जनता जगी हुई है।
क्रुद्ध सिंहिनी कुछ इस चिन्ता से भी ठगी हुई है।
कहाँ गये वे, जो पानी मे आग लगाते थे?
बजा-बजा दुन्दुभी रात-दिन हमें जगाते थे?
धरती पर है कौन ? कौन है सपनों के डेरों में ?
कौन मुक्त ? है घिरा कौन प्रस्तावों के घेरों में ?
सोच न कर चण्डिके । भ्रमित है जो, वे भी आयेंगे।
तेरी छाया छोड अभागे शरण कहाँ पायेंगे ?
जनता जगी हुई है।
भरत-भूमि में किसी पुण्य-पावक ने किया प्रवेश।
धधक उठा है एक दीप की लौ-सा सारा देश।
खौल रही नदियाँ, मेघों में शम्पा लहक रही है।
फट पड़ने को विकल शैल की छाती दहक रही है।
गर्जन, गूँज, तरंग, रोष, निर्घोष हाक, हुंकार ।
जाने, होगा शमित आज क्या खाकर पारावार ।
जनता जगी हुई है।
ओ गाँधी के शान्ति सदन में आग लगानेवाले।
कपटी कुटिल, कृतघ्न आसुरी महिमा के मतवाले?
वैसे तो मन मार शील से हम विनम्र जीते हैं,
आततायियों का शोणित, लेकिन, हम भी पीते हैं।
मुख में वेद पीठ पर तरकस कर में कठिन कुठार,
सावधान ! ले रहा परशुधर फिर नवीन अवतार।
जनता जगी हुई है।
मद-मूद वे पृष्ठ शील का गुण जो सिखलाते हैं,
वज्रायुध को पाप, लौह को दुर्गुण बतलाते हैं।
मन की व्यथा समेट न तो अपनेपन से हारेगा।
मर जायेगा स्वयं, सर्प को अगर नहीं मारेगा।
पर्वत पर से उतर रहा है महा भयानक व्याल ।
मधुसूदन को टेर नहीं यह सुगत बुद्ध का काल ।
जनता जगी हई है।
नाचे रणचण्डिका कि उतरे प्रलय हिमालय पर से,
फटे अतल पाताल कि झर-झर झरे मृत्यु अम्बर से,
झेल कलेजे पर, किस्मत की जो भी नाराजी है,
खेल मरण का खेल मुक्ति की यह पहली बाजी है।
सिर पर उठा वज्र, आंखों पर ले हरि का अभिशाप ।
अग्नि-स्नान के बिना बुझेगा नहीं राष्ट्र का पाप।
(३-१२-६२ ई०)