
पहला आईपीएल. साल 2008. चेन्नई सुपर किंग्स और कोलकाता नाईट राइडर्स पहली बार एक दूसरे से मुखातिब थीं. कोलकाता ने टॉस जीतकर पहले बैटिंग करनी चाही. साभार : The Lallantop कट टू लास्ट ओवर. बीसवें ओवर की पांचवीं गेंद. वर्ल्ड टी-20 2007 के फाइनल के हीरो जोगिन्दर शर्मा एक बार फिर इनिंग्स का आखिरी ओवर फेंक रहे थे. इनिंग्स की सेकण्ड लास्ट बॉल. इन स्विंगिंग यॉर्कर. लेग स्टम्प के भी बाहर. लेकिन बैट्समैन लक्ष्मीरतन शुक्ला खुद लेग स्टम्प पर रूम बना रहे थे, लिहाज़ा गेंद ब्लॉक होल में पड़ी. बल्ला तक नहीं लगा. कई मायनों में अच्छी गेंद. खासकर डेथ ओवर में. नॉन स्ट्राइकिंग एंड पर खड़े इशांत शर्मा बाई का रन चुराना चाहते थे. जाने क्यूं आखिरी गेंद वो खेल ना चाहते थे. दौड़ पड़े. शुक्ला ने पहली चार गेंदों में ग्यारह रन बनाये थे. आत्मविश्वास से भरे थे. इशांत को वापस जाने को कहा. मगर इशांत के पलीते में आग लग चुकी थी. अब वो न रुकने वाले थे. अगले ही पल दोनों बल्लेबाज बैटिंग एंड पर खड़े एक दूसरे का मुंह ताक रहे थे. धोनी ने विकेट के पीछे गेंद पकड़ी और उसे जोगिन्दर के पास फेंक दिया. और साथ ही एक इशारा किया. रुक जाने का. ऐसा शायद पहली बार देखा गया था. कि कोई कप्तान रन आउट न करने के लिए कह रहा हो. इशांत ये सोचकर पवेलियन जाने लगे कि वो आउट हो चुके हैं. क्यूंकि शुक्ला ने तो अपनी क्रीज़ ही नहीं छोड़ी थी. इसी बीच लक्ष्मीरतन शुक्ला इशांत को समझाने के लिए आगे बढ़े. उधर उन्होंने इशांत की पीठ पर थपथपाते हुए कुछ कहा और इधर धोनी ने जोगिन्दर को इशारा किया – “अब मारो.” जोगिन्दर ने गिल्लियां उड़ा दीं. धोनी ने अपील की. अपील के दौरान अम्पायर को साफ़-साफ़ कहा कि अपील इशांत के आउट होने के लिए नहीं बल्कि लक्ष्मीरतन शुक्ला के लिए है. धोनी ने उस पल तक के लिए इंतज़ार किया जब लक्ष्मीरतन अपनी भूल से क्रीज़ से बाहर आ जाये. धोनी जानते थे कि शुक्ला ऐसी भूल करेगा. उसने की भी. अंपायर ने लक्ष्मीरतन शुक्ला को आउट दे दिया. आखिरी गेंद सचमुच इशांत ने ही खेली.
इस विकेट में धोनी की ताक़त मालूम पड़ती है. इंसानी फ़ितरत को पढ़कर उसे क्रिकेट के खेल में अप्प्लाई करने की ताक़त. फिर वो चाहे वर्ल्ड कप फाइनल में खुद को युवराज से आगे बैटिंग करने का फ़ैसला हो या बांग्लादेश के खिलाफ़ बैंगलोर में पंड्या से शॉर्ट-ऑफ़-द-लेंथ गेंद फिंकवा कर मुस्तफीज़ुर को रन आउट करने का मामला हो. धोनी का ऐसा है कि गेम को खेला कम और पढ़ा ज़्यादा है. हमें कम्पेयर करने में बहुत मज़ा आता है. तो उस हिसाब से भी अगर देखें तो पायेंगे कि धोनी इंडियन क्रिकेट के शक्तिमान हैं. क्यूंकि
होता है जब आदमी को अपना ज्ञान
कहलाये वो, शक्तिमान!!
और यकीनन, धोनी को अपना ज्ञान हो चुका है. एक दिन अचानक, सीरीज़ के बीचों-बीच, बस यूं ही धोनी ने कह दिया कि मैं टेस्ट मैचों से संन्यास ले रहा हूं. बस ऐसे ही बता दिया. कोई प्रेस कॉन्फ्रेंस नहीं, कोई हो हल्ला नहीं, कोई जश्न नहीं, कोई मातम नहीं. बस ऐसे ही कह दिया. जैसे टेस्ट क्रिकेट न हो घर के बगल में बने पार्क में क्रिकेट खेलना हो.
लेकिन धोनी के क्रिकेट के किसी एक फॉरमैट से जाने की बजाय उनके क्रिकेट में आने की कहानी ज़्यादा दिलचस्प है. मेटलर्जिकल और इंजीनियरिंग के एक प्लांट में मामूली से पम्प ऑपरेटर का 17-18 साल का बेटा जब साइकल के हैंडल में अपना किटबैग बांधकर प्रैक्टिस करने पहुंचता था तो लोग उसे ‘बहुत कर्रा मारने वाला लड़का’ के नाम से जानते थे. टेनिस बॉल क्रिकेट में रांची और आसपास के इलाकों में भरपूर नाम कमा चुका धोनी इस उम्र तक ये तय नहीं कर पाया था कि उसे जिंदगी भर क्रिकेट ही खेलना है. साथ ही चूंकि क्रिकेट को करियर ऑप्शन बनाना पैसों के लिहाज़ से एक महंगा फ़ैसला साबित होता है, धोनी के सामने क्रिकेट के साजो-सामान की भी एक मुश्किल खड़ी थी. इस मुश्किल में साथ दिया छोटू भइय्या ने.
छोटू भइय्या रांची में प्राइम स्पोर्स्ट्स नाम की एक दुकान चलाते थे. उन्होंने ही धोनी को जालंधर की BAS नाम की कंपनी से उसका पहला कॉन्ट्रैक्ट दिलाया. अब धोनी को पूरी किट कंपनी की ओर से मिलती थी. 2001 की शुरुआत में ही दिलीप ट्रॉफी के लिए धोनी को ईस्ट ज़ोन के लिए चुना गया. धोनी इस टूर्नामेंट में कैसे भी खेलना चाहता था क्यूंकि उस सीज़न में सचिन तेंदुलकर भी खेल रहे थे. लेकिन सेलेक्शन के बावजूद धोनी तक खबर नहीं पहुंची. ये वो समय था जब मोबाइल फ़ोन इतनी भरपूर मात्रा में उपलब्ध नहीं थे. साथ ही बिहार क्रिकेट असोसिएशन ने धोनी तक उसका सेलेक्शन लेटर ही नहीं पहुंचाया था. धोनी को अपने सेलेक्शन के बारे में मालूम चला अपने दोस्त परमजीत से. वो कोलकाता में रहता था और अखबार में धोनी के सेलेक्शन की खबर सुनकर उसने धोनी के घर फ़ोन मिला दिया. फ़ोन आया रात के आठ बजे. और अगले चौबीस घंटों के भीतर ईस्ट ज़ोन की टीम को कलकत्ता से अगरतला के लिए उड़ान भरनी थी. रांची से कलकत्ता जाने वाली सभी ट्रेनें जा चुकी थीं. अगले दिन ट्रेन पकड़ने का मतलब साफ़ था – फ्लाइट छूट जाती.यहां फिर से से काम आये छोटू भइय्या. उन्होंने बिहार क्रिकेट असोसिएशन से एक कार मांगी जिससे धोनी को कलकत्ता पहुंचाया जा सके. लेकिन असोसिएशन ने साफ़ इनकार कर दिया. छोटू भइय्या फायर हो चुके थे. उन्होंने खुद पैसे इकठ्ठा किये. थोड़े पैसे गौतम गुप्ता ने भी दिए और इन दोनों ने मिलकर एक टैक्सी बुक की. कलकत्ता के लिए. धोनी को साथ बिठाया और चल पड़े. लेकिन हाय री किस्मत! किस्मत के धनी कहे जाने वाले धोनी की टैक्सी बीच रास्ते में ही खराब हो गयी. धोनी की फ्लाइट मिस हो गयी. उसकी जगह दीपदास गुप्ता ने मैच में खेला. हालांकि धोनी अगले मैच के लिए पुणे ज़रूर पहुंचे. वहां वेस्ट ज़ोन को सचिन तेंदुलकर ने बड़े मार्जिन के साथ जिताया.
धोनी को टैक्सी से कलकत्ता पहुंचाने की हर कोशिश करने वाले छोटू भइय्या आज भी रांची में एक बड़ी सी स्पोर्ट्स शॉप चलाते हैं. और गौतम गुप्ता आज धोनी के रिश्तेदार हैं. उन्होंने धोनी की बहन से शादी की. 2008 में धोनी आखिरी बार छोटू भइय्या की स्पोर्ट्स शॉप में पहुंचे थे. वहां इतनी भीड़ इकठ्ठा हो गयी कि धोनी को एक हाथ में चाय और एक हाथ में समोसा उठाकर उनकी शॉप से भाग कर पड़ोस में बने एक छोटे से गोदाम में शरण लेनी पड़ी थी.
अब रांची में धोनी निकलते हैं तो बस अपनी यामाहा 350D पर. हेलमेट के अन्दर छुपे हुए. साथ में कंधे पर लटका एक बैग जिसमें होती है उनकी लाइसेंसी बन्दूक.
धोनी की बंदूकों से मोहब्बत कुछ छुपी नहीं है. उनका एक अपना रिवाज़ है. साल के पहले दिन निशानेबाजी करने का. इंडिया में होने वाले मैचों के दौरान धोनी के पास हमेशा उनकी बन्दूक रहती है. साल 2014 की पहली रात और टीम इंडिया साउथ अफ्रीका से वापस आई थी. सभी प्लेयर्स मुंबई एयरपोर्ट से सीधे होटल निकल गए. धोनी ने अपने लिए गाड़ी मंगवाई और वहां से सीधे नेशनल सेक्योरिटी गार्ड की शूटिंग रेंज में पहुंच गए. अपने रिवाज़ को कायम रखने.
एक सेना के जवान जैसी ज़िन्दगी जीने वाले धोनी जब भी अपने होटल रूम में साथियों के साथ होते हैं, वो ये पक्का करते हैं कि हर कोई पहले एक राउंड में ही खाना मंगवाए. वो नहीं चाहते कि किसी भी तरह से खाना फेंका जाए. उनका कहना है कि आपने कभी कमांडो को देखा है? वो कितने कम सामान में अपना काम बिना शिकायत करते जाते हैं. शायद इन्हीं कमांडोज़ से प्रेरित होकर ही इंडिया के सीमित बॉलिंग लाइनअप से भी जितना हो सकता है अपना काम निकलवा लेते हैं धोनी.
राहुल द्रविड़ उनके बारे में कहते हैं, “आप जान जाते हैं कि वो अचीवमेंट्स की बहुत इज्ज़त करता है. हालांकि वो इसके बारे में खुलके कभी नहीं कहेगा. वो राहुल सर या राहुल जी भी नहीं कहेगा. आप समझ जाओगे कि वो कितना बड़ा फ़्री-थिंकर है. लेकिन इसके साथ ही उसे वो आर्मी वाला स्ट्रक्चर बेहद पसंद है.” शायद यही कारण था कि फ़िज़िकल ट्रेनिंग नापसंद होने के बावजूद धोनी गैरी किर्स्टन के कहने पर स्विमिंग सेशन के लिए सबसे पहले आ जाते थे. क्यूंकि वो गैरी की बेशुमार इज्ज़त करते थे. साथ ही उन्हें अथॉरिटी के मायने मालूम हैं.
क्रिकेट में इन्हीं बातों को मिलाकर परोसने वाले इंसान का नाम है महेंदर सिंह धोनी. अप्रैल 2007 में वेस्ट इंडीज़ में वर्ल्ड कप से बाहर होने के बाद हुई घर पर पत्थरबाजी ने धोनी को और भी कठोर बना दिया था. उसके बाद सितम्बर 2007 में ही टी-20 वर्ल्ड कप जीत के आने के बाद हुए भव्य स्वागत ने उन्हें एक बात समझाई. वो कहते हैं कि ‘जो कुछ भी फ़ील्ड पर होता है उसे मैं इतना सीरियसली नहीं ले सकता. मैं किसी भी हालत में मैदान पर अपने किये से परिभाषित नहीं होना चाहता.’
मैच में हर चीज को सिंपल रखना धोनी की खासियत रही है. उन्होंने चीज़ों को इस कदर सिंपल किया हुआ है कि टीम का कप्तान बनने के बाद उनका पहला काम था टीम के ऑफ-फ़ील्ड ड्रेस में से टाई और ट्राउज़र्स को हटवाना. वो कहते थे कि हम में से काफ़ी सारे लोग सलीके से ट्राउज़र्स भी नहीं संभाल पाते हैं. ऐसे में हमपर एक्स्ट्रा प्रेशर क्यूं डालना.
अरुण पांडे. नेशनल स्टेडियम दिल्ली में नेट्स को संभालते थे. धोनी के दिल्ली आने पर वो उनकी हिटिंग से इम्प्रेस्ड हुए. दोनों में दोस्ती हुई. अब धोनी जब भी दिल्ली आते, पांडे की बरसाती के नीचे उनके ही साथ रहते. आज अरुण धोनी के मैनेजर हैं और साथ ही सबसे करीबी दोस्त भी. पांडे के नाम से बुलाये जाते हैं. धोनी चीज़ों को कितना सिंपल रखते हैं ये पांडे से अच्छा कोई नहीं बता सकता. पांडे कहते हैं कि धोनी फ़ील्ड के बाहर क्रिकेट के बारे में कोई बात नहीं करता. ऐसा लगता है जैसे कि एक स्विच है. जो मैच के दो घंटे पहले ऑन हो जाता है और फिर धोनी की नज़रें मैच पर ही होती हैं. मैच खतम होते ही स्विच ऑफ. वो किसी से भी क्रिकेट के बारे में डिस्कस नहीं करते. उनके दिमाग में प्लान होता है. वैसा ही फ़ील्ड पर काम आता है. बाकी सब कुछ ऑन-द-स्पॉट इम्प्रोवाइज़ेशन. एक बार पांडे ने धोनी से कह दिया था कि वो बहुत नीचे बैटिंग करते हैं. उन्हें थोड़ा ऊपर खेलना चाहिए था. इसपर धोनी ने जो जवाब दिया था, पांडे ने पलटकर आज तक धोनी से क्रिकेट के बारे में कोई डिस्कशन नहीं किया. धोनी ने उनसे साफ़-साफ़ कह दिया, “आज तो बोल दिए हो, आगे से मत बोलना.”
बस इतना सा है फ़लसफ़ा धोनी का. खराब स्वाद की वजह से शराब न पीने वाला रिटायरमेंट के सवाल पर जर्नलिस्ट को अपने बगल में बिठा कर पूछ लेता है, “मैं आज जैसे दौड़ रहा था, क्या लगता है? 2019 तक खेल पाऊंगा?” उसके लिए सब कुछ बहुत सिंपल है. या तो सफ़ेद है या काला. ग्रे जैसा कुछ नहीं. ग्रे अगर कुछ है तो बस दिमाग में. भरपूर भरा हुआ ग्रे मैटर. जो वो लगाता है अपने गेम में. और बाकी का जीवन है उसकी गाड़ियां, पिस्टल, बेमिसाल खंजर और वीडियो गेम्स. खिलाड़ी कहते हैं कि उनका पूरा जीवन बस उनका खेल ही है. लेकिन धोनी के साथ ऐसा नहीं है. खेल उनके जीवन का एक हिस्सा मात्र है. जिससे वो वैसी ही निर्ममता से अलग होंगे जिस निर्ममता से सेना का जवान अपने घर-द्वार को छोड़ सीमा पर किसी अनजान की गोली का सामना करने चल देता है. और उस दिन, सिर्फ इंडियन क्रिकेट में ही नहीं, वर्ल्ड क्रिकेट में भी एक बहुत बड़ा ब्लैक होल बन जायेगा. जिसे भर पाने में सैकड़ों आकाशगंगाएं कम पड़ेंगी. और जब भी ये ख़याल दिमाग में आता है तो मैं खुद से ही कहता हूं –
“आज तो बोल दिए हो, आगे से मत बोलना.”
धोनी को हमने जब भी देखा है ‘माही वे’ मुस्कान के साथ ‘कैप्टन कूल’ की तरह देखा है.