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अरुणोदय

18 फरवरी 2022

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 (15 अगस्त, सन् 1947 को स्वतंत्रता के स्वागत में रचित) 

  

नई ज्योति से भींग रहा उदयाचल का आकाश, 

जय हो, आँखों के आगे यह सिमट रहा खग्रास । 

  

है फूट रही लालिमा, तिमिर की टूट रही घन कारा है, 

जय हो, कि स्वर्ग से छूट रही आशिष की ज्योतिर्धारा है। 

  

बज रहे किरण के तार, गूँजती है अम्बर की गली-गली, 

आकाश हिलोरें लेता है, अरुणिमा बाँध धारा निकली। 

  

प्राची का रुद्ध कपाट खुला, ऊषा आरती सजाती है, 

कमला जयहार पिन्हाने को आतुर-सी दौड़ी आती है। 

  

जय हो उनकी, कालिमा धुली जिनके अशेष बलिदानों से, 

लाली का निर्झर फूट पड़ा जिनके शायक-सन्धानों से । 

  

परशवता-सिन्धु तरण करके तट पर स्वदेश पग धरता है, 

दासत्व छूटता है, सिर से पर्वत का भार उतरता है । 

  

मंगल-मुहूर्त्त; रवि ! उगो, हमारे क्षण ये बड़े निराले हैं, 

हम बहुत दिनों के बाद विजय का शंख फूंकनेवाले हैं । 

  

मंगल-मुहूर्त्त; तरुगण ! फूलो, नदियो ! अपना पय-दन करो, 

जंजीर तोड़ता है भारत, किन्नरियो ! जय-जय गान करो । 

  

भगवान साथ हों, आज हिमालय अपनी ध्वजा उठाता है, 

दुनिया की महफिल में भारत स्वाधीन बैठने जाता है । 

  

आशिष दो वनदेवियो ! बनी गंगा के मुख की लाज रहे, 

माता के सिर पर सदा बना आजादी का यह ताज रहे। 

  

आजादी का यह ताज बड़े तप से भारत ने पाया है, 

मत पूछो, इसके लिए देश ने क्या कुछ नहीं गंवाया है। 

  

जब तोप सामने खड़ी हुई, वक्षस्थल हमने खोल दिया, 

आई जो नियति तुला लेकर, हमने निज मस्तक तोल दिया । 

  

माँ की गोदी सूनी कर दी, ललनायों का सिन्दूर दिया, 

रोशनी नहीं घर की केवल, आँखों का भी दे नूर दिया। 

  

तलवों में छाले लिए चले बरसों तक रेगिस्तानों में, 

हम अलख जगाते फिरे युगों तक झंखाड़ों, वीरानों में । 

  

आजादी का यह ताज विजय-साका है मरनेवालों का, 

हथियारों के नीचे से खाली हाथ उभरनेवालों का । 

  

इतिहास ! जुगा इसको, पीछे तस्वीर अभी जो छूट गई, 

गांधी की छाती पर जाकर तलवार स्वयं ही टूट गई । 

  

जर्जर वसुन्धरे ! धैर्य धरो, दो यह संवाद विवादी को, 

आजादी अपनी नहीं; चुनौती है रण के उन्मादी को । 

  

हो जहाँ सत्य की चिनगारी, सुलगे, सुलगे, वह ज्वाल बने, 

खोजे अपना उत्कर्ष अभय, दुर्दांन्त शिखा विकराल बने । 

  

सबकी निर्बाध समुन्नति का संवाद लिए हम आते हैं, 

सब हों स्वतन्त्र, हरि का यह आशीर्वाद लिए हम आते हैं । 

  

आजादी नहीं, चुनौती है, है कोई वीर जवान यहाँ? 

हो बचा हुआ जिसमें अब तक मर मिटने का अरमान यहाँ? 

  

आजादी नहीं, चुनौती है, यह बीड़ा कौन उठाएगा? 

खुल गया द्वार, पर, कौन देश को मन्दिर तक पहुँचाएगा ? 

  

है कौन, हवा में जो उड़ते इन सपनों को साकार करे? 

कौन उद्यमी नर, जो इस खँडहर का जीर्णोद्धार करे ? 

  

मां का आंचल है फटा हुआ, इन दो टुकड़ों को सीना है, 

देखें, देता है कौन लहू दे सकता कौन पसीना है? 

  

रोली लो, उषा पुकार रही, पीछे मुड़कर टुक झुको-झुको 

पर, ओ अशेष के अभियानी ! इतने पर ही तुम नहीं रुको । 

  

आगे वह लक्ष्य पुकार रहा, हांकते हवा पर यान चलो, 

सुरधनु पर धरते हुए चरण, मेघों पर गाते गान चलो। 

  

पीछे ग्रह और उपग्रह का संसार छोड़ते बढ़े चलो, 

करगत फल-फूल-लतायों की मदिरा निचोड़ते, बढ़े चलो । 

  

बदली थी जो पीछे छूटी, सामने रहा, वह तारा है, 

आकाश चीरते चलो, अभी आगे आदर्श तुम्हारा है। 

  

निकले हैं हम प्रण किए अमृत-घट पर अधिकार जमाने को; 

इन ताराओं के पार, इन्द्र के गढ़ पर ध्वजा उड़ाने को । 

  

सम्मुख असंख्य बाधाएँ हैं, गरदन मरोड़ते बढ़े चलो, 

अरुणोदय है, यह उदय नहीं, चट्टान फोड़ते बढ़े चलो । 

  

(अगस्त, 1947 ई.)  

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रचनाएँ
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