चरण गहो रे 

जो पड़े आन खुद ही सब आग सहो रे! 

  

(११) 

दासत्व जहाँ है, वहीं स्तब्ध जीवन है, 

स्वातंत्र्य निरन्तर समर, सनातन रण है । 

स्वातंत्र्य समस्या नहीं आज या कल की, 

जागर्ति तीव्र वह घड़ी-घड़ी, पल-पल की। 

पहरे पर चारों ओर सतर्क लगो रे ! 

धर धनुष-बाण उद्यत दिन-रात जगो रे ! 

  

(१२) 

आंधियाँ नहीं, जिसमें उमंग भरती हैं, 

छातियाँ जहाँ संगीनों से डरती हैं । 

शोणित के बदले जहाँ अश्रु बहता है, 

वह देश कभी स्वाधीन नहीं रहता है । 

पकड़ो अयाल, अन्धड पर उछल चढ़ो रे । 

किरिचों पर अपने तन का चाम मढ़ो रे । 

  

(१३) 

जब कभी अहम पर नियति चोट देती है 

कुछ चीज़ अहम से बड़ी जन्म लेती है 

नर पर जब भी भीषण विपत्ति आती है 

वह उसे और दुर्धुर्ष बना जाती है 

चोटें खाकर बिफरो, कुछ अधिक तनो रे 

धधको स्फुलिंग में बढ़ अंगार बनो रे! 

  

(१४) 

धन धाम, ज्ञान-विज्ञान मात्र सम्बल है 

बस एक मात्र बलिदान जाति का बल है । 

सिर देने से जो लोग नहीं डरते हैं, 

वे ही प्रभजनो पर शासन करते हैं । 

जब पड़े विपद, अपनी उमंग जांचो रे । 

विकराल काल के फण पर चढ़ नाचो रे । 

  

(१५) 

हैं खड़े हिंस्र वृक-व्याघ्र, खड़ा पशुबल है, 

ऊँची मनुष्यता का पथ नहीं सरल है । 

ये हिंस्र साधु पर भी न तरस खाते हैं, 

कंठी-माला के सहित चबा जाते हैं । 

जो वीर काट कर इन्हें पार जायेगा, 

उत्तुंग श्रृंग पर वही पहुँच पायेगा । 

  

(१६) 

जो पुरुष भूल शायक, कुठार को असि को, 

पूजता मात्र चिन्तन, विचार को, मसि को, 

सत्य का नहीं बहुमान किया करता है, 

केवल सपनों का ध्यान किया करता है, 

बस में उसके यह लोक न रह जायेगा । 

है हवा स्वप्न, कर में वह क्यों आयेगा ? 

  

(१७) 

उपशम को ही जो जाति धर्म कहती है, 

शम, दम, विराग को श्रेष्ठ कर्म कहती है, 

धृति को प्रहार, शान्ति को वर्म कहती है, 

अक्रोध, विनय को विजय-मर्म कहती है, 

अपमान कौन, वह जिसको नहीं सहेगी? 

सबको असीस सब का बन दास रहेगी । 

  

(१८) 

यह कठिन शाप सुकुमार धर्म-साधन का, 

रण-विमुख, शान्त जीवन के आराधन का, 

जातियाँ पावकों से बच कर चलती हैं, 

निर्वीर्य कल्पनाएँ रच कर चलती हैं । 

वृन्तो पर जलते सूर्य छोड़ देती हैं, 

चुन-चुन कर केवल चाँद तोड़ लेती हैं । 

  

(१९) 

दो उन्हें राम, तो मात्र नाम वे लेंगी, 

विक्रमी शरासन से न काम वे लेंगी, 

नवनीत बना देतीं भट अवतारी को, 

मोहन मुरलीधर पाचजन्य-धारी को । 

पावक को बुझा तुषार बना देती हैं, 

गांधी को शीतल क्षार बना देती हैं । 

  

(२०) 

है सही बना पहले पृथ्वी से जल था, 

पर, बहुत पूर्व उससे बन चुका अनल था। 

जब प्रथम-प्रथम हो उठा तत्तव चंचल था, 

प्रेरणा-स्रोत पर विनय नहीं थी, बल था। 

है अनल ब्रह्म, पावक-तरंग जीवन है, 

अब समझा, क्यों उजाला अभंग जीवन है ? 

(२१) 

भव को न अग्नि करने को क्षार बनी थी, 

रखने को, बस उज्जवल आचार बनी थी । 

शिव नहीं, शक्ति सृजन-आधार बनी थी, 

जब बनी सृष्टि, पहले तलवार बनी थी । 

वह कालकण्ठ स्रज नहीं, न कुंकुम-रज है । 

सत्य ही कहा गुरु ने, अकाल असि-ध्वज है । 

  

(२२) 

स्वर में पावक यदि नहीं वृथा वन्दन है, 

वीरता नहीं, तो सभी विनय क्रन्दन है। 

सिर पर जिसके असिघात, रक्त-चन्दन है, 

भ्रामरी उसी का करती अभिनन्दन है । 

दानवी रक्त से सभी पाप धुलते हैं, 

ऊँची मनुष्यता के पथ भी खुलते हैं। 

  

(२३) 

सत्य है, धर्म का परम रूप लव-कुश हैं, 

अत्यय-अधम पर परशु मात्र अंकुश हैं, 

पर, जब कुठार की धार क्षीण होती है, 

स्वयमेव धर्म की श्री मलीन होती है । 

हो धर्म ध्येय, तो भजो प्रथम बाँहों को । 

तोलो अपना बल-वीर्य, नहीं आहों को। 

  

(२४) 

है दुखी मेष, क्यों लहू शेर चखते हैं, 

नाहक इतने क्यों दाँत तेज रखते हैं । 

पर, शेर द्रवित हो दशन तोड़ क्यों लेंगे ? 

मेषों के हित व्याघ्रता छोड़ क्यों देंगे ? 

एक ही पन्थ, तुम भी आघात हनो रे । 

मेषत्व छोड मेषो ! तुम व्याघ्र बनो रे । 

  

(२५) 

जो अड़े, शेर उस नर से डर जाता है 

है विदित, व्याघ्र को व्याघ्र नहीं खाता है । 

सच पूछो तो अब भी सच यही वचन है, 

सभ्यता क्षीण, बलवान हिंस्र कानन है । 

एक ही पन्थ अब भी जग में जीने का, 

अभ्यास करो छागियो ! रक्त पीने का। 

  

(२६) 

जब शान्तिवादियों ने कपोत छोड़े थे, 

किसने आशा से नहीं हाथ जोड़े थे? 

पर, हाय, धर्म यह भी धोखा है, छल है, 

उजले कबूतरों में भी छिपा अनल है । 

पंजों में इनके धार धरी होती है, 

कइयों में तो बारूद भरी होती है। 

  

(२७) 

जो पुण्य-पुण्य बक रहे, उन्हें बकने दो, 

जैसे सदियां थक चुकी, उन्हें थकने दो। 

पर, देख चुके हम तो सब पुण्य कमा कर, 

सौभाग्य, मान, गौरव, अभिमान गंवा कर । 

वे पियें शीत, तुम आतप-घाम पियो रे । 

वे जपें नाम, तुम बन कर राम जियो रे । 

  

(२८) 

है जिन्हें दाँत, उनसे अदन्त कहते हैं, 

यानी शूरों को देख सन्त कहते हैं, 

"तुम तुड़ा दाँत क्यों नहीं पुण्य पाते हो ? 

यानी तुम भी क्यों भेड़ न बन जाते हो ?" 

पर कौन शेर भेड़ों की बात सुनेगा 

जिन्दगी छोड़ मरने की राह चुनेगा ? 

  

(२९) 

सुर नहीं शान्ति आंसू बिखेर लायेंगे, 

मग नहीं युध्द का शमन शर लायेंगे । 

विनयी न विनय को लगा टेर लायेंगे 

लायेंगे तो वह दिन दिलेर लायेंगे । 

बोलती बन्द होगी पशु की जब भय से, 

उतरेगी भू पर शान्ति छूट संशय से । 

  

(३०) 

वे देश शान्ति के सब से शत्रु प्रबल हैं, 

जो बहुत बड़े होने पर भी दुर्बल हैं, 

हैं जिनके उदर विशाल, बाँह छोटी हैं, 

भोथरे दाँत, पर, जीभ बहुत मोटी हैं । 

औरों के पाले जो अलज्ज पलते हैं, 

अथवा शेरों पर लदे हुए चलते हैं । 

  

(३१) 

सिंहों पर अपना अतुल भार मत डालो, 

हाथियो ! स्वयं अपना तुम बोझ सँभालो । 

यदि लदे फिरे, यों ही, तो पछताओगे, 

शव मात्र आप अपना तुम रह जाओगे । 

यह नहीं मात्र अपकीर्ति, अनय की अति है । 

जानें, कैसे सहती यह दृश्य प्रकृति है ! 

  

(३२) 

उद्देश्य जन्म का नहीं कीर्ति या धन है 

सुख नहीं धर्म भी नहीं, न तो दर्शन है 

विज्ञान ज्ञान बल नहीं, न तो चिंतन है 

जीवन का अंतिम ध्येय स्वयं जीवन है 

सबसे स्वतंत्र रस जो भी अनघ पियेगा 

पूरा जीवन केवल वह वीर जियेगा!  

(३३) 

जीवन गति है वह नित अरुद्ध चलता है, 

पहला प्रमाण पावक का वह जलता है। 

सिखला निरोध-निर्ज्वलन धर्म छलता है, 

जीवन तरंग गर्जन है चंचलता है। 

धधको अभंग, पल-विपल अरुद्ध जलो रे, 

धारा रोके यदि राह विरुद्ध चलो रे। 

  

(३४) 

जीवन अपनी ज्वाला से आप ज्वलित है, 

अपनी तरंग से आप समुद्वेलित है । 

तुम वृथा ज्योति के लिए कहाँ जाओगे ? 

है जहाँ आग, आलोक वहीं पाओगे । 

क्या हुआ, पत्र यदि मृदुल, सुरम्य कली है ? 

सब मृषा, तना तरु का यदि नहीं बली है । 

  

(३५) 

धन से मनुष्य का पाप उभर आता है, 

निर्धन जीवन यदि हुआ, बिखर जाता है। 

कहते हैं जिसको सुयश-कीर्ति, सो क्या है? 

कानों की यदि गुदगुदी नहीं, तो क्या है? 

यश-अयश-चिन्तना भूल स्थान पकड़ो रे! 

यश नहीं, मात्र जीवन के लिये लड़ो रे! 

  

(३६) 

कुछ समझ नहीं पड़ता, रहस्य यह क्या है ! 

जानें, भारत में बहती कौन हवा है ! 

गमले में हैं जो खड़े, सुरम्य-सुदल हैं, 

मिट्टी पर के ही पेड़ दीन-दुर्बल हैं । 

जब तक है यह वैषम्य, समाज सड़ेगा, 

किस तरह एक हो कर यह देश लड़ेगा । 

  

(३७) 

सब से पहले यह दुरित-मूल काटो रे ! 

समतल पीटो, खाइयाँ-खड्ड पाटो रे ! 

बहुपाद वटों की शिरा-सोर छाँटो रे ! 

जो मिले अमृत, सब को समान बाँटो रे ! 

वैषम्य घोर जब तक यह शेष रहेगा, 

दुर्बल का ही दुर्बल यह देश रहेगा । 

  

(३८) 

यह बड़े भाग्य की बात ! सिन्धु चंचल है, 

मथ रहा आज फिर उसे मन्दराचल है। 

छोड़ता व्यग्र फूत्कार सर्प पल-पल है, 

गर्जित तरंग, प्रज्वलित वाडवानल है । 

लो कढ़ा जहर ! संसार जला जाता है । 

ठहरो, ठहरो, पीयूष अभी आता है । 

  

(३९) 

पर, सावधान ! जा कहो उन्हें समझा कर, 

सुर पुनः भाग जाये मत सुधा चुरा कर । 

जो कढ़ा अमृत, सम-अंश बाँट हम लेंगे, 

इस बार जहर का भाग उन्हें भी देंगे । 

वैषम्य शेष यदि रहा, क्षान्ति डोलेगी, 

इस रण पर चढ़ कर महा क्रान्ति बोलेगी । 

  

(४०) 

झंझा-झकोर पर चढो, मस्त झूलो रे । 

वृन्तों पर बन पावक-प्रसून फूलो रे । 

दायें-बायें का द्वन्द्व आज भूलो रे । 

सामने पड़े जो शत्रु, शूल हूलो रे । 

वृक हो कि व्याल, जो भी विरुध्द आयेगा, 

भारत से जीवित लौट नहीं पायेगा । 

  

(४१) 

निजर पिनाक हर का टंकार उठा है, 

हिमवन्त हाथ में ले अंगार उठा है, 

ताण्डवी तेज फिर से हुंकार उठा है, 

लोहित में था जो गिरा, कुठार उठा है । 

संसार धर्म की नयी आग देखेगा, 

मानव का करतब पुन नाग देखेगा। 

  

(४२) 

माँगो, माँगो वरदान धाम चारों से, 

मन्दिरों, मस्जिदों, गिरजों, गुरुद्वारों से । 

जय कहो वीर विक्रम की, शिवा बली की, 

उस धर्मखड़ग, ईश्वर के सिंह, अली की। 

जब मिले काल, "जय महाकाल !" बोलो रे । 

सत् श्री अकाल ! सत् श्री अकाल ! बोलो रे । 

(७-१-१९६३)  

   

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रचनाएँ
परशुराम की प्रतीक्षा
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परशुराम की प्रतीक्षा राष्ट्रकवि रामधारी सिंह 'दिनकर' द्वारा रचित खंडकाव्य की पुस्तक है। इस खंडकाव्य की रचना का काल 1962-63 के आसपास का है, जब चीनी आक्रमण के फलस्वरूप भारत को जिस पराजय का सामना करना पड़ा, उससे राष्ट्रकवि दिनकर अत्यंत व्यथित हुये और इस खंडकाव्य की रचना की।
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परशुराम की प्रतीक्षा

18 फरवरी 2022
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खण्ड-1 गरदन पर किसका पाप वीर ! ढोते हो ? शोणित से तुम किसका कलंक धोते हो ? उनका, जिनमें कारुण्य असीम तरल था, तारुण्य-ताप था नहीं, न रंच गरल था; सस्ती सुकीर्ति पा कर जो फूल गये थे, निर्वीर्य कल

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परशुराम की प्रतीक्षा

18 फरवरी 2022
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खण्ड-2  हे वीर बन्धु ! दायी है कौन विपद का ?  हम दोषी किसको कहें तुम्हारे वध का ?     यह गहन प्रश्न; कैसे रहस्य समझायें ?  दस-बीस अधिक हों तो हम नाम गिनायें।  पर, कदम-कदम पर यहाँ खड़ा पातक है, 

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परशुराम की प्रतीक्षा

18 फरवरी 2022
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 खण्ड-3  किरिचों पर कोई नया स्वप्न ढोते हो ?  किस नयी फसल के बीज वीर ! बोते हो ?     दुर्दान्त दस्यु को सेल हूलते हैं हम;  यम की दंष्ट्रा से खेल झूलते हैं हम।  वैसे तो कोई बात नहीं कहने को,  हम

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परशुराम की प्रतीक्षा

18 फरवरी 2022
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 खण्ड-4  कुछ पता नहीं, हम कौन बीज बोते हैं,  है कौन स्वप्न, हम जिसे यहाँ ढोते हैं।     पर, हाँ, वसुधा दानी है, नहीं कृपण है,  देता मनुष्य जब भी उसको जल-कण है।  यह दान वृथा वह कभी नहीं लेती है, 

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परशुराम की प्रतीक्षा

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 खण्ड-5  (१)  सिखलायेगा वह, ऋत एक ही अनल है  जिन्दगी नहीं वह जहाँ नहीं हलचल है ।  जिनमें दाहकता नहीं, न तो गर्जन है,  सुख की तरंग का जहाँ अन्ध वर्जन है,  जो सत्य राख में सने, रुक्ष, रूठे हैं, 

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जवानियाँ

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 नये सुरों में शिंजिनी बजा रहीं जवानियाँ  लहू में तैर-तैर के नहा रहीं जवानियाँ।     (1)  प्रभात-श्रृंग से घड़े सुवर्ण के उँड़ेलती;  रँगी हुई घटा में भानु को उछाल खेलती;  तुषार-जाल में सहस्र हेम-

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हिम्मत की रौशनी

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 उसे भी देख, जो भीतर भरा अङ्गार है साथी।     (१)  सियाही देखता है, देखता है तू अन्धेरे को,  किरण को घेर कर छाये हुए विकराल घेरे को।  उसे भी देख, जो इस बाहरी तम को बहा सकती,  दबी तेरे लहू में रौश

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लोहे के मर्द

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पुरुष वीर बलवान,  देश की शान,  हमारे नौजवान  घायल होकर आये हैं।     कहते हैं, ये पुष्प, दीप,  अक्षत क्यों लाये हो?     हमें कामना नहीं सुयश-विस्तार की,  फूलों के हारों की, जय-जयकार की।    

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जनता जगी हुई है

18 फरवरी 2022
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 जनता जगी हुई है।  क्रुद्ध सिंहिनी कुछ इस चिन्ता से भी ठगी हुई है।  कहाँ गये वे, जो पानी मे आग लगाते थे?  बजा-बजा दुन्दुभी रात-दिन हमें जगाते थे?  धरती पर है कौन ? कौन है सपनों के डेरों में ?  कौ

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आज कसौटी पर गाँधी की आग है

18 फरवरी 2022
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(१) अब भी पशु मत बनो, कहा है वीर जवाहरलाल ने। अन्धकार की दबी रौशनी की धीमी ललकार, कठिन घड़ी में भी भारत के मन की धीर पुकार। सुनती हो नागिनी ! समझती हो इस स्वर को ? देखा है क्या कहीं और भू पर उस

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जौहर

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 जगता जब जहान,  उसे जब विपद जगाती है।     हँसी भूल बच्चे चिन्तन करने लगते हैं।  बहनें जाती डूब किसी गम्भीर ध्यान में।  कुसुम खोजने लगते अपनी आग,  ऊँघती नदी तेज होकर हहराती है।     पेड़ खड़े कर

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आपद्धर्म

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 अरे उर्वशीकार !  कविता की गरदन पर धर कर पाँव खड़ा हो।  हमें चाहिए गर्म गीत, उन्माद प्रलय का,  अपनी ऊँचाई से तू कुछ और बड़ा हो।     कच्चा पानी ठीक नहीं,  ज्वर-ग्रसित देश है।  उबला हुआ समुष्ण सल

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पाद-टिप्पणी

18 फरवरी 2022
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 (युद्ध काव्य की)  मेरी कविताएँ सुनकर खुश होने वाले !  तुझे ज्ञात है, इन खुशियों का रहस्य क्या है?     मेरे सुख का राज? सभ्यता के भीतर से  उठती है जो हूक, बुद्धि को विकलाती है।  कोई उत्तर नहीं।

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शान्तिवादी

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पुत्र मृत्यु के लिए, पिता रोने को,  माँ धुनने को सीस, वत्स आंसू पीने को,  लुटने को सिन्दूर,  उत्तराएँ विधवा होने को है        सरहद के उस पार हो कि इस पार हो,  युध्द सोचता नहीं, कौन किसका द्रोहा

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अहिंसावादी का युद्ध-गीत

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 (1)  हाय, मैं लिखूँ युद्ध के गीत !  बन्धु ! हो गयी बड़ी अनरीत !  कण्ठ उस अन्तर के विपरीत ;  देशवासी ! जागो ! जागो !  गाँधी की रक्षा करने को गाँधी से भागो !     (2)  रुधिर में रखे शीत या ताप? 

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इतिहास का न्याय

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दूर भविष्यत् के पट पर जो वाक्य लिखे हैं,  पढ़ लेना, भवितव्य अगर आगे जीवित रहने दे।     गाँधी, बुद्ध, अशोक नाम हैं बड़े दिव्य स्वप्नों के।  भारत स्वयं मनुष्य-जाति की बहुत बड़ी कविता है।     कह ले

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एनार्की

18 फरवरी 2022
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 (१)  "अरे, अरे, दिन-दहाड़े ही जुल्म ढाता है !  रेलवे का स्लीपर उठाये कहाँ जाता है?”     “बड़ा बेवकूफ है, अजब तेरा हाल है ;  तुझे क्या पड़ी है? य' तो सरकारी माल है।”     “नेता या प्रणेता ! तेरा

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एक बार फिर स्वर दो-1

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 एक बार फिर स्वर दो।  अब भी वाणीहीन जनों की दुनिया बहुत बड़ी है।  आशा की बेटियाँ आज भी नीड़ों में सोती हैं  सुख से नहीं ; विवश उड़ने के पंख नहीं होने से,  और मूक इसलिए कि उनके कण्ठ नहीं खुलते हैं।

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एक बार फिर स्वर दो-2

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एक बार फिर स्वर दो।  जिस गंगा के लिए भगीरथ सारी आयु तपे थे,  और हुई जो विवश छोड़ अम्बर भू पर बहने को  लाखों के आँसुओं, करोड़ों के हाहाकारों से ;  लिये जा रहा इन्द्र कैद करने को उसे महल में।  सींच

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तब भी आता हूँ मैं

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 टूट गये युग के दरवाजे?  बन्द हो गयी क्या भविष्य की राह?  तब भी आता हूँ मैं     बल रहते ऐसी निर्बलता,  स्वर रहते स्वरवालों के शब्दों का अर्थाभाव !  दोपहरी में ऐसा तिमिर नहीं देखा था।     खिसक

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समर शेष है

18 फरवरी 2022
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ढीली करो धनुष की डोरी, तरकस का कस खोलो ,  किसने कहा, युद्ध की वेला चली गयी, शांति से बोलो?  किसने कहा, और मत वेधो ह्रदय वह्रि के शर से,  भरो भुवन का अंग कुंकुम से, कुसुम से, केसर से?     कुंकुम?

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जवानी का झण्डा

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घटा फाड़ कर जगमगाता हुआ  आ गया देख, ज्वाला का बान;  खड़ा हो, जवानी का झंडा उड़ा,  ओ मेरे देश के नौजवान!     (1)  सहम करके चुप हो गये थे समुंदर  अभी सुन के तेरी दहाड़,  जमीं हिल रही थी, जहाँ हि

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