पुत्र मृत्यु के लिए, पिता रोने को,
माँ धुनने को सीस, वत्स आंसू पीने को,
लुटने को सिन्दूर,
उत्तराएँ विधवा होने को है
सरहद के उस पार हो कि इस पार हो,
युध्द सोचता नहीं, कौन किसका द्रोहा है ।
उसका केवल ध्येय, ध्वंस हो मानवता का,
मनुज जहाँ भी हो, यम का आहार हो ।
माताओं को शोक, युवतियों को विषाद है,
बेकसूर बच्चे अनाथ होकर रोते हैं ।
शान्तिवादियो ! यही तुम्हारा शान्तिवाद है?
अब मत लेना नाम शान्ति का,
जिह्वा जल जायेगी,
ले-देकर जो एक शब्द है बचा, उसे भी,
तुम बकते यदि रहे,
धरित्री समझ नहीं पायेगी ।
शान्तिवाद का यह नवीन सारथी तुम्हारा
नहीं शान्ति का सखा,
हलाकू है, नीरो, नमरूद है ।
और उड़ाये हैं इसने उज्जवल कपोत जो,
उनके भीतर भरी हुई बारूद है ।
(१०-१२-१९६२ ई०)